
तपोभूमि में स्वास्थ्य सेवा योजना
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कल्प की शिक्षा एवं चिकित्सा की व्यवस्था
धर्म संस्थाओं का प्रधान उद्देश्य मानव अंतःकरणों में संयम, सदाचार, आस्तिकता एवं पूजा उपासना के अतिरिक्त सेवा और दया की सत्प्रवृत्तियों को विकसित कराना भी है। धर्म संस्थाओं के कार्यकर्ता दयालुता और सेवा आनन्द से अपने सद्गुणों को निरन्तर विकसित करते रहें, साथ ही जन साधारण के कष्टों में कमी होती रहे इस दृष्टि से धर्म संस्थाओं में चिकित्सा एवं आरोग्य शिक्षा को भी प्रमुख स्थान दिया जाता रहा है। बौद्ध धर्म के प्रायः सभी ‘विहारों’ में बड़े-बड़े आरोग्याश्रम एवं चिकित्सालय स्थापित थे, जिनमें बौद्ध भिक्षु उपासना के साथ ही पीड़ितों की सेवा करके अपनी साधना को सर्वांग पूर्ण बनाते थे। महर्षि अश्विनीकुमार, चरक, सुश्रुत, वागभट्ट, शार्गंधर, माधव प्रभृति असंख्य ऋषियों ने अपना सम्पूर्ण जीवन ही मानव जाति की आरोग्य सेवा में लगाया था।
ईसाई मिशनों में सर्वत्र चिकित्सालय को भी साथ रखा जाता है। ईसाइयत के प्रसार में इन मिशनों की यह स्वास्थ्य सेवा भी बड़ी सहायक हुई है। सर टामसरो ने तो जहाँगीर की लड़की का इलाज करके ही, ब्रिटिश माल को कर मुक्त कराने का वरदान प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप इंग्लैंड की इतनी उन्नति हुई। हिन्दू धर्म के दूरदर्शी सन्त स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा स्थापित रामकृष्ण परमहंस मिशन के आश्रम जहाँ भी हैं वहाँ सर्वत्र आरोग्याश्रम चलाये जाते हैं। सेवामय आध्यात्मिक जीवन बिताने की आकाँक्षा वाले विचारशील साधु-संन्यासी इस संस्था को अपना जीवन अर्पण करते हैं। महात्मा गाँधी पर जीवन भर राजनैतिक उत्तरदायित्व रहे, फिर भी अपने प्रिय विषय स्वास्थ्य-सेवा को वे भूले नहीं। प्राकृतिक चिकित्सा उन्होंने स्वयं भी की, अनेकों का इलाज स्वयं किया, इस विषय का साहित्य लिखा, प्रचार किया और उस काँचन में एक बड़ा चिकित्सालय कई करोड़ की लागत से स्थापित कराया। यदि वे जीवित रहे होते तो स्वराज्य प्राप्ति के बाद लोक-सेवी कार्यकर्ताओं के सेवा क्रम में आरोग्य सेवा करने का निश्चय ही प्रमुख स्थान कराते। कस्तूरबा स्मारक फण्ड, गाँधी-स्मारक निधि, हरिजन सेवक संघ आदि संस्थाएं इस दिशा में बहुत कुछ करती भी हैं। (1) परमार्थ का पुण्य संचय, (2) परमार्थ प्रेमियों में सेवा भावना एवं दयालुता बढ़ाने, (3) पीड़ितों के कष्ट दूर करने, (4) लोगों का हृदय जीत कर उनको अभीष्ट मार्ग पर चलने को तैयार करने की चारों दृष्टियों से विचारवान धर्म संस्थाएं चिकित्सा कार्यक्रमों को प्रमुख स्थान देती हैं। ऋषिकेश के काली कमली वाले बाबा ने इस क्षेत्र में भारी काम किया था।
गायत्री तपोभूमि भी बहुत समय से इस आवश्यकता को अनुभव करती है। अब समय आ गया है कि इस संबन्ध में सक्रिय कदम उठाया जाय अब आश्रम में एक “आरोग्याश्रम” स्थापित किया जा रहा है, जिसमें आरम्भ में 10 रोगियों के लिये निवास की व्यवस्था रहेगी।
शरीर में भरे हुए विषों के उफान स्वरूप उत्पन्न हुए रोगों को तीव्र औषधि देकर दबा देने और तुरन्त दवा का असर दिखाने का जादू यहाँ नहीं किया जायेगा। क्योंकि इससे तुरन्त एक रोग को लाभ भले ही होता दिखाई दे जाय पर वह भीतर भरा हुआ विष किसी अन्य मार्ग से फूटेगा ही और रोग का एक लक्षण शाँत होते ही दूसरा उठ खड़ा होने का सिलसिला चलता रहेगा। तपोभूमि के आरोग्याश्रम की नीति रोग के शरीर में व्याप्त विषों को पूरी तरह शरीर से निकालने तथा रोगी को आरोग्य के नियमों पर चलने का अभ्यास बनाकर सदा के लिए निरोग बना देना होगा। चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद शास्त्रोक्त “प्राकृतिक चिकित्सा” होगी। पाश्चात्य प्राकृतिक चिकित्सा का अंधानुकरण तो यहाँ नहीं किया जायगा पर 80 प्रतिशत उपयोग आधार प्राकृतिक चिकित्सा का ही रहेगा। यद्यपि थोड़ा बहुत अन्तर होते हुए भी आयुर्वेद में इस प्राकृतिक चिकित्सा को ही ‘अल्प चिकित्सा’ कहते हैं।
