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Magazine - Year 1966 - Version 2

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साक्षरता की दीप वाहिका— श्रीमती वेल्दी फिशर

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श्रीमती वेल्दी फिशर की आयु इस समय लगभग चौरासी वर्ष की है। यह एक अमेरिकन महिला हैं। इनका जन्म अमेरिका में न्यूयार्क राज्य के अंतर्गत रोम नामक कस्बे में सन् अठारह सौ अस्सी में हुआ।

इस आयु में भी वे आज कितना काम करती हैं, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक प्रहर रात रहे ही उनके कमरे में टाइप राइटर खटकने लगता है, और उसकी आवाज से जागकर जब इनके साथ के लोग जागते हैं तब तक वे बहुत-सा काम कर चुकी होती हैं।

श्रीमती फिशर का सारा दिन अपने काम को आगे बढ़ाने की योजना बनाने, आगन्तुक परिचितों, अपरिचितों से बातें करते हुये अपनी भविष्य की कार्य-पद्धति पर प्रकाश डालने और अपने चल रहे कार्यक्रम को दिखाने में ही बीतता है।

उनकी व्यस्तता देखकर अनेक बार उनके हितैषियों ने पूछा कि आप इस आयु में इतना अधिक परिश्रम करती हुई कभी क्लाँति अनुभव नहीं करतीं? उत्तर में उनका यह कथन निःसन्देह उनकी परिश्रमशीलता का रहस्य खोल देता है, मैं रात में बहुत अधिक थकी हुई सोने जाती हूँ, जिससे सघन निद्रा का सुख पाकर मैं प्रातःकाल नई आशा और नूतन विचार लेकर उठती हूँ। मेरे यही आशापूर्ण नित नूतन विचार ही मुझे दिन भर क्रियाशील बनाये रहते हैं। जिससे मैं न केवल अनवरत कार्य ही करती रहती हूँ, बल्कि काम करने में मुझे एक आनन्द की अनुभूति होती रहती है।

श्रीमती वेल्दी फिशर जिस काम को अपने हाथों में लिये हुये हैं वह जन-सेवा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। इस समय वे भारत में साक्षरता प्रसार का व्रत लिये हुये गाँव-गाँव घूम रही हैं। भारत के अशिक्षित समाज में शिक्षा का पुण्य प्रदीप जलाना उन्होंने अपना जीवन ध्येय बना लिया है। जिसको पूरा करने में वे दशाब्दियों से लगी हुई हैं। लखनऊ का “साक्षरता-निकेतन” उनकी इस परिश्रम पूर्ण लगन का एक जीता जागता साक्षी बना हुआ सैकड़ों हजारों निरक्षरों को अक्षर ज्ञान करा रहा है।

श्रीमती वेल्दी फिशर के पूर्व जीवन पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि उनका वर्तमान जीवन एक गहरा मोड़ लेकर आया है। अपने सुन्दर सुरीले कंठ की आकर्षक स्वर लहरी और संगीत के प्रति प्रेम ने उनमें एक कुशल आँपेरा-गायिका बनकर ख्याति प्राप्त करने की जिज्ञासा जगा दी थी। किन्तु उनकी इस जिज्ञासा को उनकी माँ की ओर से कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। उनकी माँ का कहना था कि यदि तुम ख्याति ही प्राप्त करना चाहती हो तो पढ़ लिखकर जन-सेवा का कोई ऐसा कार्य करो जिससे तुम्हारी ख्याति के साथ लोगों की आदर भावना भी जुड़ जाये। रंगमंच की कुशल गायिका होकर सम्भव है तुम्हें कुछ ख्याति मिल जाये किन्तु उस ख्याति के साथ लोगों की वे पवित्र भावनायें नहीं मिल सकेंगी जो एक जन-सेवक को मिला करती हैं।

माँ की प्रेरणा से वे कॉलेज गई जरूर लेकिन उनकी जिज्ञासा ने उनका मन पढ़ने-लिखने में लगने नहीं दिया और इक्कीस वर्ष की आयु में वे न्यूयार्क के रंगमंच पर आँपेरा-गायिका के रूप में उतर ही गई किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव कर लिया कि वास्तव में यह क्षेत्र उनके योग्य नहीं है। जिस आत्मिक शाँति की आशा से वे उस ओर गई वह एक मृगतृष्णा ही सिद्ध हुई।

