
जैन तीर्थंकर-भगवान महावीर
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जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का पहला नाम ‘वर्धमान’ था। इनके पिता ‘लिच्छविराज सिद्धार्थ’ और माता का नाम ‘त्रिशला’ था। इनका जन्म-स्थान वैशाली का कुण्ड ग्राम और जन्म-तिथि चैत्र सुदी त्रयोदशी थी।
जिन महापुरुषों की जन्म-तिथि संसार के लिये पर्व और जिनका जन्म-स्थान तीर्थ के समान पवित्र माना जाता है, निःसन्देह उनके निर्विकार आचरण में कुछ महान गुण होते भी हैं। उन गुणों में लोकमंगल का उनका गुण सबसे अधिक महान होता है। यों तो संसार में महात्माओं और योगियों की कमी कभी नहीं रही किंतु संसार उन सभी को कभी याद नहीं करता। संसार उन्हीं को याद किया करता और नाम लिया करता है, जो उसके हित के लिए कुछ कर जाते हैं।
श्री महावीर महात्मा थे, परमार्थी थे और ‘जिन’ थे। किन्तु उनका यह सब कुछ था, संसार के कल्याण के लिये ही। यदि वे चाहते तो अन्य योगियों की तरह किसी गुफा कन्दरा में चले जाते और आत्म लाभ प्राप्त करके ऋद्धि-सिद्धि अथवा निर्वाण प्राप्त कर सकते थे। किन्तु वे हजार कष्ट सहकर भी संसार में ही रहे और उसी के लिए ही कल्याण कार्य करते रहे।
जन-कल्याण की भावना से जन्मी हुई महावीर की सेवा भावना दिन-दिन बढ़ती गई और वे अपनी संकुचित सीमा से निकल कर संसार की विस्तृत परिधि में प्रवेश करने लगे। ज्यों-ज्यों उनका यह विकास बढ़ता गया, वे व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं से विरक्त ही नहीं, प्राणी मात्र के लिये व्याकुल होते गये और आखिर शीघ्र ही वह घड़ी आ गई, जब उनकी सकरुण आत्मा ने लोकमंगल के लिए संन्यास लेने की ठान ली!
महाराज सिद्धार्थ को मन्त्रियों ने न केवल सूचना ही दी, बल्कि परामर्श भी दिया गया कि वे कुमार वर्धमान को साधु होने से रोकें। माता-पिता ने राजकुमार को डाँट-फटकार से बदलता न देखा तो उन्होंने उसकी विरक्ति भावना नष्ट कर देने के लिये विवाह कर दिया।
अब, पुत्र कर्तव्य के वशीभूत, माता-पिता की आज्ञा पालन स्वरूप जब उन्होंने विवाह कर के एक उत्तरदायित्व ले ही लिया, तब उसे खींच-तान के साथ निभाना कहाँ की बुद्धिमानी होती? अपनी इच्छा के विरुद्ध विवाह को यदि वे एक बोझ की तरह ढोते तो यह उस पत्नी के प्रति एक घोर अत्याचार होता, जो विभोरता के साथ पति को सुखी करके स्वयं सुखी होने आई थीं।
राजकुमार वर्धमान ने अपने दाम्पत्य जीवन को एक आदर्श जीवन की तरह चलाया। राजन्य होने के बावजूद भी वे एक साधारण व्यक्ति की तरह गृहस्थी के हर छोटे-बड़े काम में रुचि लेते। सेवकों के होते हुए भी सारे काम अपने हाथ से करते। पत्नी को आत्मा की गहराई से इस सीमा तक प्यार किया कि उसका मानवीय अनुराग श्रद्धा में बदल गया और उसका महत्वपूर्ण सारा मोह वर्धमान की महानता में डूब गया।
उनकी पत्नी राजकुमारी यशोदा ने स्पष्ट अनुभव कर लिया, उसका पति परमात्मा का पूर्ण प्रतिबिम्ब है। वे केवल उसकी ही सम्पत्ति नहीं, बल्कि सारे संसार की विभूति हैं, जिसका कि लाभ दुनिया की दुःखी मानवता को मिलना ही चाहिए। कुछ ही समय में एक पुत्री रत्न के रूप में पति का प्रसाद पाकर यशोदा संतुष्ट हो गई और उसने पति की इच्छानुसार उन्हें संसार को सौंप देने की तैयारी कर ली!