दूध-कल्प, छाछ-कल्प, फल-कल्प, थाक-कल्प आदि विधियों से शरीर के भीतर भरे हुए चिर संचित विषों और मलों की सफाई करने से शरीर निर्मल और रोग-मुक्त हो सकता है। यह कायाकल्प प्रयोग ही तपोभूमि की चिकित्सा प्रणाली का प्रमुख आधार होगा। सूर्य चिकित्सा, यज्ञ चिकित्सा, जल चिकित्सा पद्धतियों का भी इसमें समावेश रहेगा। जड़ी-बूटियों का उपयोग औषधि रूप में भी किया जायगा। रोगियों को प्रतिदिन दो घण्टे रोज आरोग्य शास्त्र की शिक्षा भी लेनी होगी ताकि वह भविष्य में अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के सिद्धान्तों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर सकें।
कल्प चिकित्सा का एक विद्यालय भी साथ ही चलेगा। जिसमें शरीर रचना, शारीरिक अवयवों की कार्य प्रणाली, स्वास्थ्य रक्षा के नियम, आहार-विज्ञान, रोगी परिचर्या, लगभग 100 अत्यन्त गुणकारक जड़ी-बूटियों का समुचित ज्ञान और उपयोग, रोग निदान, आयुर्वेद अंतर्गत कल्प चिकित्सा, पाश्चात्य प्राकृतिक चिकित्सा, यज्ञ चिकित्सा, आसन और प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, व्यायाम आदि आवश्यक विषयों की शिक्षा दी जायगी। जिन्हें प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति अपने निज के तथा दूसरों के स्वास्थ्य को संभालने में प्रवीण हो सकता है।
इस कल्प चिकित्सा शिक्षा का पाठ्यक्रम 6 मास का होगा। वर्ष में दो बार छात्रों की भर्ती हुआ करेगी। अभी यह आरोग्याश्रम जिसके अंतर्गत 10 रोगी और 10 छात्र रहेंगे नवीन भारतीय सम्वत्सर चैत्र से भर्ती करने का विचार है, न रोगी से न विद्यार्थी से किसी प्रकार की कोई फीस ली जायगी। चिकित्सा, निवास, शिक्षा आदि की व्यवस्था पूर्ण निःशुल्क रहेगी। छात्रों और रोगियों को अपने भोजन का खर्च स्वयं बनाना पड़ेगा। भोजन बनाने के लिए रसोइया रख दिया जायगा उनका खर्च तथा खाद्य सामग्री का हिस्सा सब कर बंट जाया करेगा। अनुमानतः बिना घी का भोजन प्रत्येक छात्र पर लगभग 15 रु. मासिक पड़ेगा। रोगी की खुराक भिन्न होगी, जो वह स्वयं खरीदेगा। पकाने का मासिक पारिश्रमिक मात्र उन्हें देना होगा। इस प्रकार अन्यान्य प्राकृतिक चिकित्सालयों में जहाँ लगभग 300 रु. मासिक खर्च पड़ते हैं और केवल धनी लोग ही लाभ उठा पाते हैं? यहाँ बहुत ही कम में काम चल सकता है और गरीब से गरीब व्यक्ति भी लाभ उठा सकते हैं।
अशक्त जो स्वयं अपना काम स्वयं न कर सकते हों, संक्रामक छूत की बीमारियों से पीड़ित, गड़बड़ी करने वाले मानसिक रोगी लेने की अभी व्यवस्था नहीं है। शिक्षार्थी कम से कम हिन्दी मिडिल योग्यता के एवं 18 वर्ष से अधिक आयु के लिये जावेंगे। रोगी तथा विद्यार्थी पत्र व्यवहार करके स्वीकृति प्राप्त कर लें। कार्य आरम्भ होते ही उन्हें बुला लिया जायगा।
‘कल्प चिकित्सा’ प्रणाली, आजकल प्रचलित सभी चिकित्सा पद्धतियों से अधिक उपयोगी एवं लाभदायक सिद्ध होगी। इसलिए आयुर्वेद, होम्योपैथी आदि के चिकित्सक भी इस पद्धति की शिक्षा प्राप्त कराके अपने रोगियों का बहुत हित कर सकते हैं। आजीविका की दृष्टि से भी कल्प चिकित्सा प्रणाली की शिक्षा बड़ी लाभदायक रह सकती है।