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Magazine - Year 1966 - Version 2

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परमात्मा का दर्शन कैसे मिले?

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सृष्टि के कार्य इतने व्यवस्थित तथा नियमित ढंग से चल रहे हैं कि कोई भी विचारवान व्यक्ति यह मानने के लिये कभी तैयार न होगा कि यह सारे कार्य परमाणुओं के आकस्मिक संयोग के ही फल हैं। अपितु यह मानने के लिये विवश होना पड़ता है कि इस सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने वाली कोई चेतन-सत्ता अवश्य विद्यमान है। यह भी कि उसने संसार को एक निश्चित उद्देश्य रखकर बनाया है और प्रत्येक जीवधारी को उसकी पूर्ति के लिए किसी न किसी प्रकार सहायक नियुक्त किया है। हम यह भली-भाँति देखते हैं कि यहाँ जो भी विधान चल रहे हैं वे सब ऐसे हैं, जिन तक मानवीय बुद्धि का पहुँच पाना सहज बात नहीं है तो भी उसमें एक प्रकार का सामंजस्य जरूर है। ठीक गणित के सिद्धान्त की तरह। अंकों के गुणा-भाग जिस प्रकार से नियमित और व्यवस्थित उत्तर देते हैं, ठीक ऐसी ही विश्वव्यापी प्रक्रिया चल रही है, जो निश्चित उत्तर देती है। इसलिए हम यह मानने के लिये कदापि तैयार नहीं कि विश्व केवल जड़ परमाणुओं का चमत्कार मात्र हैं। इस सुन्दर विधि-व्यवस्था का कोई नियामक होना ही चाहिए।

माना कि जड़ पदार्थों की भी एक अनोखी प्रक्रिया है, अर्थात् ग्रह-नक्षत्र जहाँ एक निश्चित पथ, निश्चित कक्षा में रहते हैं, वहाँ वे आपस में टकराते भी हैं, मनुष्य जो इतना बुद्धिमान, ज्ञानवान, क्षमतावान है, वह भी एक दिन नष्ट हो जाता है। शास्त्रों में तो बड़े-बड़े लोकों और लोकपालों के विनाश और लय की चर्चा की गई है, पर यह सब गणित के सिद्धान्त से विमुक्त नहीं है और इसी का नाम व्यवस्था है। जहाँ इस प्रकार का एक नियम बना हुआ है वहाँ नियामक होना भी आवश्यक है। सूर्य-चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र जब चाहें टकरा जाते। मनुष्य की आयु की एक निश्चित मर्यादा न होती। दिन 15 घण्टे और रात 9 घण्टे वर्षा के बाद गर्मी और गर्मी के बाद फिर गर्मी और इसके बाद फिर बरसात, तब जाड़ा—इस प्रकार की उल्टी-सीधी क्रियाएं हुई होतीं तो यह मानने में कदापि संकोच न होता कि इस संसार में कोई नियम नहीं है और न ही उस व्यवस्था को चलाने वाली कोई चेतन शक्ति है।

ईश्वर की मान्यता कोई निराधार कल्पना नहीं है। उस पर ऋषियों की गहन ज्ञानानु सन्धान की छाप लगी हुई है। मुनियों का विशद चिन्तन और उपनिषदों की साधना का निष्कर्ष मिला हुआ है।

इन शास्त्रों में ईश्वर को सत् अर्थात् सदैव, शाश्वत बताया गया है पर वहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि उसे स्थूल नेत्रों के द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवित तथा विकसित होने वाले पदार्थों का रूप देखने में नहीं आ सकता केवल पार्थिव संयोग से बने निर्जीव पदार्थ ही देखने को मिल सकते हैं, इसलिए परमात्मा का कोई ऐसा लक्षण नहीं मिल सकता, जिसे साकार करके मनुष्य को दिखाया जा सके। यदि वह इस प्रकार परिवर्तन में आ सकने वाली वस्तु होती तो फिर वह चेतन अथवा शाश्वत न रही होती।

इसलिए ईश्वर का साक्षात्कार किसी बाह्य प्रक्रिया से सम्भव नहीं। किन्तु परमात्मा का अन्य बोध-गम्य स्वरूप भी है। इसे बाह्य चर्म-चक्षुओं से भले ही न देखा जा सकता हो, पर आन्तरिक ज्ञान-चक्षुओं से आत्म-निग्रह, आत्म-शुद्धि तथा आत्म-ज्ञान के द्वारा उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त की जा सकती है।

प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक कान्ट ने इस तथ्य की पुष्टि में कहा है— ‘समस्त भौतिक अभिव्यक्ति, कार्य कारण और भावना से बँधी हुई है, हम उसी के अन्दर रहते, चलते, फिरते तथा उत्पन्न होते हैं। किन्तु उस परमात्मा को बुद्धि के द्वारा जान नहीं सकते। बुद्धि की विशालता की अपेक्षा परमात्मा अधिक व्यापक और गहरा है, हम केवल उसका अनुभव कर सकते हैं, देख नहीं सकते।”

महान दार्शनिक ‘हेगेल’ का भी इस सिद्धान्त की ओर झुकाव था, क्योंकि उसका यह विश्वास था कि ईश्वर केवल भावनाओं द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। उसने लिखा है—”ईश्वर का अस्तित्व धर्म का विषय है और उसे अनुभव किया जा सकता है। परमात्मा की व्यापकता और उसकी अभिव्यक्ति का अवगाहन हम उतना ही स्पष्ट कर सकते हैं, जितना हमारा अनुभव गहन और व्यापक होगा।” प्रो. नाइट का मत है- “ईश्वर की भावना हमारे हृदय में इस प्रकार घर कर गई है कि उसे अन्तःकरण से बाहर लाना कठिन जान पड़ता है।”

