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Magazine - Year 1966 - Version 2

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श्रद्धा से बुद्धि का नियमन कीजिए।

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मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि नामक एक अतुलनीय शक्ति प्रदान की है। इसी शक्ति के आधार पर मनुष्य लाखों-करोड़ों अन्य प्राणियों के बीच सृष्टि का अप्रतिम स्वामी बना है। इतना ही नहीं, मनुष्य ने बुद्धि बल पर संसार को सुन्दर से सुन्दरतर बनाया है। बिना किसी के बतलाये उसने सृष्टि के गोपनीय रहस्यों को बुद्धि के बल पर खोज निकाला है। जीवन में न जाने कितनी सुख-सुविधाओं का समावेश किया है।

मनुष्य ने अतीत का अध्ययन कर उसके व्यवहारों, मान्यताओं एवं धारणाओं के हानि-लाभ को समझ कर नित्य नये भविष्य के लिये पथ-प्रशस्त करते हुए महान से महान तर सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का सृजन किया है। संसार में प्रत्यक्ष सुन्दर कला-कृतियाँ, ऊँचे-ऊँचे महल, दुर्ग, प्रासाद तथा अट्टालिकायें, यान, जलयान, वायुयान जो कुछ भी विस्मयकारक तथा लाभ कारक दिखाई दे रहा है, वह सब मनुष्य की बुद्धि-शक्ति का ही चमत्कार है।

बुद्धि ने मानव को केवल भौतिक विभूतियों तक ही ले जाकर नहीं छोड़ दिया, बल्कि उसने उसे आत्मा-परमात्मा, पुरुष और प्रकृति के रहस्यों तक भी पहुँचा दिया है। सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय चेतनाएं, पारस्परिक व्यवहार, कर्तव्य एवं अधिकारों का ज्ञान बुद्धि ने ही कराया है।

बुद्धि की शक्ति का एक उज्ज्वल पक्ष तो यह रहा। इस शक्ति का एक अन्धेरा पक्ष भी है। आक्रमण, अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, लाभ-लोभ, छल-कपट, वंचना-प्रताड़ना, विजय, आतंक, अभियान, नोंच-खसोट, लूटमार, छीना-झपटी, चोरी-मक्कारी, ध्वंस अथवा विनाश की आसुरी वृत्तियाँ भी मनुष्य—बुद्धि बल पर ही सफल करता है।

मनुष्य शारीरिक बल से नहीं, बुद्धि-बल से ही अभियानों का संचालन और सेनाओं का नियन्त्रण करता है। बड़ी-बड़ी लड़ाइयों की हार-जीत—बुद्धि-बल पर ही निर्भर करती है। राष्ट्रों के नेतृत्व और राज्यों की शासन व्यवस्था के काम भी बुद्धि-शक्ति से ही चलते हैं। व्यापार, व्यवसाय, उद्योग, योजनाएं एवं उपाय सब बुद्धि के अधीन रहते हैं। तात्पर्य यह कि संसार में जो कुछ सृजनात्मक अथवा ध्वंसात्मक क्रिया-कलाप होता दिखाई देता है, वह सब बुद्धि-बल से ही संचालित एवं नियन्त्रित होता है। बुद्धि एक अनुपम एवं अतुलनीय सर्व-समर्थ शक्ति है।

आज के वैज्ञानिक युग में तो मानव बुद्धि चमत्कारिक क्षमता से सम्पन्न हो गई है। असम्भव जैसे कार्य आज सम्भव होते दिखाई दे रहे हैं। मनुष्य की बुद्धि आज जीवन-मृत्यु के रहस्यों को खोज निकालने पर तुली हुई है। संसार के कारणभूत पंच-तत्वों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपना आज्ञाकारी बना रही है। प्रकृति की पराधीनता से मुक्त होकर मानव आज बुद्धि बल पर स्व-निर्भर होने का प्रयत्न कर रहा है। प्रगति देखते हुए यह बात असम्भव नहीं दिखाई देती कि वह जब जिस ऋतु को चाहे उत्पन्न कर ले और जब जिस वातावरण का चाहे निर्माण कर ले। आज का युग मानवीय बुद्धि-शक्ति का प्रमाण सूचक साक्षी बना हुआ है।

ऐसी अमोघ है—मानव-बुद्धि की शक्ति! यदि यह चाहे तो संसार को दो दिन में ही नष्ट कर दे और चाहे तो इसे स्वर्ग बना दे! किन्तु आज की परिस्थितियाँ देखते हुए ऐसा नहीं लग रहा है कि मनुष्य की बुद्धि-शक्ति संसार को स्वर्ग रूप में परिणित करेगी। इसके अधिकाधिक नरक बनने की संभावनाएं अवश्य दृष्टिगोचर होने लगी हैं। आगे की बात तो छोड़ दीजिये, आज के दिन भी संसार एक नरक से क्या कम बन गया है? जिधर देखो, दुःख-पीड़ा, शोक-सन्ताप, आवश्यकता एवं अभाव का ही ताण्डव होता दृष्टिगोचर हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य के लिये भूत-प्रेतों की तरह शंका का स्वरूप बना हुआ है! सुख-सुविधा के अगणित साधन संचय हो जाने पर मनुष्य को उनका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। जिस एक आश्वस्तता एक निश्चिन्तता प्राप्त करने के लिए मनुष्य की बुद्धि तन-मन से लगी हुई है, उसके दर्शन भी संभव नहीं हो रहे हैं। निःसंदेह आज के युग के बुद्धि बलिष्ठ मनुष्य की यह दुर्दशा तरस का ही विषय है।

