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Magazine - Year 1958 - Version 2

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गायत्री उपासना के अनुभव

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काल सर्प से प्राण बचे

कुँवर शिव सिंह जी चौहान मौजा खेड़ा (चितावल्या) से लिखते हैं “ता. 2-11-57 के दिन मैं स्नान करने को कुएं पर गया। जैसे ही बाल्टी खींच कर बाहर निकाली कि उसके चारों तरफ एक सर्प लिपटा देखा। शोर मच जाने से वह भाग गया। पर रात को आठ नौ बजे के दरम्यान जब मैं गायत्री का जप करके रामायण की कथा आरंभ करना चाहता था कि अचानक दिया बुझ गया और एक बहुत बड़ा सर्प फुसकारता हुआ सामने से आता दिखाई पड़ा। मैंने डण्डा उठाकर मारा और दो चार डण्डा लगने से वह मर गया। रात को स्वप्न में मैंने एक पंद्रह सोलह वर्ष की कन्या फूलों का गजरा पहिने देखी जो मुझ से कह रही थी कि “वह तेरा काल था, परन्तु मेरी आराधना करने वाले को कौन सता सकता है। तुम आनंद से भजन करते रहो।”

चुनाव में सफलता मिली

श्री रामनाथ शर्मा, जयपुर से लिखते हैं-”गायत्री परिवार के एक सदस्य के नाते मैं विगत कई वर्ष से वेदमाता की आराधना करना आ रहा हूँ, पर इस बार मुझे माता की कृपा का जो अनुभव प्राप्त हुआ वह अनोखा ही है। मैं अपने नगर की ‘नगर पालिका’ के चुनाव में काँग्रेस के टिकट पर एक वार्ड से खड़ा हो गया। मेरे मुकाबले में नगर के एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित महानुभाव थे। मेरी ओर से प्रचार तो किया गया, पर उनके सामने मेरा प्रचार नगण्य ही था। चुनाव के एक दिन पूर्व रात्रि के 3 बजे जब कि लगातार प्रचार कार्य से थक कर व निराशा की भावना लेकर मैं हार-जीत के झूले में झूल रहा था, तो लेटे ही लेटे वेदमाता का स्मरण करने लगा। अकस्मात् मुझे गम्भीर दैवी वाणी सुनाई पड़ी कि “तुम जीत गये।” प्रातःकाल जनता के मतदान का कार्य शुरू होकर यथा समय समाप्त हुआ। वोटों की गणना होने पर मैं बहुमत से विजयी हुआ। माता की इस कृपा को कैसे भुलाया जा सकता है।

भयंकर बीमारी से प्राण रक्षा

श्रीमती आर. आर. मिश्रा, सतना (मध्य प्रदेश) से सूचित करती हैं कि- “गत दस वर्ष से पूज्य गुरुवर आचार्य जी के संरक्षण में हम लोग निष्काम गायत्री साधना में संलग्न रहकर सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। प्रारब्धवश पिछले वर्ष मुझे मृत गर्भ की विपत्ति का सामना करना पड़ा। नागपुर और सतना के श्रेष्ठ डॉक्टर और डॉक्टरनी उसका ठीक निदान न कर पाये और मेरी जान पूरे 9 स्वयं मास संकट में रही। तो भी हम माता पर पूर्ण विश्वास रख कर साधना में लगे रहे। इसके प्रभाव से गर्भ का मृत बालक बिना आपरेशन के बाहर निकल आया और मेरा दूसरा जन्म हुआ। ऐसी माता और गुरुजी को हम जन्म-जन्मान्तर तक न भूलेंगे।”

