
हमारा भोजन और उसके द्वारा शरीर का पोषण
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(डॉ. सतीशचन्द्रदास गुप्त)
मनुष्य के शरीर का पालन पोषण और उसकी वृद्धि भोजन द्वारा ही हो सकती है। पर न तो सब प्रकार के भोजन शरीर को एक समान ही पोषण देते हैं और न सब प्रकृतियाँ के व्यक्तियों के लिए हर एक भोजन लाभकारी ही हो सकता है। इसलिए आहार शास्त्री बहुत वर्षों से मनुष्यों तथा मनुष्य से मिलते अन्य प्राणियों पर विभिन्न खाद्य पदार्थों का प्रयोग करके इस बात का पता लगाते रहते हैं कि किस में क्या विशेषता है और कौन-कौन तत्व पाये जाते हैं। भोजन के पदार्थों में आजकल निम्नलिखित 5 पदार्थ मुख्य रूप से पाये जाते हैं- (1) प्रोटीन, (2) कार्बोहाइड्रेट अथवा श्वेतसार, (3) खनिज लवण, (4) विटामिन, (5) जल।
इन सब के अतिरिक्त चरबी भी एक ऐसा पदार्थ है जिसकी शरीर को बहुत आवश्यकता होती है। पर मानव शरीर के भीतर श्वेतसार से स्वयं ही चर्बी तैयार हो जाती है। वैसे अगर हम वैज्ञानिक प्रयोगशाला में रासायनिक विधि से श्वेतसार को चर्बी के रूप में बदलना चाहें तो यह सम्भव नहीं होता, पर शरीर की सजीव प्रयोगशाला में यह कार्य हो जाता है। शरीर के भीतर खाद्य-पदार्थों में जीवित कोषों या सेलों के प्रभाव से, कई प्रकार के रासायनिक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों द्वारा अनाज, दाल, तरकारी आदि जो कुछ हम खाते हैं वे देह को बनाने वाली भिन्न-भिन्न वस्तुओं के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इन परिवर्तनों को सामूहिक रूप में आत्मीकरण (मेटाबॉलिज्म) कहते हैं। यह आत्मीकरण चार भागों में बाँटा जा सकता है :-
1- शरीर की रचना या शरीर गठन करने वाली वस्तुओं की रचना के लिए।
2-शरीर की मरम्मत या दुरुस्त रखने के लिए।
3-शरीर की भीतरी क्रियाओं के लिए शक्तिदायक वस्तु पहुँचाने के लिए।
4-शरीर की बाहरी क्रियाओं के लिए शक्तिदायक वस्तु पहुँचाने के लिए।
अगर हम 1, 2, 4 नम्बर के परिवर्तनों या आत्मीकरण को छोड़ दें, अर्थात् यदि हम शरीर की रचना, मरम्मत करना छोड़ दें तो सिर्फ 3 नम्बर वाला परिवर्तन, अर्थात् शरीर की भीतरी क्रियाओं के लिए शक्ति पहुँचाने का काम रह जाता है। सिर्फ शरीर के इस भीतरी कार्य के लिए जितनी शक्ति की जरूरत पड़ती है उसे मूल आत्मीकरण कहते हैं। इस मूल-आत्मीकरण की मात्रा जानने के लिए हमको यह पता लगाना होगा की अनशन या उपवास के समय बिना कोई काम करते हुए सिर्फ जीवित रहने में कितनी शक्ति खर्च होती है। भोजन करने पर आत्मीकरण (शक्ति का व्यय) की मात्रा बढ़ जाती है। इसी प्रकार शारीरिक परिश्रम करने से भी आत्मीकरण बढ़ जाता है। रात भर सोने के बाद जब मनुष्य जगता है और बिछौने पर पड़ा रहता है और कोई विशेष बात नहीं सोचता रहता, तो उस समय आत्मीकरण की मात्रा सबसे कम रहती है इसी को मूल आत्मीकरण कहते हैं।
जो आदमी उपवास करता है वह पहले अपने शरीर में सज्जित शक्कर या श्वेतसार पर जीवित रहने के लिए निर्भर करता है। इस चीनी के खत्म हो जाने पर वह चर्बी पर निर्भर करने लगता है। पर शरीर के इंजिन में केवल शक्कर या चीनी के जलाने से ही काम नहीं चल सकता, जीवन-क्रिया के जारी रहने के लिए कुछ प्रोटीन का जलना भी जरूरी है। इसलिए अनाहार या उपवास के समय श्वेतसार, चर्बी और कुछ प्रोटीन जलती रहती है। चर्बी का भंडार जिस मात्रा में खाली होता जाता है उसी मात्रा में प्रोटीन अधिक खर्च होने लगती है। जब चर्बी बिलकुल खत्म हो जायगी तो शरीर का कार्य केवल प्रोटीन को खर्च करके चलता है, इसका अर्थ है कि उस समय मनुष्य के शरीर का माँस, हड्डी और चमड़ा खर्च होता रहता है। अनशन के समय अंगों का उपयोग या क्षय एक निश्चित प्राकृतिक नियम के अनुसार होता है। पहले कम आवश्यक अंग क्षय होते हैं। उसके बाद उससे कुछ अधिक आवश्यक अंगों के ऊपर हाथ लगता है। सब के अन्त में नितान्त आवश्यक अंग काम में आते हैं इसके बाद जब जीवन के सबसे प्रधान अंगों पर हस्तक्षेप होने लगता है तो मृत्यु हो जाती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के लिए भोजन आवश्यक है और अगर शरीर को बाहर से भोजन नहीं मिलेगा तो वह अपने भीतर के पदार्थों को ही खाद्य रूप में व्यवहार करते हुए जितने दिनों तक चलना उसके लिए संभव होगा उतने दिन तक चलायेगा।