रंगमंच के कृत्रिम जीवन ने उनमें एक ऐसी आत्मग्लानि जगाई कि उनका झुकाव धर्म की ओर हो गया जिसको पिता की दुःखद मृत्यु ने और भी बढ़ा दिया। निदान जन-सेवा का संकल्प लेकर वे चीन चली गई। वहाँ उन्होंने नान-चाँग में वाल्डियन-मिशन स्कूल में प्रधान-अध्यापिका का पद ग्रहण कर लिया। अनेक वर्षों तक स्कूल की सेवा करते हुये उन्होंने संस्था के लिये अनेक सराहनीय विकास कार्य किये। किन्तु उन्हें अपना यह सेवा क्षेत्र बहुत ही संकुचित एवं संकीर्ण लगा। निदान उन्नीस-सौ अठारह में उन्होंने संस्था का दायित्व एक सहयोगिनी को सौंप दिया और अमेरिका लौट गई जहाँ से अपना दृष्टिकोण विशाल बनाने के लिये विश्व-भ्रमण पर चल पड़ीं और जापान, कोरिया, सिंगापुर मलय और बर्मा होते हुये भारत आ गई।

भारत में वे महात्मा गाँधी के संपर्क में आई और दिल्ली में उनकी प्रार्थना सभाओं में सम्मिलित होती रहीं। गाँधी जी के संपर्क में उन्होंने जन सेवा का सच्चा स्वरूप और सर्व धर्म समन्वय की महत्ता समझी। कुछ समय भारत में रहकर जब वे अमेरिका लौटते समय गाँधी जी से मिलीं तो उनके एक वाक्य ने श्रीमती फिशर पर इतना प्रभाव डाला कि कुछ दिनों बाद उन्होंने अमेरिका से वापस आकर भारत को ही अपनी मातृभूमि बना लिया और तब से अब तक वे जन-सेवा के कामों में संलग्न हैं।

विदा होती हुई श्रीमती फिशर से महात्मा गाँधी ने कहा था यदि तुम्हें भारत की कुछ सेवा करने की इच्छा है तो अब की जब भारत आना तो गाँवों में जाकर जनता में शिक्षा प्रसार का कार्य करना। ज्ञान प्रसार से बड़ी कोई दूसरी सेवा इस संसार में नहीं है।

अमेरिका से वापस जाकर श्रीमती फिशर अपने पति डा. फ्रेड फिशर के साथ अनेक वर्षों तक धर्मप्रचार एवं जन-सेवा के कार्य करती रहीं। किन्तु उन्नीस सौ अड़तालीस में एक मोटर दुर्घटना में उनके पति की मृत्यु हो जाने से उनके मन में बड़ी अशाँति पैदा हो गई किन्तु महात्माजी के वे शब्द जो उन्होंने श्रीमती फिशर से अमेरिका लौटते समय कहे थे उनके जीवन के एक बहुत बड़े सम्बल बन गये। उन्होंने भारत जाकर जनता में शिक्षाप्रसार का संकल्प सुदृढ़ किया और विश्व की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करने के लिये पुनः विश्व भ्रमण पर चल पड़ीं। पन्द्रह साल अध्ययन एवं भ्रमण करने के बाद वे बहत्तर वर्ष की आयु में पुनः भारत आ गई।

भारत आकर उन्होंने शिक्षा प्रसार की जो योजना बनाई उसमें प्रौढ़-साक्षरता को प्राथमिकता दी। उनका विचार था कि जीवन की उन्नति एवं विकास का द्वार शिक्षा ही है और साक्षरता उसकी द्वार-शिला है, जिस पर पैर रखकर ही शिक्षा के द्वार में प्रवेश किया जा सकता है। श्रीमती फिशर ने अपनी योजना को कार्यान्वित करने के स्थान की खोज में भारत के अनेक नगरों, कस्बों तथा देहातों का दौरा किया और पाया कि यहाँ पर किसी हद तक बालक, बालिकाओं की शिक्षा का तो प्रबन्ध है किन्तु प्रौढ़ शिक्षा का सर्वथा अभाव है। उन्होंने भारत में प्रौढ़ शिक्षा की आवश्यकता को बड़ी गहराई से अनुभव किया।

