
धर्म का निर्णय किस प्रकार किया जाय?
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(पं. लक्ष्मण शास्त्री)
धर्म की परीक्षा के सम्बन्ध में मुख्य प्रमाण किस चीज का माना जाय, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस सम्बन्ध में सदा से दो मत देखने में आते हैं। एक धर्म वाले कहते हैं कि धर्म का निर्णय करने वाली मनुष्य की बुद्धि ही है। कोई भी धर्म शास्त्र हो, उनका निर्माण मनुष्य के अनुभव और विचार द्वारा ही हुआ है। वेद, अवस्था, बाइबिल, कुरान आदि धर्म ग्रन्थ मनुष्य की बुद्धि के ही प्रसाद हैं। मनुष्य की मानसिक क्रिया से जिस तरह कृषि, वाणिज्य, अल्प, राज्य-व्यवहार, जादू, वैद्यक मन्त्र, तन्त्र उत्पन्न होते हैं, उसी तरह सारे धर्म भी उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार के मत को ‘लौकिक प्रमाणवाद कहते हैं। दूसरा पक्ष ‘अलौकिक प्रमाणवाद’ का है। यह पक्ष कहता है कि धर्म-अधर्म का ज्ञान असाधारण या अलौकिक बौद्धिक या मानसिक शक्ति से होता है। इस अलौकिक साधन को दिव्य चक्षु, दिव्य-दर्शन, अपौरुषेय शब्द, आध्यात्मिक साक्षात्कार अथवा सिद्ध पुरुषों की त्रिकाल-दृष्टि कहते हैं।
इन दोनों प्रकार के मतों में कई तरह के उपभेद हैं। पहले मत में ऐतिहासिक और अनैतिहासिक भाग हैं। ऐतिहासिक पक्ष के अनुसार मनुष्य की आदिम अवस्था से लेकर आधुनिक समय तक समाज में जैसे परिवर्तन हुए हैं वैसे ही धर्मों में भी हुए हैं। कारण यह कि इस सामाजिक विकास के अनुसार ही मनुष्य के मन और बुद्धि की परिणति हुई है, और मानसिक परिणति के अनुसार धर्म में परिणति हुई है, धार्मिक अनुभव मनुष्य के अन्य साधारण अनुभवों का ही एक भेद है। उसमें अलौकिकत्व या दिव्यत्व का जो आरोप बाद में किया गया है, उसमें कोई वास्तविकता नहीं।
हाल ही में इस पक्ष में एक अनैतिहासिक सुधारवादी दल उत्पन्न हुआ है। इसकी सम्मति में धर्म ऊंचे दर्जे की मानव बुद्धि का विषय है। संयमी, मननशील, निःस्वार्थी साधु लोग समाज के हित अथवा मनुष्यों के कल्याण को ध्यान में रखकर समय-समय पर धर्म-संस्थापना किया करते हैं, इन सात्विक बुद्धि के स्थित-प्रज्ञ साधुओं को ही धर्म-निर्णय और धर्म-परिवर्तन का अधिकार है। उनकी शुद्ध, सात्विक बुद्धि द्वारा ही यह निश्चय होता है कि समाज कल्याण कारी और श्रेयस्कर कर्म कौन से हैं। यद्यपि परलोक का स्वरूप निश्चित करना कठिन है, तथापि जो कर्म इहलोक में श्रेयस्कर हैं वही परलोक में भी श्रेयस्कर होंगे।
जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं यह लौकिक प्रमाणवाद का पक्ष नया नहीं है। भारत के प्राचीन बुद्धिवादी दार्शनिक बृहस्पति, चार्वाक, उशना आदि ने यही बतलाया है कि कर्म की उत्पत्ति मानव बुद्धि से हुई है। इनके अनेक अनुयायी यह भी कहते हैं कि पारलौकिक और अलौकिक धार्मिक कल्पनाओं का जन्म मनुष्यों की भ्राँति, प्रमाद या लोगों को फंसाने की इच्छा से हुआ है।
महाभारत से मालूम होता है कि प्राचीनकाल में ऐसे अनेक तत्ववेत्ता थे जो नीति को ही धर्म का सार मानते थे, और संयम जन्य श्रेय तथा सर्वभूत सुख को ही मनुष्य का श्रेष्ठ ध्येय समझते थे। उनके मत से धर्म का निर्णय करने के लिए अलौकिक शास्त्र प्रमाण की आवश्यकता न थी। इन तत्ववेत्ताओं का ज्यादा हाल तो मालूम नहीं हो सकता पर परलोकवादी विद्वान कुमारिल भट्ट ने अपने ‘श्लोक वार्तिक’ ग्रन्थ में उनकी खबर ली है। उन तत्व वेत्ताओं के मत का सार यह बतलाया गया है कि वे लोक हितकारक और लोकसुखकारक कर्मों को ही धर्म मानते थे और इसके विपरीत लोक दुःखकारक कर्मों को अधर्म कहते थे। यह रहस्य जो समझ नया उसके लिए शास्त्र व्यर्थ हैं। यह रहस्य जो समझ नया उसके लिए शास्त्र व्यर्थ है। कुप्तारिल भट्ट ने इस पक्ष को अमान्य बतलाया है, क्योंकि यह श्रुति और स्मृतियों के मार्ग के विपरीत था।