अब एक प्रश्न मन में उठे बिना नहीं रहता। क्या कारण है कि जो सर्व समर्थ बुद्धि आकाश-पाताल को मिला देने की क्षमता रखती है, उस बुद्धि का मानव-मस्तिष्क में आज चरम-विकास हो रहा है, किन्तु वह वंचित उन सुखों से भी होता जा रहा है, जो उसने कम बुद्धि के युग में उपयोग किये हैं। यह उल्टा परिणाम कुछ कम विस्मयकारक नहीं है। इस पर शान्त मस्तिष्क से विचार करने की नितान्त आवश्यकता है।

बात वास्तव में यह है कि मनुष्य ने आज बुद्धि को तो विकट रूप से बढ़ा लिया है, किन्तु उस पर नियन्त्रण करना नहीं सीखा है, उचित नियन्त्रण के अभाव में यह निरंकुश मातंगिनी अथवा अतट-तटिनी की भाँति चारों ओर ध्वंस के दृश्य उपस्थित करती दृष्टिगोचर हो रही है। बुद्धि-शक्ति में कोई अपना मर्यादा तो होती नहीं। स्वयं मनुष्य को ही अपनी इस शक्ति को नियंत्रित करना होता है।

बुद्धि का अनियन्त्रित विकास केवल दूसरों के लिये ही दुःखदायी नहीं होता, स्वयं अपने लिये भी हानिकारक होता है। अति बुद्धि मानव को अन्ततः असन्तोष की ज्वाला में ही जलना होता है। वह बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाता। एक बुद्धिवादी कितना ही शास्त्रज्ञ, विशेषज्ञ, दार्शनिक, वैज्ञानिक, तत्व-वेत्ता आदि क्यों न हो, बुद्धि का अहंकार उसके हृदय में शाँति को न ठहरने देगा। वह दूसरों को ज्ञान देता हुआ भी आत्मिक शाँति के लिये तड़पता ही रहेगा। बुद्धि की तीव्रता पैनी छुरी की तरह किसी दूसरे अथवा स्वयं उसको दिन-रात काटती ही रहती है। मानव की अनियन्त्रित बुद्धि-शक्ति मनुष्य जाति की बहुत बड़ी शत्रु है। अतएव बुद्धि के विकास के साथ-साथ उसका नियन्त्रण भी आवश्यक है।

किसी शक्तिशाली का नियन्त्रण तो उससे अधिक शक्ति से ही हो सकता है। तब भला समग्र सृष्टि को अपनी मुट्ठी में कर लेने वाली शक्ति बुद्धि का नियन्त्रण करने के लिये कौन सी दूसरी शक्ति मनुष्य के पास हो सकती है? मनुष्य की वह दूसरी शक्ति है—श्रद्धा! जिससे बुद्धि जैसी उच्छृंखल शक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, उसका नियन्त्रण किया जा सकता है। ध्वंस की ओर जाने से रोक कर सृजन के मार्ग पर अग्रसर किया जा सकता है। श्रद्धा के आधार के बिना बुद्धि एक बावले बवण्डर से अधिक कुछ भी नहीं है। श्रद्धा रहित बुद्धि जिधर भी चलेगी उधर दुःखद परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करेगी।

विशुद्ध बुद्धिवादी के पास स्नेह, सौजन्य, सौहार्द्र, सहानुभूति, भ्रातृत्व-भाव जैसी कोमलताऐं नहीं होतीं। इन मानवीय गुणों की जननी श्रद्धा ही है। श्रद्धालु अन्तःकरण वाला मनुष्य सेवा-सहयोग, क्षमा-दया, परोपकार तथा परमार्थ में विश्वास करता है, न्याय और नियम उसकी विशेषताएं हुआ करती हैं।

मानवता के इतिहास में दो परस्पर विरोधी ख्याति के व्यक्तियों के नाम पाये जाते हैं। एक वर्ग तो वह है, जिसने संसार को नष्ट कर डालने, जातियों को मिटा डालने तथा मानवता को जला डालने का प्रयत्न किया है। दूसरा वर्ग वह है, जिसने मानवता का कष्ट दूर करने, संसार की रक्षा करने, देश और जातियों को बचाने के लिये तप किया है, संघर्ष किया है और प्राण दिया है। इतिहास के पन्नों पर जाने वाले यह दोनों वर्ग निश्चित रूप से बुद्धि-बल वाले रहे हैं। अन्तर केवल यह रहा है कि श्रद्धा के अभाव में एक की बुद्धि शक्ति अनियन्त्रित होकर बर्बरता का सम्पादन कर सकी है और दूसरे का बुद्धि-बल श्रद्धा से नियन्त्रित होने से सज्जनता का प्रतिपादन करता रहा है।

यदि आज की चमत्कारी बुद्धि का ठीक दिशा में उपयोग करना है, संसार से दुःख दर्दों को मार भगाना है, अपनी धरती माता को स्वर्ग बनाना है, मानव सभ्यता की रक्षा के साथ-साथ उसका विकास करना है तो अन्तःकरण में श्रद्धा की प्रतिस्थापना करनी होगी। बिना श्रद्धा के मनुष्य की बुद्धि-शक्ति उसकी शत्रु बनकर मानवता का विनाश किये बिना नहीं मानेगी। आज अवसर हैं, साधन हैं, मनुष्य चाहे तो सृजन का देवदूत बन सकता है और चाहे तो शैतान का अनुचर!

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