उन्होंने देखा कि यहाँ के अधिकाँश लोग निरक्षर होने के कारण अपनी एक छोटी-सी चिट्ठी पढ़वाने के लिये बड़ी दूर-दूर तक जाकर पढ़ने के लिये लोगों की खुशामद किया करते हैं। लोग यह भी नहीं जान पाते उस छोटी-सी रसीद अथवा कागज पर क्या लिखा है जिस पर अँगूठा लगा कर वे किसी शर्त में बँध रहे हैं। उनके इस अज्ञान का लाभ उठाकर थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे लोग अपना मतलब बनाया करते हैं। श्रीमती फिशर को भारतीय जनता की इस अज्ञानावस्था पर बड़ी दया आईं। और वे सोचने लगीं कि इस देश का पढ़ा-लिखा वर्ग कैसा है कि जो अपने देश के भाइयों की इस मूढ़ता को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता। इस प्रकार सोचते-सोचते उनका हृदय भर आया और वे मन ही मन कह उठीं—मैं विदेशिनी होने पर भी इस देश में शिक्षा प्रसार की अग्रदूती बनकर लोगों में शिक्षा सेवा की भावना जाग्रत करूंगी और उनमें यह प्रेरणा पैदा करूंगी कि जब एक अन्य देश की महिला हमारे देश में शिक्षाप्रसार के लिये इतनी प्रयत्नशील है तो इस ओर से हमारा उदासीन रहना कहाँ तक उचित है? मुझे पूरी आशा है कि मेरी इस सेवापूर्ण प्रेरणा से यहाँ का शिक्षित वर्ग अपने कर्तव्य को समझेगा और मुझे देश जाति, धर्म तथा वर्ण आदि से ऊपर उठकर मानवता की सेवा करने का संतोष प्राप्त होगा और मेरे इस सत्प्रयत्न से “वसुधैव कुटुम्बकम्” के सार्वभौम सिद्धान्त को बल मिलेगा।

श्रीमती फिशर की भावना से परिचित होकर इलाहाबाद के ऐग्रीकल्चरल इन्स्टीटय़ूट के अध्यक्ष ने उन्हें अक्षर-प्रचार के आन्दोलन में सहयोग करने के लिये आमंत्रित किया। उन्होंने अध्यक्ष का निमन्त्रण स्वीकार किया और इलाहाबाद में तेरह फरवरी उन्नीस सौ त्रेपन को अपनी योजना के अनुसार साक्षरता-निकेतन का सूत्रपात किया।

उन्होंने कम से कम पाँच सौ गाँव से निरक्षरता-निर्मूलन का लक्ष्य बनाकर एक छोटे से मकान में कक्षा लगाना प्रारम्भ कर दिया। श्रीमती फिशर ने इस प्रारम्भिक स्कूल में इतने परिश्रम से काम किया कि जिसे देखकर न केवल फोर्ड फाउन्डेशन ने आर्थिक सहायता ही दी बल्कि उत्तर-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल के. रामा मुँशी ने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने प्रचार का केन्द्र प्रदेश की राजधानी लखनऊ को बनायें।

निदान वे उन्नीस सौ अट्ठावन में अपना साक्षरता-निकेतन लखनऊ उठा लाई। लखनऊ में राज्यपाल महोदय ने उनके लिये बीस एकड़ भूमि एवं अनेक आर्थिक सहायताओं का प्रबन्ध कर दिया।

श्रीमती फिशर के शिक्षा निकेतन का मुख्य कार्यक्रम है देश के करोड़ों निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिये ऐसे उत्साही शिक्षक तैयार करना जो गाँव-गाँव जाकर शिक्षा-प्रचार करें। उनकी इस संस्था में समाज के सभी वर्गों तथा सभी क्षेत्रों से शिक्षार्थी आते और शिक्षा व प्रशिक्षण पाकर अपने कर्तव्य मार्ग पर चल पड़ते हैं।