गये हुये रुपये प्राप्त हो गये

श्री लक्ष्मीनारायण जाट, ग्राम आवसर (चूरु, राजस्थान) से लिखते हैं-”मैं अपनी दुकान का सामान सुजानगढ़ से लाया करता हूँ। माल उधार लाते हैं, कुछ समय बाद रुपया चुका देते हैं। इस बार जब मैं माल लाया, तो पीछे से सेठ ने मुनीम को अलग कर दिया। मुनीम को हमारे माल उधार लाने का हाल मालूम था। वह एक दिन हमारे यहाँ आया और कहा कि सेठ ने रुपये मंगाये हैं। उस समय मेरे भाई व पिताजी खेती में थे। मैंने बिना किसी से पूछे 100 रु. उसको दे दिये। मैंने मुनीम में न तो सेठ का रुक्का माँगा न कोई बात पूछी। तीन दिन बाद किसी आदमी ने सारा हाल बतलाया। तब हम सब बहुत घबड़ाये और मैं मन ही मन गायत्री माता की आराधना करने लगा। जब सब बात सेठजी से कही गई तो उन्होंने उस रुपये को अपने हिसाब में मान लिया। यह सब माता की ही दया है। मेरे घर में सब गायत्री मन्त्र का जप करते हैं।”

मनोकामनायें पूर्ण हुई

श्री श्यामसुन्दरलाल गोयल, बिजनौर (उ.प्र.) से लिखते हैं- “गत मई मास में मैंने आपसे अपनी तीन कठिनाइयों के सम्बन्ध में निवेदन किया था। आपकी कृपा से गायत्री माता ने उन सब में कार्य सिद्ध करा दिया। प्रथम तो मेरे पुत्र अनिलकुमार गोयल के मैट्रिक परीक्षा के दो पर्चे बिगड़ गये थे। पर वह गायत्री माता की उपासना से सैकिंड डिवीजन में पास हो गया। दूसरी बात मेरे छोटे भाई रामेश्वरप्रसाद गुप्ता के डिपार्टमेंटल इम्तहान के सम्बन्ध में थी। वह भी उत्तीर्ण हो गया और वेतन वृद्धि भी हो गई। तीसरी बात मेरे एक मित्र ब्रज पतिनारायण की पुत्री के विवाह के सम्बन्ध में था। यह कार्य भी बहुत अच्छी तरह हो गया और रुपये की व्यवस्था बिना किसी कठिनाई के सहज में हो गई। वास्तव में गायत्री माता की साधना कभी व्यर्थ नहीं जाती।”

बच्चे के प्राण बच गये

श्री गौरीशंकर ओमर, ग्राम मौदहा (हमीरपुर) से लिखते हैं- “ता. 30 दिसम्बर 57 को मेरा चार मास का शिशु भयानक सर्दी लग जाने से डबल निमोनिया में ग्रस्त हो गया। ता. 31 की शाम को बच्चे की तबियत इतनी खराब हो गई कि मेरी माता व पत्नी निराश होकर अन्तिम अन्नदान कराने लगीं। मैं भी विचलित हो उठा। डॉक्टर का इलाज चल रहा था। माता गायत्री की प्रेरणा हुई और हृदय ने कहा कि इस समय माता का ही अंचल पकड़ना चाहिये। अतः अपने सहयोगी पं. रामेश्वरप्रसादजी शुक्ल व श्री केशवप्रसादजी ओमर को बुलाया और बच्चे के कष्ट निवारणार्थ गायत्री चालीसा के पाठ व जप करने को कहा। वे दोनों फौरन स्नान करके पाठ व जप करने को बैठ गये यह कार्य क्रम संध्या के 6 बजे से रात के साढ़े 11 बजे तक चला। मैं स्वयं मन के अस्थिर रहने से जप कर सका केवल मूक प्रार्थना और अश्रुपात करता रहा। माता ने हमारी पुकार सुन ली और बच्चा थोड़ी ही देर बाद स्वस्थ हो गया और अब सकुशल हैं।”

आश्चर्यजनक परिवर्तन

श्री शिवप्रसाद पाठक, सटई (छतरपुर, मध्य-प्रदेश) से लिखते हैं “मैं एक आस्तिक परिवार का होते हुए भी ऐसी बुरी विचारधाराओं में फंस गया था कि आस्तिकता को त्यागकर नास्तिकता के प्रवाह में बहा चला जा रहा था। परन्तु पूर्व जन्म के पुण्य से श्री छेदीलालजी शर्मा वैद्य का सत्संग प्राप्त हुआ और उन्होंने मुझे सदुपदेश देकर गायत्री का जप करने की प्रेरणा की। फिर मैं ‘अखण्ड-ज्योति’ का ग्राहक बना तथा वहाँ से प्रकाशित पुस्तकें पढ़ने लगा, जिससे मेरी काया पलट हो गई और मैं पूरी तरह से धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति बन गया। इस कार्य में मेरे गुरुदेव श्री रामेश्वरप्रसाद रावत ने भी हर प्रकार से सहायता तथा प्रोत्साहन दिया। मैं वास्तव में अपने इस परिवर्तन को आश्चर्यजनक और वेदमाता का प्रसाद समझता हूँ।”

