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Magazine - Year 1966 - Version 2

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विचार ही नहीं कार्य भी कीजिए?

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हर व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र में एक ऊँचा विचारक है। वह चाहे विद्यार्थी हो, अध्यापक हो, लेखक हो, कलाकार, मजदूर, व्यवसाय, उद्योगपति अथवा राजनेता कोई क्यों न हो, अपनी एक विचारधारा रखता है। अधिकतर यह विचारधारा तरक्की करने और जीवन में एक अच्छी सफलता प्राप्त करने से ही सम्बन्धित होती है।

मजदूर एक कुशल मजदूर बनकर मेटगीरी चाहता है, विद्यार्थी ऊँची से ऊँची कक्षा अच्छी से अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण करने का विचार रखता है, अध्यापक-प्राध्यापक और प्राध्यापक-प्रिंसिपल होने के लिये उत्सुक रहता है। कलाकार ख्याति, व्यवसायी उद्योगपति और उद्योगपति की इच्छा रहती है कि वह संसार का सबसे बड़ा धनवान बन जाये। सारे संसार में उसके कारखानों की बनी चीजों के खपत हो। और राजनेता सारी सत्ता अपने हाथ में लाने की कामना करता है। इस प्रकार संसार का प्रत्येक मनुष्य अपनी वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ना चाहता है।

आदि काल से आज तक संसार की जो कुछ भी उन्नति हुई है वह सब मनुष्य के विचारों का ही फल है। जो भी अद्भुत और आश्चर्य में डालने वाले आविष्कार हुए हैं और हो रहे हैं वह सब मनुष्य की विचार शक्ति का ही चमत्कार है। जितनी प्रकार की कलाओं, कौशलों और दक्षताओं के दर्शन आज संसार में हो रहे हैं वह और कुछ नहीं मनुष्य की विचार शक्ति के ही मूर्तरूप हैं। संसार में विभिन्न सभ्यताएं, संस्कृतियाँ, ज्ञान, विज्ञान आदि जो भी विशेषतायें एवं सुंदरताएं दिखाई देती हैं, वह सब मनुष्य की विचारशीलता का ही परिणाम है।

यह अद्भुत विचार शक्ति संसार में सब मनुष्यों को मिली है और वह अपने अनुरूप दिशाओं एवं क्षेत्रों में गति मती भी होती है तथापि सभी मनुष्य समान रूप से कुछ श्रेयस्कर फल सामने नहीं ला पाते! इसका कारण विचारों की स्पष्टता, परिपुष्टता अथवा तीव्रता को भी माना जा सकता है। किन्तु मनुष्य की इस स्थिति भिन्नता का प्रमुख कारण विचारों की विशेषता नहीं है। क्योंकि आये दिन ऐसे हजारों उदाहरण पाये जाते हैं कि बड़े-बड़े तीव्र एवं प्रमाणित विचारधारा रखने वाले यथा स्थान पड़े दीखते हैं और सामान्य एवं सौम्य विचार वाले लोग उन्नति कर जाते हैं। वास्तव में इसका मुख्य कारण है मनुष्य के अकर्मक एवं सकर्मक विचार!

किसी भी दार्शनिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, शिल्पी कारीगर, कलाकार आदि को क्यों न ले लिया जाये तब तक वह अपने विचारों को कार्य रूप में नहीं बदलता तब तक उनकी उपयोगी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती! केवल मन ही मन सोचने, योजनायें रचने और नक्शे बनाने मात्र से कोई काम नहीं चलता। मस्तिष्क का काम है रूप-रेखा बनाना और शरीर का काम है, उसे मूर्त रूप देना! जब तक मनुष्य का मस्तिष्क तथा उसका शरीर एक मत होकर किसी योजना को क्रियान्वित नहीं करते तब तक उच्च से उच्च विचार दिवास्वप्न की भाँति बनते-बिगड़ते रहते हैं। न तो कोई देख सुन पाता है और न वे किसी के काम आते हैं। इस प्रकार के निष्क्रम एवं अकर्मक विचार किसी दूसरे के काम आना तो दूर स्वयं अपने भी किसी काम नहीं आते! विचारों की शक्ति का उपयोग करने के लिए क्रिया का समन्वय बहुत आवश्यक है।

निरर्थक एवं निष्क्रिय विचार वास्तव में मस्तिष्क के विकार मात्र ही कहे जाने चाहियें। उनसे कोई लाभ होने के स्थान पर हानि ही हुआ करती है। निरर्थक विचारों से होने वाली हानि को देखते हुए तो कहना पड़ेगा कि ऐसी विचारशीलता की अपेक्षा तो विचार शून्यता ही अच्छी है।

