
योग का स्वरूप और उसकी गुप्त शक्तियाँ
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(‘एक ब्रह्मवादी सन्त’)
यह तो सभी लोग जानते हैं कि मनुष्य के भीतर अनेक प्रकार की गुप्त शक्तियाँ हैं जिनको विशेष साधनों द्वारा विकसित किया जा सकता है। इनमें से जिस साधन द्वारा आत्मिक शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं उसका नाम हमारे देश में योगाभ्यास है। पर योग के असली अभिप्राय को आजकल के लोग प्रायः भूल गए हैं और वे शारीरिक, मानसिक, चमत्कार दिखाने वालों को ही योगी समझ लेते हैं। पर वे तो साधारण तमाशे की सी बातें हैं जिन्हें अनेक जादूगर और तन्त्र-मन्त्र वाले भी भली प्रकार दिखला सकते हैं। योग का दर्जा इनसे कही ऊंचा है।
योग का सार तत्व भगवान ने गीता में दिया है। यद्यपि हिन्दू धर्म के अनुयायी ‘योग’ से एक विशेष शास्त्र या दर्शन का ही अभिप्राय लेते हैं, पर वास्तव में वह इस महान शास्त्र का केवल एक भाग है। गीता में योग शास्त्र का वर्णन किया गया है और इसके भिन्न-भिन्न विभागों का परस्पर में सम्बन्ध भी दिखलाया गया है। इस प्रकार गीता के योगशास्त्र के अंतर्गत अठारह प्रकार के विशेष योगों का वर्णन है, जो क्रमशः गीता के अठारह अध्यायों में बतलाये गए हैं। इनके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के योग हो सकते हैं। साधारणतः हम समझते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार के योगों में कोई मेल नहीं है। पर गीता में दिखलाया गया है कि वास्तव में उनमें कोई अन्तर नहीं है। चाहे किसी भी रास्ते से मनुष्य चले वह अन्त में एक ही नतीजे पर पहुँचेगा।
इस प्रकार ‘साँख्य’ और ‘योग’ इन दो योगों का मिलान करते समय भगवान कहते हैं :-
साँख्ययोगी पृथग्वालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुयोर्विदन्त फलम्॥
यत्साँख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साँख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥
(गीता अध्याय 5 श्लोक 4-5)
अर्थात् “साँख्य और योग को बालक पृथक-पृथक समझते हैं, पण्डित लोग नहीं। जो समुचित भाव से एक में स्थित रहता है, वह दोनों के फलों को प्राप्त करता है। साँख्य द्वारा जो स्थान प्राप्त होता है, योग द्वारा भी वही प्राप्त किया जा सकता है।”
जो बात यहाँ साँख्य और योग के विषय में कही गई हैं, वही अन्य प्रकार के योगों के सम्बन्ध में कही जा सकती है। यही कारण है कि चाहे जिस किसी योग के मार्ग से विचार कीजिए, भगवान हमेशा अर्जुन का युद्ध में भाग लेना परम कर्तव्य है। पातंजलि योगसूत्र में योग का लक्षण “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” बतलाया है, पर गीता में यही कहा गया है :-
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनन्जय।
सिद्धयसिद्ध् योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
(अ. 2, श्लोक 48)
अर्थात् “हे धनंजय! योगस्थ होकर “संग” (कामना) का त्याग करो और सिद्धि तथा असिद्धि में समता भाव रखकर कर्म करो, समता को ही योग कहते हैं।”
इस प्रकार समता की भावना अथवा योग स्थापित कर लेने पर विश्व की सारी शक्तियाँ मनुष्य के अधिकार में आ जाती हैं। अपने आपको जानना ही समस्त विश्व की जानने की कुँजी है। इस प्रकार आत्मज्ञान का अनुभव प्राप्त कर लेने से जीवन सम्बन्धी सभी नियम मनुष्य को साक्षात दिखलाई पड़ने लगते हैं। उसकी शक्तियाँ भी उसी परिमाण से बेहद बढ़ जाती हैं।