महाभारत के समय में ही धर्म निर्णय का दूसरा पक्ष भी था जिसे व्यास पक्ष कहा जाता है, क्योंकि व्यास जी ने महाभारत में अनेक स्थलों पर उसका समर्थन किया है। उसका सार यह है कि दीर्घकाल तक कार्य कारण भाव का अवलोकन और मनन करने से धर्म का निश्चय किया जा सकता है (अनुशासन पर्व 162/7-8) धर्म का ज्ञान होने के तीन साधन हैं-वेद, अनुभव और परम्परागत आचार। पर इन तीनों में वास्तविक दृष्टि से कोई फर्क नहीं है। आचार केवल परम्परा से चले आये हैं, इसलिए प्रमाण नहीं है, उनके भी कारणों की छान-बीन करनी चाहिये (शान्ति. 262।54) धर्म अधर्म का निर्णय करने के लिए बुद्धि का अवलम्बन करना ही आवश्यक हैं (शान्ति. 141।102) बुद्धि से गलत ठहरने वाला शास्त्र वचन निरर्थक है (शान्ति. 141।22) केवल शास्त्र वचनों से और केवल बुद्धि से ज्ञान नहीं होता किन्तु दोनों की परस्पर सहायता लेनी चाहिये। क्योंकि शास्त्र वचनों में भी कोई न कोई युक्तिवाद रहता ही है। (142।12-18) धर्मज्ञान केवल शास्त्र वचनों से होना सम्भव नहीं है। क्योंकि धर्मशास्त्र भिन्न-भिन्न और सम-विषम परिस्थितियों के विविध धर्म कैसे कह सकेगा? भविष्य में आने वाली सारी आपत्तियों का हिसाब शास्त्र कैसे लगा सकेगा? युग मान के अनुसार वेदों का ह्रास होता आया है, इसलिए यह केवल लोगों की धारणा ही है कि ‘वेद’ ही धर्म के प्रमाण हैं, (शाँति. 260।1।10) जीवों को आनंददायक आचरण ही धर्म हैं यही धर्म का लक्षण साधुजनों को मान्य है। हम दूसरों से वैसा व्यवहार न करें जिसकी इच्छा हम अपने प्रति दूसरों से नहीं करते। और दूसरों से हम जिस बर्ताव की इच्छा करते हैं, वैसा ही बर्ताव हम दूसरों के साथ करें, यही धर्म का सार है। (शाँति. 109 और 256) द्रोह और लोभ न करना, इन्द्रिय दमन, अध्ययन, तप, भूत-दया सत्य, सहानुभूति, क्षमा और धैर्य यही सनातन धर्म की निर्विवाद जड़ें हैं। (अनु. 162।176) किसी-किसी अवसर पर नित्य धार्मिक तत्वों में भी अपवाद करना पड़ता है। (शाँति. 109।259)
महाभारत का यह धर्म विवेचनापूर्ण बुद्धिवाद पर आधारित नैतिक धर्म है। ये विचार श्रौत-स्मार्त कर्मकाण्डों को सर्वोपरि महत्व नहीं देते। इससे प्रकट होता है कि महाभारत के समय में विश्व धर्म (यूनीवर्सल रिलीजन) जन्म ले रहा था। इन विचारों को उस समय श्रेष्ठत्व प्राप्त हुआ, जबकि समुदाय और राष्ट्रों के मुकाबले में मनुष्यता का महत्व अधिक ज्ञात होने लगा। मानव जाति के इतिहास में यह एक महान परिवर्तन काल था। इस समय ईश्वर, आत्मा, और पुण्य के पारलौकिक विचार नैतिक धर्म सहायक माने जाने लगे थे, इन धारणाओं के विषय में कोई स्पष्ट प्रमाण महाभारत में नहीं मिलता। यह बात ध्यान में रखने की है कि महाभारत में ईश्वर विरोधी सिद्धान्तों का मिश्रण खूब है। इसी कारण जहाँ उसमें बुद्धिवादी प्रमाणवाद मिलता है वहीं अलौकिक प्रमाणवाद भी पर्याप्त बल के साथ उपस्थित किया है। त्रिकालज्ञ, योग दृष्टि, दिव्य ज्ञान और ईश्वर की दिव्य विभूतियों का उपदेश ऐसे अलौकिक धर्म प्रमाण महाभारत में जगह-जगह आते हैं। गीता तो ऐसे प्रमाणों से ही भरी है। वेद को भी व्यासजी ने स्वयं परमात्मा की अनादि-धनवाणी माना है। महाभारतकार ने यह स्पष्ट कहीं पर नहीं कहा कि मानव बुद्धि ही धर्म के विषय में इसका प्रमाण है।
इस प्रकार वेदों और शास्त्रों के विषय में प्राचीन काल से दोनों मत चले आये है। वेदों के कुछ ऋषियों ने भी अप मन्त्रों को अपनी ही कृति बतलाया है, जब अन्य ऋषियों ने उसे ईश्वरीय प्रेरणा का परिणाम कहा है। निरुक्त के रचियता यास्क का मत है कि अलौकिक शक्ति वाले ऋषियों को धर्म का साक्षात्कार हुआ, उसी ऋषि ने स्वतः प्राप्त किये मन्त्र नीचे दर्जे के लोगों को सिखाए। कणाद के वैशेषिक सूत्रों में भी ऐसा ही मत व्यक्त किया गया है। वे कहते हैं कि वेद बुद्धि से निर्माण हुए हैं, और वह बुद्धि या दिव्य-दृष्टि ऋषियों को अनेक पुण्यों के सामर्थ्य से प्राप्त हुई थी। पाणिनि के समय में विश्वास था कि वेद लोक विलक्षण हैं। पातंजलि के समय में लोग समझते थे कि वेद अनादि-नित्य हैं। पातंजलि ने लोगों के इस मत का यह अर्थ निकाला है कि वेदों का अर्थ तो ‘नित्य’ है परन्तु वेदों के शब्द अनित्य हैं।