इसमें सन्देह नहीं कि किसी कच्ची लगन वाले के लिये वैराग्य-मार्ग में ‘विवाह’ एक विशेष बन्धन है। किन्तु जो अन्तरात्मा से मोह विरक्त हो चुका हो, उसे संसार का कौन-सा प्रलोभन ध्येय मार्ग से विचलित कर सकता है? वर्धमान ने गृहस्थी को अनासक्त भाव से भोगा और पत्नी को इतना अधिक प्रेम किया कि कोई दूसरा सारे जीवन में भी नहीं कर पाता। वर्धमान ने अपने सरल स्वभाव तथा सादे जीवन से जन-साधारण के सम्मुख सामान्य जीवन का एक आदर्श उपस्थित कर दिया।
अपने बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार से वर्धमान ने पत्नी को तो परोपकार के लिये हर त्याग करने के लिये तैयार कर लिया था, किन्तु माता-पिता का मोह कम कर सकने का कोई उपाय नहीं था। पत्नी पर तो उनका अपना अधिकार था और उसका कर्तव्य था कि वह पति की महान भावनाओं के अनुरूप अपने को ढाले और उसने वैसा ही किया भी, किन्तु माता-पिता तो उस परिधि में आते न थे। माता-पिता का अधिकार स्वयं वर्धमान पर था। वह नहीं चाहते थे कि उनको शोक-समाहित कर संन्यास ले लिया जाये। कारुणिक हृदय होने के कारण वे माता-पिता के ममत्व का मूल्य समझते थे।
समय आया और जो माता-पिता अपने को छोड़कर वर्धमान को परमार्थ पथ पर नहीं जाने देना चाहते थे, वही एक दिन स्वयं उसे छोड़कर चले गये। माता-पिता के दिवंगत होने के समय वर्धमान की आयु अठारह वर्ष की थी, किन्तु फिर भी वे संन्यास लेकर घर से चल देने को तैयार हो गये। माता-पिता की आकस्मिक मृत्यु ने उनमें यह विचार प्रबल कर दिया कि किसी भी शुभ कार्य में देर न करनी चाहिए, क्योंकि इस क्षणभंगुर शरीर का कोई ठीक नहीं कि किस समय धोखा दे जाये?
वर्धमान को घर से जाते देखकर उनके बड़े भाई नन्दिवर्धन ने उन्हें रोक कर कहा— “वर्धमान अभी तो माता-पिता के बिछुड़ने की घड़ी पुरानी भी नहीं पड़ी, उसका घाव बिल्कुल ताजा है और अब तुम भी मुझे छोड़ कर जा रहे हो—क्या मेरा दुर्भाग्य इतना क्रूर और कठोर है? परिवार को अपने बिछोह का आघात सहन कर लेने के योग्य हो लेने दो, तब जाना और इसके लिए मैं तुमसे दो वर्ष की अवधि माँगता हूँ।”
वर्धमान के चलते हुए कदम रुक गये। माता पिता की भाँति ही आदरणीय अपने बड़े भाई का हृदय तोड़ना भी उन्होंने उचित न समझा। वर्धमान ने इस दो वर्ष की अवधि को भी अपने आगामी जीवन के अभ्यास में ही लगाया। वे घर पर रुक तो अवश्य गये, किन्तु पूर्ण साधु की भाँति ही।
