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Magazine - Year 1958 - Version 2

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सद्गुणों का पालन ही समाज संगठन का मूल हैं।

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(श्री. ज्वालाप्रसाद एम. ए.)

आजकल कुछ लोगों में एक विचार यह फैलता जाता है कि मनुष्य के सारे दुख उसके प्राकृतिक अवस्था को छोड़कर सामाजिक और सभ्यता के कृत्रिम अकर्मों के अनुसार जीवन यापन करने से हुये हैं। उदाहरण के लिये वे कहते हैं मनुष्य के सिवा संसार में कोई भी अन्य जीवधारी कपड़े नहीं पहनता और इससे वह मनुष्य की अपेक्षा बहुत अधिक निरोग और स्वस्थ रहता है, इसलिये मनुष्यों को भी नंगा रहना चाहिये। पर यह विचार अधिकाँश में भ्रम मूलक है। ऐसे विचार वाले लोग पशुओं और मनुष्यों के एक बड़े भेद को भूल जाते हैं। मनुष्यों में जो अद्भुत कल्पना शक्ति है उसके प्रभाव से प्राकृतिक अवस्था में रहकर भी वह अपनी स्वार्थ सिद्धि के अधिक मार्ग कल्पित कर लेगा। वह दूसरों के लिए कष्ट अथवा हानि का कारण होगा। उसकी कल्पना या किसी प्रकार की हानिकारक प्रवृत्ति से दूसरों को कष्ट न हो इस कारण उस पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है। ऐसे प्रतिबन्धों का समूह ही कुछ समय बाद सामाजिक संगठन का रूप ग्रहण कर लेता है। इनमें उत्तम और स्थायी सामाजिक संगठन वही माना जा सकता है जिसमें सद्गुणों के विकास के लिये पूर्ण अवस्था हो।

इससे यह स्पष्ट है कि सद्गुणों का पालन ही सब उत्तम सामाजिक नियम है और उसी से सब को सुख व शाँति की प्राप्ति हो सकती है। ऐसे सद्गुणों की सहनशीलता, सहिष्णुता, परस्पर ऐक्य भाव और प्रेम तथा अपने समाज तथा देश के प्रति सच्चा अनुराग परमावश्यक है। बिना सहनशीलता के समाज में अनेक तरह के झगड़े व कष्ट उत्पन्न होते हैं। अपने विचारों व अपने ही धर्म को सर्वोपरि समझना व दूसरे धर्मों को घृणा की दृष्टि से देखना अभिमान है। इसी कट्टरता से ईश्वर प्रसन्न नहीं हो सकता। भिन्न-भिन्न देशों और समयों में भिन्न-भिन्न धर्मों को प्रकट करना यह सिद्ध करता है कि ईश्वर की इच्छा यही है कि उसके बन्दे भिन्न-भिन्न धर्मों को मानते हुये परस्पर सहानुभूति व मेल से रहना सीखें जिससे उनकी कट्टरता और अभिमान दूर हों और उनमें सद्गुणों का विकास हो। इन सद्गुणों के विकास से ही लोग उस ईश्वर के दर्शन के अधिकारी हो सकते हैं। इस दृष्टि से धार्मिक कट्टरता ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध आचरण करना समझा जायगा। कट्टरता और असहिष्णुता से मनुष्य धर्मात्मा बनने के बदले पशुओं के समान स्वभाव वाला अविचारी बन जाता है।

जब हम इस बात को समझ लेते हैं कि धर्मों तथा सम्प्रदायों में जो भेद प्रतीत होते हैं वे सब भिन्न-भिन्न देश, काल व परिस्थिति में पैदा होने के कारण होते हैं तो हमारा मन उदार हो जाता है और हम सब धर्मों को ईश्वर तक पहुँचने के अनेक रास्ते समझने लगते हैं। जिस प्रकार कोई मनुष्य एक धर्म पर विश्वास करता है उसी प्रकार उसे दूसरों को भी उनके धर्मों पर विश्वास करने का अधिकार देना चाहिये। धर्म-परिवर्तन कराने के लिये धोखा देना या जबर्दस्ती करना तो महापाप है जिसको ईश्वर कभी क्षमा नहीं कर सकता। धर्म परिवर्तन के लिये किसी से विशेष आग्रह करना भी आवश्यक नहीं। आजकल सब धर्मों की पुस्तकें सुलभ हैं जिसकी रुचि हो वह उनका अध्ययन कर सकता है। धार्मिक विचार प्रत्येक मनुष्य का अपना विषय है, उनमें हस्तक्षेप करने का दूसरे को अधिकार नहीं हैं। इस सिद्धान्त को न मानने से धार्मिक संघर्ष पैदा हो जाता है। लड़ाई-झगड़े में धर्म-पालन के बदले अनेक अधर्म से कार्य हो जाते हैं। धर्म के बदले अधर्म की वृद्धि होती है।