मानिये एक व्यक्ति बहुत विचारशील है, वह मन ही मन अनेक योजनायें बनाया करता है, इरादों के घोड़े दौड़ाया करता है, किन्तु उनको सफल करने के लिए करता कुछ नहीं है, तो वह विचारक नहीं विचार-व्यसनी ही कहा जायेगा! निरर्थक विचार न केवल समय ही खराब करते हैं, अपितु मनुष्य की शक्ति का ह्रास किया करते हैं। विचार एक वेगवती नदी की तरह उमड़ा करते हैं, यदि उनको क्रिया रूप में मार्ग न दिया जाये तो वे मन और मस्तिष्क को मथते हुए उसे थका डालते हैं जिससे आलस्य प्रमाद विश्रान्ति शिथिलता आदि के विकार उत्पन्न हो जाते हैं जो किसी प्रकार भी मनुष्य को स्वस्थ नहीं रहने देते।

व्यर्थ विचारक एक स्थान पर बैठा-बैठा मानसिक महल बनाता और बिगाड़ता रहता है। अपनी कल्पना की दुनिया में वह इस सीमा तक रम जाता है कि उसे समय एवं सामान्यता का भी ध्यान नहीं रहता। कल्पना करने, विचारों के घोड़े दौड़ाने और मन के महल बनाने में कुछ प्रगति तो है नहीं, उन्हें किसी भी सीमा तक सुन्दर से सुन्दर बनाया जा सकता है। निरन्तर ऐसा करते रहने से एक दिन इस कल्पना और थोथे विचारों के साथ मनुष्य की भावुकता जुड़ जाती है; जिससे वह अपने मनोवाँछित काल्पनिक लोकों को पाने के लिये लालायित हो उठता है। किन्तु कल्पना लोक से उतर कर जब यथार्थ के कठोर एवं विषम धरातल पर चरण रखता है तो उसे एक गहरा धक्का लगता है और वह घबराकर फिर अपने काल्पनिक स्वर्ग में भाग जाता है। इस प्रकार की निरर्थक दौड़-धूप से उसकी न केवल शक्तियों का क्षय होता है, वरन् वह ऐसा भीरु और सुकुमार हो जाता है कि यथार्थ के धरातल पर पाँव रखते कंपा करता है। उसे अपने चारों ओर वास्तविकतायें कँटीली झाड़ियों की तरह तकलीफ देने लगती हैं। कल्पना की तरह स्निग्ध एवं निर्विरोधी परिस्थितियाँ वास्तविकता के विषम धरातल पर कहाँ? संसार की यथार्थता तो प्रतिरोधों और प्रति कलाओं से मिलकर बनी है।

विचारों और क्रियाओं का सन्तुलन जब बिगड़ जाता है तब मनुष्य का मानसिक सन्तुलन भी सुरक्षित नहीं रह पाता! इससे होता यह है कि जब वह भूमि पर अपनी वैचारिक परिस्थितियों को नहीं पाता सब उसका दोष समाज के मत्थे मढ़कर मन ही मन एक द्वेष उत्पन्न कर लेता है। किन्तु समाज का कोई दोष तो होता नहीं। अस्तु उसको खुलकर कुछ न कह पाने के कारण मन ही मन जलता-भुनता और कुढ़ता रहता है। इस प्रकार की कुण्ठापूर्ण जिन्दगी उसके लिए एक दुखंद समस्या बन जाती है। अपनी प्यारी कल्पनाओं को पा नहीं सकता यथार्थता से लड़ने की ताकत नहीं रहती और समाज का कुछ बिगाड़ नहीं पाता—ऐसी दशा में एक अभिशाप पूर्ण जीवन का बोझा ढोने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा ही नहीं रहता!

इसके विपरीत जिन बुद्धिमानों की विचारधारा संतुलित है, उसके साथ कर्म का समन्वय है, वे जीवन को सार्थक बनाकर सराहनीय श्रेय प्राप्त करते हैं। जीवन में कर्म को प्रधानता देने वाले व्यक्ति योजनायें कम बनाते हैं और काम अधिक किया करते हैं। इन्हें व्यर्थ-विचारधारा को विस्तृत करने को अवकाश ही नहीं होता। एक विचार के परिपुष्ट होते ही वे उसे एक लक्ष्य की तरह स्थापित करके क्रियाशील हो उठते हैं, और जब तक उसकी प्राप्ति नहीं कर लेते किसी दूसरे विचार को स्थान नहीं देते। इस बीच उनका मस्तिष्क उपस्थित विचार लक्ष्य को प्राप्त करने में कर्मों का साथ दिया करते हैं। कर्मण्यता प्रिय व्यक्ति के चरण सदैव ही यथार्थ की कर्म भूमि पर चलते हैं, कल्पना के आकाश लोक में नहीं!

एक ही विचार-लक्ष्य पर अपनी सारी शक्तियों को केन्द्रित कर देने से कोई कारण नहीं कि उसकी उपलब्धि न हो सके। जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का सबसे सही और सरल उपाय यही है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क को नियन्त्रित रक्खे कि वह एक विचार के मूर्तता पा लेने के बाद ही किसी दूसरे विचार को जन्म दे। विचारों को क्रम-क्रम से बढ़ाते और उनको क्रिया में उतारते चलने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफलता प्राप्त कर पाता है। अन्यथा अनुपयुक्त एवं अयुक्त विचारों की भीड़ में पूर्ण रूप से खोकर कोई श्रेयस्कर लक्ष्य तो दूर मनुष्य स्वयं अपने को ही नहीं पा पाता।

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