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Magazine - Year 1966 - Version 2

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किशोरों के निर्माण में सावधानी बरती जाय।

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आज की तरुण पीढ़ी अपराध एवं अनुशासन-हीनता की ओर वेग से बढ़ती जा रही है। यह दुष्प्रवृत्ति न केवल वर्तमान के लिये ही भयप्रद है बल्कि भविष्य के लिये भी भयानक है। जो आज बिगड़ गया है वह कल आने वाले के लिये बुराई का उदाहरण बन जायेगा। वर्तमान को देख कर आने वाला भविष्य भी अनुकरण करता हुआ वैसा बन जायेगा। इस प्रकार समाज में बुरी प्रवृत्तियों की एक परम्परा लग जायेगी। इस प्रकार बढ़ती हुई अपराध, अनुशासनहीनता, अशिष्टता एवं अश्लीलता की दूषित प्रवृत्तियाँ ठीक नहीं। इन्हें रोकने का यथासम्भव प्रयत्न किया ही जाना चाहिए।

हर नागरिक किसी न किसी की सन्तान हुआ करता है। यदि अभिभावक प्रारम्भ से ही अपने बच्चों में शुभ-संस्कारों के बीज बो दें तो आगे चल कर वे अच्छे नागरिक ही बनें! अच्छे नागरिक अपने बच्चों को अच्छा बनायेंगे ही। इस प्रकार एक-दो पीढ़ी बाद समाज से बुरी प्रवृत्तियों का उन्मूलन हो जायेगा। इस दिशा में अभिभावक अपना कर्तव्य समझें और उसे पूरा करने का भरसक प्रयत्न करें। किशोर की बुद्धि परिपक्व नहीं होती। इसलिये वह अपना भला बुरा स्वयं ठीक से नहीं समझ पाता! इस समय किशोर को यदि पूरी तरह उसी पर छोड़ दिया जाता है तो उसके बहक कर विपथ गामी हो जाने का ही डर रहता है। और फिर आज तो चारों ओर का वातावरण विपथ गमन को ही प्रोत्साहित करने वाला हो गया है! इस अवस्था में एक बार बहक जाने पर किशोर अपने स्वास्थ्य एवं चरित्र को चौपट किये बिना नहीं मानेगा! वह कुछ ही दिनों में दुर्गुणों एवं दोषों का भंडार बन कर अपना होनहार जीवन अभिशाप बना लेगा और आगे चल कर अपने पाप से समाज में विकृतियों की वृद्धि करेगा! उसका आचरण तथा व्यवहार परिवार और समाज दोनों के लिये ही अहितकर बन जायेगा।

ऐसी स्थिति होने पर भी किशोरों को उनकी अपनी जिम्मेदारी पर पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता। अभिभावकों को उनके, परिवार के, समाज के तथा राष्ट्र के हित में उन पर नजर रखनी होगी। उनके निर्माण में हाथ देना ही होगा! ऐसा करने में उनका मार्ग डाँट-डपट अथवा मारपीट का न होकर प्रेम, परामर्श तथा व्यवहार-संस्कार का हो सकता है।

अभिभावकों को चाहिये कि वे किशोरावस्था प्रारम्भ होने से पूर्व ही अपने बच्चों पर शुभ-संस्कार डालने प्रारम्भ कर दें, जिससे कि निरंकुशता प्रिय किशोरावस्था में उन्हें अभिभावकों का परामर्श एवं व्यवहार अस्वाभाविक न अनुभव हो। बाल्यकाल से बने हुये मार्ग पर वे बिना किसी द्वन्द्व के आसानी से चलते चले जायेंगे। बाल्यकाल से ही उनके मन बुद्धि को जो दिशा दे दी जायेगी किशोरावस्था में भी उनकी गति उसी दिशा में बनी रहेगी। मनुष्य के मन और बुद्धि गहराई से पाये हुये मार्ग से सामान्यतया विचलित नहीं हो पाते। इसलिये बालकों पर उच्च संस्कारों का सृजन बाल्यकाल से करना अभिभावकों के लिये सरल भी होगा और उपयुक्त भी।

किशोरों में शुभ संस्कार सृजन के लिये घर का वातावरण अनुकूल होना बहुत आवश्यक है। उपयुक्त वातावरण के अभाव में उपदेश, शिक्षा तथा परामर्श का कोई भी वाँछित प्रभाव उन पर नहीं पड़ेगा। वाणी की अपेक्षा वातावरण का प्रभाव मनुष्य के मन मस्तिष्क पर अधिक गहराई से पड़ता है! उपयुक्त वातावरण के बीच शुभाचार विचार की शिक्षा किशोरों के मानसों में द्विगुण रूप से फलवती होती है। घर का वातावरण उत्तम होने से किशोर का मन-मस्तिष्क तथा शारीरिक स्वास्थ्य भी उत्तम होगा। उसका चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न रहेगा ऐसी दशा में साधारण भोजन भी पौष्टिक पदार्थों की तरह ही गुणकारी होगा। शरीर में शुद्ध रक्त का निर्माण होगा जिससे बल वीर्य की वृद्धि के फलस्वरूप उसकी स्मृति बलवती होकर शीघ्र ही शुभ संस्कारों को ग्रहण कर स्वभाव में परिवर्तित कर देगी।