प्रशिक्षण पाने वालों में अधिकतर अध्यापक, समाज सेवक, निवृत सरकारी कर्मचारी तथा सहकारी व ग्राम पंचायतों आदि से सम्बंधित ऐसे लोगों की प्रमुखता है जो प्रशिक्षित होकर जाने के बाद अपने-अपने क्षेत्रों में रात्रि पाठशालायें तथा प्रौढ़ पाठशालायें लगाकर लोगों को साक्षर बनाने में अवैतनिक सेवा करते हैं। श्रीमती फिशर की इस संस्था से अब तक लगभग सात सौ व्यक्ति प्रशिक्षण पाकर अपने काम में लग चुके हैं जिन्होंने लगभग दो-लाख निरक्षरों को अक्षर ज्ञान करा दिया है।

इसके अतिरिक्त श्रीमती फिशर का कार्यक्रम अब शिक्षा प्रचार से आगे बढ़कर कृषि, रहन-सहन, सफाई, सहयोग, सहकारिता, एवं घरेलू उद्योग धन्धों की शिक्षा तक पहुँच गया है।

संस्थाओं एवं पाठशालाओं के साथ-साथ उन्होंने एक सचल शिक्षा संस्था आन्दोलन भी चलाया है। जिसके अंतर्गत वे उत्साही स्वयं-सेवकों को एक शिक्षा-झोला देती हैं जिसमें पच्चीस शिक्षार्थियों के पढ़ाने योग्य पुस्तकें, चार्ट, बोर्ड तथा लैम्प आदि आवश्यक वस्तुयें हैं। झोला वाहक शिक्षक गाँव-गाँव घूमते हैं और जहाँ कहीं भी अवसर तथा अवकाश पाते हैं वहीं अपनी पाठशाला लगा कर लोगों को पढ़ाने लगते हैं। श्रीमती फिशर के इस झोला आन्दोलन में अब तक लगभग डेढ़ हजार स्वयं-सेवक सम्मिलित होकर काम करने लगे हैं।

अपने प्रयत्नों की सफलता से प्रोत्साहित होकर श्रीमती फिशर ने विकास कार्य के नये-नये प्रयोग भी प्रारम्भ कर दिये हैं। उन्होंने लखनऊ तथा उसके पार्श्ववर्ती जिलों में प्रौढ़ प्रशिक्षण केन्द्र खोले हैं जिनमें प्रशिक्षित हुये लगभग पौने तीन सौ व्यक्ति पैंतीस औद्योगिक स्कूल चला रहे हैं। उन्होंने ग्राम पंचायतों के कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के साथ स्त्रियों के लिये द्वय वर्षीय साधन-शिक्षण कार्यक्रम भी चलाया है। जिससे निकली हुई महिलायें आर्थिक दृष्टिकोण में बहुत कुछ आत्म-निर्भर हो सकेंगी।

अपने कार्यक्रमों की सफलता एवं साक्षरता-प्रसार के लिये पाठ्य पुस्तकों के सम्बन्ध में सामान्य लेखकों पर निर्भर होना ठीक न समझ वे वर्ष के अनेक महीनों में अपने साक्षरता-निकेतन पर देश के लेखकों का शिविर लगाती हैं और वयस्कों के लिये उपयोगी पुस्तकें लिखने के लिये आवश्यक प्रशिक्षण भी देती हैं। जिसके फलस्वरूप स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, घर बार, परिवार-नियोजन आदि उपयोगी विषय पर लगभग साठ पुस्तकें लिखी एवं प्रकाशित हो चुकी हैं जिनकी पाँच लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पुस्तक प्रकाशन के साथ श्रीमती फिशर की संस्था ‘उजाला’ नाम का एक हिन्दी पाक्षिक भी निकालती है।

अपने इन सराहनीय कार्यों के लिये देश, विदेश की अनेक संस्थाओं ने श्रीमती फिशर को अनेक पुरस्कार भी दिये हैं और उनकी संस्था को नियमित सहायता भी दे रही हैं। इस समय श्रीमती फिशर संसार की महान् शिक्षा विदों तथा जन-सेवियों में मानी जाती हैं जिससे चौरासी वर्ष की आयु में भी वे अपने आत्म-संतोष की प्रसन्नता से पूर्ण स्वस्थ एवं कार्यक्षम बनी हुई एक महान एवं मान पूर्ण जीवन-यापन कर रही हैं।

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