योग की रीतियों और साधारण वैज्ञानिक प्रक्रियाओं में प्रधान अन्तर यही मिलता है। वास्तव में योग विज्ञान के ही अवलम्ब पर है। धर्म और विज्ञान दोनों एक है। अंतर दोनों में केवल इतना ही है कि वर्तमान विज्ञान का सम्बन्ध स्थूल जगत की ही वस्तुओं अथवा नियमों से हैं, और धर्म का सम्बन्ध स्थूल और सूक्ष्म, दृश्य और अदृश्य विश्व के सभी पदार्थों और नियमों से है। अन्यथा धार्मिक नियमों की जाँच भी उसी प्रकार की जा सकती है जिस प्रकार वैज्ञानिक नियमों की जाँच की जाती है। इन दोनों में इतना अन्तर अवश्य है कि वैज्ञानिक प्रयोगों में बाहरी यंत्रों और अन्य सामग्रियों द्वारा जाँच की जाती है, पर यौगिक प्रक्रियाओं से मनुष्य के भीतर स्थित अत्यन्त पेचीदा यन्त्रों का ही उपयोग किया जाता है। मनुष्य के शरीर और मन की बनावट ऐसी विचित्र और दुरूह है कि उसमें स्थूल से लेकर सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्वों के सार भरे हैं। उनके विकास से मनुष्य इस लोक की कौन बात, आकाश में अति दूर स्थित अन्य लोकों में भी भ्रमण कर सकता है और उनका अनुभव प्राप्त कर सकता है।
ये कोई काल्पनिक बातें नहीं हैं। आज भी हमारे मध्य में ऐसे अनेक मनुष्य वर्तमान हैं जिन्होंने योग साधन द्वारा अपनी अनेक गुप्त शक्तियों को विकसित कर लिया है, और इसके परिणाम स्वरूप बहुत ऊंचे दर्जे पर पहुँच गए हैं। हम में से प्रत्येक व्यक्ति, जो उचित परिश्रम करना चाहें, स्वयं योग साधन द्वारा इन बातों की सचाई या झुठाई का पता लगा सकता है। पर केवल जबानी कहने अथवा मन में ख्याल कर लेने से ही कोई काम नहीं सध सकता। यदि कोई आदमी विद्युत शास्त्र अथवा रसायन शास्त्र के किसी नियम की जाँच करना चाहे तो पहले उसे कुछ वर्षों तक उस विषय का अध्ययन करके उसका ज्ञान प्राप्त करना होता है उसके बाद ही वह किसी वैज्ञानिक द्वारा स्थापित किसी नियम की वास्तविकता की जाँच कर सकता है। उसी प्रकार योग-साधन में भी पहले बहुत कुछ सीखना पड़ता है, विशेष प्रकार से रहना पड़ता है, तब गुप्त शक्तियों का क्रमशः विकास होता है।
योग की कोई प्रक्रिया आरम्भ करने के पहले मनुष्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि योगाभ्यास के असली तत्व सदा गुप्त रखे जाते हैं। उनको गुप्त रखने का कारण भी बहुत गूढ़ नहीं है। योग की कितनी ही रीतियाँ ऐसी हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य थोड़े ही समय में अपने कुछ चक्रों को जागृत कर सकता है और इस प्रकार उसके हाथ में कोई असाधारण शक्ति आ सकती है। पर यदि उसके सदुपयोग के लिए पहले ही चरित्र गठन, निस्वार्थता तथा सेवा के सद्गुणों की नींव स्थापित नहीं हो चुकी है, तो वह बहुधा उस शक्ति का दुरुपयोग ही करेगा। और इस दुरुपयोग से केवल उसी को हानि हो सकती है। योग की कुछ विधियाँ ऐसी सुगम हैं कि थोड़े अभ्यास से ही मनुष्य विचित्र ज्योति तथा भाँति-भाँति के रंग और रूपों को देख सकता है। इन्हें देखकर मनुष्य अक्सर धोखे में आ जाता है और इसी को आध्यात्मिक जीवन समझ कर इन्हीं शक्तियों को बढ़ाने की फिक्र में लग जाता है। पर ये शक्तियाँ मनुष्य को कुछ आगे नहीं पहुँचाती हैं, वरन् उसे तरह-तरह के अदृश्य आक्षेपों का केन्द्र बना देती हैं। इसी कारण योगी लोग योग के भेदों को अत्यन्त गुप्त रखते हैं और केवल अधिकारी पुरुषों को ही बतलाते हैं।
केवल पुस्तकों को पढ़कर योगाभ्यास कभी आरम्भ नहीं करना चाहिए। योग की अनेक बातें ऐसी हैं जो कभी पुस्तकों में प्रकाशित नहीं की जा सकतीं। पुस्तकों से योग का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, उसकी जिज्ञासा बढ़ाई जा सकती है, पर योगाभ्यास का मर्म बिना अनुभवी पुरुष की सहायता के समझना असम्भव है। इसके अतिरिक्त पुस्तक में तो केवल साधारण भाव से किसी वस्तु का वर्णन किया जा सकता है। पर योगाभ्यास में उन साधारण बातों के अलावा बहुत सी ऐसी भी बातें हैं जो प्रत्येक अभ्यास करने वाले की शारीरिक अवस्था और व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्ध रखती हैं, पुस्तकों द्वारा उन सबको बतला सकना असम्भव ही है। जो व्यक्ति इन बातों पर ध्यान न देकर मनमाने ढंग से योगाभ्यास शुरू कर देते हैं वे ही प्रायः रोगी या पागल बनकर अपनी भूल का दुष्परिणाम सहन करते हैं और साथ ही योग विद्या को भी बदनाम करने का कारण बनते हैं।