इसी प्रकार वैज्ञानिक अनुसन्धानों को धार्मिक कट्टरता से रोक देना मानों समाज की उन्नति को जान-बूझकर बन्द कर देना है। जैसा कि सब कोई मानते हैं धर्म का मुख्य अंग ईश्वर भक्ति और सद्गुणों का पालन करना है। इसमें वैज्ञानिक खोजों से कोई हानि-लाभ नहीं हो सकता। वैज्ञानिक खोज कभी दुर्गुणों को सद्गुण सिद्ध नहीं कर सकती। सम्भव है कि किसी वैज्ञानिक खोज से ईश्वर के स्वरूप सम्बन्ध विचारों में कुछ परिवर्तन हो जाय, जैसा कि दर्शन शास्त्र (फिलॉसफी) से हो जाता है। परन्तु ईश्वर की सत्ता से-संसार की महान शक्ति के केन्द्र की सत्ता में-कोई सन्देह पैदा नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त अन्य रस्म-रिवाज परिवर्तनशील हैं और इन पर वैज्ञानिक प्रकाश पड़ने से अप्रसन्न होना अपनी ही उन्नति में बाधा डालना है। किसी वैज्ञानिक बात पर हम विश्वास करें या न करें यह हमारी इच्छा है, परन्तु उसका सुनना भी अस्वीकार करना कट्टरता है। इसी कट्टरता से संसार में अधिकाँश धार्मिक उत्पात हुये हैं।

समाज में पद-पद पर सहनशीलता की आवश्यकता पड़ती हैं। यदि प्रत्येक मनुष्य यह चाहे कि मनमाने ढंग से स्वतन्त्रता का उपयोग करे तो कोई भी स्वतन्त्र और सुखी न रह सकेगा। प्रत्येक अपने ही स्वार्थ का ध्यान रखेगा और उसकी पूर्ति के लिये दूसरों को कष्ट देगा। परिणाम यह होगा कि जो सबसे बलवान होगा, वह सबको दबा लेगा। परन्तु उसको भी सदैव यह भय लगा रहेगा, कि दूसरे लोग सम्मिलित होकर उसको न दबा लें अथवा कोई दूसरा उससे भी अधिक बलवान न पैदा हो जाय। इसलिए सभी दुखी व चिन्तित रहेंगे। अपनी स्वतन्त्रता का भले प्रकार उपयोग करने के लिये भी यह आवश्यक है कि हम दूसरों को कष्ट न दें। यदि हम किसी को ईंट मारना चाहें और इसको अपना स्वतन्त्र अधिकार मानें तो दूसरा भी हमें पत्थर से मारेगा। अस्तु ऐसी ‘स्वतन्त्रता’ को दबाना होगा। यह दबाना ही सामाजिक संगठन है।

जिस प्रकार प्रत्येक मनुष्य के कुछ अधिकार होते हैं, उसी प्रकार उसके कुछ कर्तव्य अथवा धर्म भी होते हैं। यदि प्रत्येक मनुष्य अपने अधिकारों का ही अधिक ध्यान रखें और इसी बात की फिक्र करता रहे कि दूसरे लोग उसके अधिकारों का आदर करते हैं या नहीं, तो दूसरों के प्रति उसके जो कर्तव्य या धर्म हैं उनके पालन में वह त्रुटि कर जायगा। परिणाम यह होगा कि दूसरे के अधिकारों की रक्षा न होगी और समाज में एक लड़ाई-झगड़ा सा मचा रहेगा। इसके विपरीत यदि प्रत्येक मनुष्य अपने कर्तव्यों के पालन का ध्यान रखेगा तो उसे सबके अधिकारों की रक्षा स्वयमेव ही होती रहेगी और सब सन्तुष्ट रहेंगे। यही कारण हैं कि प्रत्येक सद्धर्म में अपने धर्म के पालन पर ही जोर दिया गया है। संभव है कि कोई पापी मनुष्य धर्म का ध्यान न रखकर अनुचित मार्ग पर चले। फिर भी धर्मात्मा मनुष्य को अपने धर्म पालन का ध्यान रखना चाहिये। इससे सम्भव है कि पापी भी अपनी गलती को अनुभव करके ठीक मार्ग पर आ जाय। पर यदि पापी के उत्तर में वह भी पाप करने लगेगा तो दूसरों का पाप छुड़ाना दूर रहा, वह स्वयं भी पानी बन जायगा। यदि कहीं आग जलती हो तो उसे पानी से ही बुझाया जा सकता है, दियासलाई दिखाने से नहीं। कहावत है कि “एक चुप सौ को हरावे।” पर इसका अर्थ यह नहीं कि जहाँ किसी आततायी को रोकना हो तो वहाँ हम चुप रहें। जहाँ जैसा धर्म हो वहाँ वैसा ही व्यवहार करना मनुष्य का कर्तव्य है।

इसी प्रकार परस्पर सहायता करना भी सामाजिक जीवन का मूल है। बिना दूसरों की सहायता के हमारी जीवन यात्रा ही असम्भव हो जायेगी। प्रतिक्षण हमारा दूसरों से संसर्ग होता रहता है। यदि हम दूसरों की सहायता करने में त्रुटि करते हैं तो फिर हमको भी दूसरों से सहायता पाने का अधिकार नहीं हो सकता।

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