जिन घरों में दिन रात हाय-हाय और किच-किच बनी रहती है उन घरों के बच्चे बहुत कम स्वस्थ, सुशील तथा सभ्य बन पाते हैं। कितना ही बचाव क्यों न किया जाय वे वातावरण के अशुभ संस्कार ग्रहण किये बिना न मानेंगे। लड़ाई, झगड़े, द्वेष डाह के अनुपयुक्त वातावरण में बालक, स्वस्थ, सुन्दर,सुशील एवं दीर्घजीवी न बन सकेंगे जबकि उन्हें वास्तव में बनना ऐसा ही चाहिये। उनके अंगों का विकास रुक जायेगा। प्रसन्नता के अभाव में उनकी पाचन क्रिया बिगड़ जायेगी। पुष्टि कारक धातुओं का निर्माण रुक जायेगा। उनकी कार्यक्षमता का ह्रास होगा। वृत्तियाँ कठोर एवं कर्कश हो जायेंगी, जिससे कि वे दया, उदारता, सहानुभूति, सहायता सहयोग तथा संवेदना के मानवीय गुणों से वंचित रहकर अनुपयुक्त नागरिक ही बनेंगे। बच्चों के निर्माण में घर के वातावरण का बहुत महत्व है। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों के हित में घर का वातावरण हर मूल्य एवं प्रयत्न से उपयुक्त बनाए रक्खें।

किशोरों के निर्माण में शिक्षा दीक्षा का अपरिहार्य महत्व है! सभ्य और सुशील होने पर भी बालक मृगछौने जैसे भोले होने पर भी अबोध पशु ही रह जायेंगे। अशिक्षित विनम्र भी पूरी तरह सभ्य नहीं कहा जा सकता! शिक्षा सभ्यता तथा नागरिकता की आधारशिला है। इसलिए बच्चों का पढ़ाया जाना भी बहुत आवश्यक है। विद्याध्ययन के विषय में किशोरावस्था में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इस अवस्था में यदि उन्हें विद्या के प्रति उदासीनता से पारित कर शिक्षा की ओर विशेष तौर पर उन्मुख कर दिया जाता है तो वे स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद भी अध्ययनशील बने रहते हैं। बाल्यकाल से लेकर किशोरावस्था ही शिक्षा के संस्कार डालने के लिये सबसे उपयुक्त आयु है। इस समय बालकों की बुद्धि बड़ी ही कोमल तथा ग्रहणशील होती है। इस समय के थोड़े से ही अभ्यास से वे बहुत कुछ ग्रहण कर लेते हैं। आगे चल कर उनकी बुद्धि विकसित होने के साथ-साथ प्रौढ़ भी हो जाती है जिससे जल्दी पाठ ग्रहण नहीं कर पाती! सयाने हो जाने पर उन्हें पढ़ने में कुछ शर्म भी आती है और उन का उद्दण्ड मन पढ़ने में लगता भी नहीं! इसलिये बाल्यकाल से लेकर किशोरावस्था तक बच्चों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।

प्रचुर सम्पत्ति का स्वामी होने पर भी शिक्षा शून्य मनुष्य समाज में अधिक आदर नहीं पाता, उसका क्षेत्र अपने जैसे अशिक्षित व्यक्तियों तक ही सीमित हो जाता है। वह समाज के बुद्धिमानी लोगों के बीच घुल-मिल नहीं सकता। उसका परिचय संसार की गतिविधियों से नहीं हो पाता। वह अपने व्यापार व्यवसाय तक ही कूपमंडूक बना रहता है। कूप मंडूकता से स्वार्थ एवं संकीर्णता का प्रादुर्भाव होता है। तब ऐसी दशा में किसी से अच्छे नागरिक बनने की आशा करना उचित नहीं कहा जा सकता। अशिक्षित धनवान अपने धन का उचित उपयोग नहीं कर पाता। या तो वह बहुधा कृपण हो जाता है अथवा अपव्ययी। यह दोनों अवस्थायें किसी अच्छे नागरिक के उपयुक्त नहीं कही जा सकतीं! अच्छा नागरिक बनकर अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को ठीक से समझने तथा उपयोग करने के लिये शिक्षा की बहुत बड़ी आवश्यकता है। किसी भी अभिभावक को अपने बालकों को अशिक्षित नहीं रखना चाहिये। उन्हें हर अवस्था हर दशा तथा हर परिस्थिति में शिक्षा दिलानी ही चाहिए।

धार्मिक शिक्षा के अंतर्गत बालकों को शिष्टता, उदारता, श्रमशीलता, सदयता, स्वच्छता आदि के नियमों का अभ्यास करा देना तथा सत्य, शिष्ट, विनय, मधुर एवं प्रसन्न व्यवहार का अभ्यस्त बना देना ही आवश्यक होगा! प्रातः जागरण, भ्रमण, व्यायाम, शुद्ध सात्विक भोजन, स्नान, संयम, निवास, वास तथा वसनों की सादगी स्वच्छता तथा मनोयोग से अध्ययन की प्रवृत्ति पैदा कर देना बच्चों को धार्मिक शिक्षा दिया जाना है। प्रवृत्ति से प्रेम और ईश्वर पर आस्था उनके लिये ब्रह्मविद्या की तरह ही लाभकारी होगा। माता पिता भाई बहनों, गुरुजनों, साथियों संपर्कों तथा अन्य सर्व साधारण से उन्हें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये इसका ज्ञान करा देने का अर्थ होगा कि आपने उन्हें मानो योग साधना की शिक्षा दे दी।

किशोरों के लिये घर का वातावरण, शिक्षा तथा धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करने वाले अभिभावक अवश्य ही समाज को सभ्य एवं सुशील नागरिक प्रदान करके श्रेष्ठ सौभाग्य के भागी बनेंगे।

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