इधर नन्दिवर्धन ने उनके भाग की जो लाखों रुपयों की सम्पत्ति दी थी, वह भी उन्होंने स्नेहियों, सेवकों तथा दीन-दुखियों को बाँट दी। नन्दिवर्धन की जरा भी इच्छा न थी कि वह संन्यास लेते हुए अपने छोटे भाई का दाय भाग दबा लें। वास्तव में वे कितने अभागे होते होंगे, जो अवसर का लाभ उठाकर अपने भाइयों का अधिकार छीन लेते होंगे। यदि नन्दिवर्धन—वर्धमान को उनका भाग न भी देते तो भी उनको कोई शिकायत न होती। जो सारा घरबार छोड़कर संन्यास ले रहा हो, उसको सम्पत्ति से क्या काम? फिर भी नन्दिवर्धन ने आग्रहपूर्वक उनका भाग उन्हें दे ही दिया और उसको वितरण करते देखकर उन्हें हर्ष एवं सन्तोष ही हुआ।
दो वर्ष बीते और वर्धमान ने ‘महावीर’ होकर अपना रास्ता लिया। उन्होंने अपने केश तथा श्मश्रु अपने हाथ से उखाड़ फेंके। एक कोपीन के अतिरिक्त सारे वस्त्र त्याग दिये। कुछ समय इधर-उधर घूमने के बाद वर्धमान ने निश्चय किया कि अब वे किसी उपयुक्त एकाँत स्थान पर ठहर कर समाधि का अभ्यास करेंगे, मौन धारण करेंगे और भिक्षा का अन्न हाथ पर ही रखकर खायेंगे! निदान वे इसी उद्देश्य से आस्थिक नामक ग्राम में पहुँचे। किन्तु वहाँ पहुँच कर उन्होंने देखा कि वहाँ जनता अन्ध-विश्वासों में फँसी हुई भूतों-प्रेतों और देव-दानवों में बहुत विश्वास करती है और धूर्त लोग इस आधार पर उसे मूर्ख बनाकर खूब ठगते हैं।
आस्थिक की जनता की दुर्दशा और धूर्तों की दुरभिसन्धियों को देखकर उनकी आत्मा तड़प उठी। वे समाधि लगाना और मौन धारण करना तो भूल गये और जनता का अन्ध-विश्वास दूर करने लगे तथा धूर्तों से उसकी रक्षा करनी प्रारम्भ कर दी! इस काम के लिये वे वहाँ पर चार माह तक ठहरे और तब ही वहाँ से चले, जब जनता के अन्ध-विश्वासों का मूलोच्छेदन कर दिया।
आस्थिक से चलकर महावीर मौराक पहुँचे तो उन्हें पता चला कि वहाँ की जनता बुरी तरह से अनाचार के कुचक्र में फँसी हुई है। महावीर का समाधि-साधना का कार्यक्रम पुनः रुक गया। तन्त्र-मन्त्र का पाखण्ड दूर करने के लिये उनको वहाँ भी चार माह तक रुकना पड़ा।
अनन्तर वे स्वेताम्बी और सुरभि पुर होते हुए नालन्दा पहुँचे, जहाँ उनका परिचय मोखिल पुत्र गोसाल से हुआ! गोसाल उस समय के बहुत बड़े विद्वान एवं धर्म प्रवर्तकों में से था, किन्तु वर्धमान की त्याग, तपस्या और मानव-कल्याण की भावना से वह इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें अपना गुरु मान लिया!
महावीर का यह प्रभाव न उनकी किसी बड़ी तपस्या का था और न विद्या-विभूति का, अपितु उनका यह प्रभाव उनकी उस उज्ज्वल आत्मा का था, जो हर समय विश्व-कल्याण की कामना से विह्वल रहती थी। मनुष्य कोई साधना न करे, किसी तप में अपने को न जलाये, तब भी एक अकेली परिव्याप्त विश्व भावना से उसकी वाणी तथा व्यक्तित्व में इतना तेज आ जाता है कि संपर्क में आया हुआ कोई भी बड़े से बड़ा व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता!