इस प्रकार मूल आत्मीकरण (बैसल मेटाबॉलिज्म) को जान लेने पर हम इस बात का पता लगा सकते हैं कि इस शरीर रूपी इंजिन से अगर जरा भी काम न लेकर यों ही बेकार चलने दिया जाय तो नित्यप्रति इसके लिए कितने ईंधन (ताप उत्पन्न करने वाले खाद्य पदार्थ) की आवश्यकता पड़ती है। अब वैज्ञानिकों के इस तरह खर्च होने वाले ताप और उसके लिए आवश्यक भोजन का एक मोटा हिसाब तैयार कर लिया है। शारीरिक ताप की सबसे छोटी मात्रा का नाम उन्होंने ‘कैलोरी’ रखा है और यह बतलाया है कि करीब एक सेर पानी को एक डिग्री गर्म करने में एक घण्टे में जितना ताप खर्च होता है वह एक कैलोरी है। एक पूरा नौजवान आदमी जिसकी ऊँचाई और मोटाई मध्यम दर्जे की है वजन में लगभग 70 सेर होगा और इस 70 सेर वजन को पूर्ण निष्क्रिय अवस्था में ताप देने के लिए अथवा जीवित रखने के लिए प्रति घण्टे 70 कैलोरी ताप खर्च होगा, जिसका परिणाम 24 घण्टे में 1680 कैलोरी हो जायगा। अगर आदमी नाटा या दुबला पतला होगा तो उसका खर्च इसी हिसाब से कम होगा।
ताप की यह मात्रा तो शरीर की भीतरी क्रियाओं के लिये शक्तिदायक वस्तु पहुँचाने के लिये हुई। अब हम जो काम धंधा करते हैं उसमें जो परिश्रम करना पड़ता है उसके लिये खर्च होने वाला ताप इससे भिन्न है। जाँच करने वालों के कई प्रकार के पेशों को करने वाले व्यक्तियों के परिश्रम की जाँच करके वह निश्चित किया है कि उन पेशों में प्रति घंटा ताप की कितनी मात्रा या कैलोरी खर्च होती है। इनका बतलाया हिसाब इस प्रकार है :-
दर्जी-44, दफ्तरी-51, मोची 90, लोहा घिसने वाला कारीगर 141, पालिश का काम करने वाला 145, बढ़ई 146, लकड़ी चीरने वाला 378।
इस सूची से मालूम हो जाता है कि किस पेशे में कितना परिश्रम पड़ता है और उसके लिये कितनी कैलोरी प्रति घंटे या प्रतिदिन खर्च होती हैं। जैसे अगर एक बढ़ई प्रति दिन आठ घंटा काम करता है तो 1 घंटा में 146 कैलोरी के हिसाब से वह प्रति दिन 146&8=1168 कैलोरी खर्च करेगा। उस आदमी का वजन अगर डेढ़ मन या 60 सेर हो तो 60+24=1440 कैलोरी ताप उसके मूल आत्मीकरण में खर्च होगा। इसके सिवाय चलने, फिरने, बैठने-उठने का काम भी वह कुछ न कुछ अवश्य करेगा और उसमें भी कुछ शक्ति अवश्य खर्च होगी। इस प्रकार सब बातों पर विचार करने से यह अनुमान लगाया जाता है कि एक आदमी को साधारण रूप से जीवित रहने और जीवन निर्वाह का कोई पेशा करने के लिये इतने भोजन की आवश्यकता है जो प्रति दिन 3000 कैलोरी ताप उत्पन्न कर सके।
अब प्रश्न होता है कि हम इस बात का निर्णय किस प्रकार करें कि शरीर के भीतर इतना ताप उत्पन्न करने के लिए उसके भीतर कितना भोजन रूपी ईंधन डालना आवश्यक है। वैज्ञानिकों ने बहुत कुछ जाँच पड़ताल करके यह निश्चय कर दिया है कि भोजन के किस पदार्थ के एक छटाँक या एक औंस वजन से कितना कैलोरी ताप उत्पन्न होता है। साथ ही शरीर को जिन प्रोटीन, चर्बी, खनिज लवण, विटामिन आदि विभिन्न पदार्थों की आवश्यकता है, वे भी ठीक हिसाब से मिलते रहें, इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है। प्रत्येक पदार्थ में पाये जाने वाले उपर्युक्त पदार्थों और उनसे उत्पन्न होने वाले ताप की एक सूची बना दी गई है जो आहार-शास्त्र की पुस्तकों में देखी जा सकती है।