आन्तरिक ज्ञान के द्वारा ही हम परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, उसका साक्षात्कार कर सकते हैं अथवा यों कहना चाहिए कि हम ईश्वर बनकर ही ईश्वर के दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें भी आन्तरिक शक्तियों के विकास की ओर ही संकेत है। कल्पना और चिन्तन, विचार-भावना, स्वप्न आदि के माध्यम से तो उसकी एक झलक ही देख सकते हैं। विश्वास की पुष्टि के लिए यद्यपि यह बुद्धि तत्व भी आवश्यक है, तथापि उसके पूर्ण ज्ञान के लिए अपने अन्दर प्रविष्ट होना होगा, आत्मा की सूक्ष्म सत्ता में प्रवेश करना आवश्यक हो जाता है। वहाँ बुद्धि की पहुँच नहीं हो सकती। आत्मा का भेदन आत्मा ही करता है और आत्मा बनकर ही आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। इसी बात को ईश्वरीय ज्ञान के बारे में भी घटित किया जाता है। यह ऐसा ही है, जैसे कोई यह कहे कि एक बूँद समुद्र में मिलकर अपने आपको समुद्र अनुभव कर सकती है पर अपने बूँद रूप में समुद्र की गहराई का मापन नहीं कर सकती।

उपनिषदों में यह स्पष्ट किया गया है कि जब परिमित ज्ञान के द्वारा अपरिमित शक्ति का अनुमान न किया जा सका तो ऋषियों के पास एक ही उपाय शेष रहा। उन्होंने तर्क के आश्रय को तिलाँजलि देकर अभ्यांतरिक ज्ञान का द्वार खटखटाया और उसकी सहायता से सृष्टि के अन्दर ईश्वर की सत्ता को ढूँढ़ने में सफलता प्राप्त की। ईश्वर के अस्तित्व को जो नहीं मानते, उनमें यह बात भी होगी कि वे आन्तरिक ज्ञान की आवश्यकता को भी निर्मूल कह रहे होंगे, पर अब यह निर्विवाद सिद्ध हो चुका है और दर्शन ने भी इस सत्यता को सिर झुका लिया है कि ईश्वर की अनुभूति केवल आन्तरिक ज्ञान की सहायता से ही संभव है।

यह आन्तरिक ज्ञान सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं है। यह केवल पुरुषार्थियों को ही उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि जब तक दूषित वासनाएं और भौतिक विकार पूर्णतया शान्त नहीं हो जाते, आत्मानुभूति किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है और यह प्रक्रिया निःसन्देह भौतिक दृष्टि से काफी कठिन जान पड़ती है। पर यह सिद्धान्त अकाट्य, अपरिवर्तनीय है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आत्म-शोधन की आवश्यकता अनिवार्य है।

महापुरुष ईसामसीह की वाणी में— “वे पुरुष धन्य हैं, जिनके अन्तःकरण पवित्र हो गये हैं, क्योंकि शुद्ध आत्मा वाले व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं।”

सत्य का ज्ञान तर्क के द्वारा सिद्ध नहीं हो सकता। वह तो तभी प्राप्त हो सकता है, जब कि खोज करने वाला उसी सत्ता में घुल-मिलकर एक हो जाय, उसी के रंग में पूरी तरह रँग जाय। ईरान के प्रसिद्ध योगी—शम्शतब्रेज ने इस अवस्था का वर्णन इस सेर में बड़ी सुन्दरता के साथ किया है—

दुई रा चूँ बदर करदम यकी दीदम दु आलम रा।

यकी बीनम, यकी जूयम, यकी खानम, यकी दानम्॥

अर्थात्—जब तक मैं अपने-पराये के प्रपंच में पड़ा था, तब तक मुझे ईश्वरीय सत्ता का ज्ञान नहीं हुआ, पर जब से मैंने अपने अहंभाव को नष्ट कर दिया है, तब से वही परमात्मा ही दिखाई देता है, उसे ही ढूँढ़ता हूँ, उसे ही पढ़ता और उसे ही जानता हूँ।

आध्यात्मिक विकास का यही मार्ग है। मनुष्य उसे जानता नहीं, पर आन्तरिक ज्ञान के द्वारा उस परम पिता के साथ संपर्क स्थापित करता है। वह उसके स्वरूप को न समझते हुए भी उससे एकता स्थापित करता है तो उसको एक दिव्य अनुभूति मिलती है और वह भी ईश्वरीय गुणों को धारण कर अपना जीवन पूर्णतया प्रेममय और त्यागमय बना लेता है।

यह संसार एक निश्चित विधान के अनुसार चल रहा है। जिसने हमें पैदा किया, पालन-पोषण तथा जो हमारी रक्षा करता है, उसके प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। अरस्तू के शब्दों में— ‘जो परमात्मा जगत का चरम एवं चेतन कारण और सारे विश्व का विधाता है। जो सृष्टि का संचालक है, किन्तु स्वयं अचल है, जिसने सृष्टि को स्वरूप और सौंदर्य प्रदान किया है, पर स्वयं निराकार है, हम उस परम-पिता को प्रणाम करते हैं।”

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