अपने संन्यस्त जीवन में बारह वर्ष तक देश-देश घूमते और कष्ट सहते-सहते वे पूर्ण परमहंस पदवी के योगी हो गये।
वे नंगे घूमते, बच्चे उन पर इटें मारते, लोग ताली बजाते और पागल-पागल कहते हुए शोर मचाते, किन्तु वीतराग वर्धमान मौन, मानस में डुबकी लगाये, न सुनने के समान सहते और सत्य की खोज में लगे रहते।
अब उन्होंने पानी, साधारण शाक-भाजी तक का त्याग कर दिया था। यदि कभी पानी पीते भी थे तो गर्म पानी का ही प्रयोग किया करते थे। उन्होंने शरीर की सारी वासनाएं मिटा डालने के लिए सुख की नींद सोना, जाड़ा, गर्मी और बरसात से बचना छोड़ दिया। वे जाड़ों में खुले मैदानों और गर्मियों में लुहारों आदि की दुकानों पर पड़े रहते थे। बारह वर्ष तक निद्रा का त्याग करके वे पूर्ण जिन हो गये और संसार के सारे दुख-सुखों से परे हो गये।
शरीर साधना में सिद्ध होकर महावीर राजगिरि, मुँगेर, बसाढ़, बनारस, अयोध्या आदि प्रदेशों का भ्रमण करते हुए राढ़ पहुँचे, जहाँ उन्हें सबसे अधिक कष्ट उठाने पड़े।
इस प्रकार अपनी अद्भुत एवं असहनीय तपस्या में बारह साल तपने के बाद उन्हें वैशाख सुदी दशमी को ऋजु बालिका नदी के तट पर जंमिया नामक ग्राम में ‘केवल दर्शन’ अर्थात् बोध प्राप्त हुआ।
प्रकाश पाते ही उन्होंने सुख के साथ मार्ग की खोज कर ली और तब उन्होंने अपने मौन व्रत को उपदेशों के रूप में तोड़ दिया। उन्होंने सैकड़ों शास्त्रार्थों तथा असंख्यों सभाओं द्वारा पाखण्डियों तथा वंचकों को परास्त कर जनता को धार्मिक अत्याचारों से मुक्त कराया लाखों शिष्य एवं प्रचारक बनाये। उनके शिष्यों में केवल जनसाधारण ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े राजा-राजकुमार तथा राजकुमारियाँ भी थीं। ज्ञान तथा सत्य-पथ की प्यासी जनता की भीड़ की भीड़ उनके पास जाने, उपदेश सुनने तथा दीक्षा ग्रहण करने लगी, जिससे सम्पूर्ण देश में उनका यश फैल गया।
अंग, काशी, श्रावस्ती तथा राजगृह आदि में राजाओं तथा राजवंशियों को दीक्षा देते और उपदेश करते हुए अपनी जन्म-भूमि ‘वैशाली’ में गये, जहाँ पर उन्होंने अपनी पत्नी, पुत्री तथा दामाद ‘जामालि’ को भी धर्म दीक्षा दी। इस प्रकार जब वे देश का धार्मिक कायाकल्प करके पावापुरी आये, तब कठोर तपस्या तथा व्यस्त कार्यक्रमों में उनका स्वास्थ्य समाप्त हो चुका था। वहाँ उन्होंने निरन्तर उपदेश देते और उपवास करते हुए दीपावली की रात को निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान महावीर ने सुख के जिस सत्य मार्ग का उपदेश दिया था, उसमें अहिंसा, सत्य, आस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य का विशेष स्थान था।
कहना न होगा कि यह भारत के वैदिक धर्म का ही सार था, किन्तु चूँकि महावीर ने इसे एक विशेष रूप में जैन-धर्म के अंतर्गत प्रतिपादित किया, इसलिये यह एक भिन्न धर्म जैसा माना जाने लगा। अन्यथा भारत के सारे बौद्ध, जैन तथा सनातन आदि सारे धर्म वैदिक धर्म की शाखायें ही हैं।