प्राण दण्ड से बच गया

श्री भगवतीदीन तिवारी बीना (म. प्र.) से लिखते हैं-पिछले नवम्बर मास में मैं छुट्टी लेकर घर गया था। इससे कुछ पहले मेरे साले का पत्र आया था कि आनका तिवारी को कत्ल के मामले में फाँसी का हुक्म हुआ है, इसका कोई उपाय बतलावे। मैंने मातेश्वरी का ध्यान करके जवाब भेजा था कि उसे प्राणदान मिल जायगा, पर सजा अवश्य होगी, क्योंकि उसके ऊपर ईश्वरी कोप है। अब गांव में पहुँचने पर मालूम हुआ कि वास्तव में उस व्यक्ति की फाँसी की सजा बदलकर जन्म कैद की कर दी गई। फिर उसके घर वालों ने मुझे घेरा कि ऐसा उपाय करो कि इस सजा से भी बरी हो जाय। मैंने कहा कि यह सब हो सकता है, पर इसके लिए आप नियम से गायत्री जप और अनुष्ठान करो। इस घटना से गाँव के लोगों में गायत्री माता के प्रति बड़ी श्रद्धा हो गई है।”

धर्म प्रचार में सफलता

श्री जगतराम पस्तोर, अध्यापक गनेशगंज (टीकमगढ़, म. प्र.) से लिखते हैं कि- “जगत जननी गायत्री की प्रेरणा एवं परम पूज्य आचार्य जी के आदेशों से मेरे हृदय में सदैव यह भावना उठा करती थी कि अपने जिले के प्रत्येक गाँव में गायत्री माता व यज्ञ पिता का सन्देश पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। इसकी पूर्ति के लिए मैं कई महीनों से प्रयत्नशील था, पर अपनी कमजोरी को समझकर यह इच्छा करता था कि एक साथी और मिल जाय तो उद्देश्य भलीभाँति पूरा हो सके। मैंने अपने विचार को ‘परिवार’ के कई सदस्यों के सम्मुख रखा पर सबने असमर्थता प्रकट कर दी। माता की कृपा से कुछ समय पूर्व झाँसी से श्री गिरजासहायजी खरे यहाँ पधारे। मैंने उनसे अपनी अभिलाषा प्रकट की और वे तुरन्त साथ देने को तैयार हो गये। फिर भी मुझे यह आशा नहीं थी कि अल्प समय में इतना कार्य हो सकेगा क्योंकि अगर मैं कभी साहस करके एक दिन दस मील साइकिल चला भी लेता था, तो दूसरे दिन दो चार मील भी चलना कठिन हो जाता था। पर इस अवसर पर 8 दिन तक 30-30 मील नित्य चलने पर भी शरीर में ऐसी स्फूर्ति रहती थी कि और भी काफी चल सकते थे। साइकिल पर यात्रा करने में मार्ग की जो कठिनाइयाँ आया करती थीं वे कोई भी न जान पड़ीं और हर जगह आवश्यक सुविधा मिलती गई। एक स्थान पर तो हम घनघोर जंगल को पार करके निकले ही थे कि नाले के पार तीन रास्ता दिखाई पड़े, जो विभिन्न स्थानों को जाते थे। हम लोग बीच रास्ते पर चलने लगे, जो वास्तव में गलत था। उसी समय पीछे से एक जीर्ण-शीर्ण बुड्ढे व्यक्ति ने पुकार कर कहा- “आपको बड़ा गाँव जाना हैं तो दूसरे रास्ते से जाइये।” हम बड़े आश्चर्य में पड़ गये कि इसे कैसे मालूम हो गया कि हमको बड़ा गाँव जाना है। मैंने खरे जी से कहा कि यह साक्षात् माता द्वारा भेजी सहायता है।”

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