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Magazine - Year 1966 - Version 2

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स्वास्थ्य रक्षा के लिए व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता

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मानव शरीर को स्वस्थ और कार्यक्षम रखने के लिये पोषण और श्रम दोनों की समान रूप से आवश्यकता है। ये दोनों एक दूसरे से बहुत अधिक सम्बन्ध रखते हैं। बिना पोषण के श्रम कर सकने की शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती और बिना श्रम किये पोषण के रूप में ग्रहण किया गया पदार्थ पच कर, रस, रक्त बनकर शरीर को पुष्ट नहीं कर सकता। इस प्रकार शरीर के विकास के लिये पोषण और श्रम प्रकृति के अटल नियम हैं। श्रम के द्वारा हमारे शारीरिक अंग घिसते हैं और पोषक आहार के द्वारा उस घिसाई की पूर्ति होती है। जब तक यह क्रम स्वाभाविक रूप से चलता रहता है, पोषण और श्रम में संतुलन बना रहता है तब तक स्वास्थ्य ठीक तरह स्थिर रहता है और कार्य करने की शक्ति बनी रहती है। पर जब इन दोनों में असंतुलन हो जाता है, पोषण अधिक होकर श्रम में कमी पड़ जाती है या श्रम ज्यादा करने पर भी पर्याप्त पोषण नहीं मिलता तो उसका हानिकारक प्रभाव शरीर पर पड़ने लगता है और स्वास्थ्य में किसी न किसी प्रकार का दोष उत्पन्न हो जाता है।

शरीर की बनावट, आहार की पाचनक्रिया और उसे स्वस्थ दशा में रखने के नियमों की जानकारी न रखने वाले व्यक्ति सोचा करते हैं कि यदि उन्हें अच्छे-अच्छे पदार्थ खूब खाने को मिलें तो वे भली प्रकार सशक्त और तन्दुरुस्त रह सकते हैं। पर यह विचार एकांगी है। पोषण के पदार्थ चाहे जैसे उत्तम हों वे तभी कुछ लाभ पहुँचा सकते हैं जब वे शरीर में अच्छी तरह मिल जायें। यदि वे मुँह से खाये जायें और बिना ठीक ढंग से परिपाक हुये मल के रूप में बाहर निकल जायें तो उनसे लाभ के स्थान में उल्टी हानि होने की संभावना ही रहेगी। आधा पचा या कच्चा भोजन जब मलाशय में पहुँचता है तो वह सड़ने लगता है और तरह-तरह के दूषित तत्व उत्पन्न करके स्वास्थ्य को खराब करता है। पोषण के पदार्थ तभी शरीर को पुष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं जब पर्याप्त श्रम से पाचन-यंत्र अपना कार्य ठीक ढंग से करता रहता है और खाये हुये भोजन से शुद्ध रस और रक्त बनकर विभिन्न अंगों में पहुँच कर उनकी घिसाई की पूर्ति करते रहते हैं।

इस दृष्टि से विचार करने पर शारीरिक श्रम हमारे जीवन-विकास के लिये एक अनिवार्य नियम सिद्ध होता है। जो लोग गाँवों अथवा जंगलों के स्वाभाविक वातावरण में रहते हैं और जिनको अपने जीवन-निर्वाह की सामग्री को प्राप्त करने में पर्याप्त परिश्रम करना पड़ता है उनके लिये किसी प्रकार के अतिरिक्त व्यायाम द्वारा स्वास्थ्य रक्षा की समस्या कभी उपस्थित नहीं होती। खेतों की जमीन को खोदना, गोड़ना, पेड़ों पर चढ़कर लकड़ी काटना, भारी बोझा उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना, जानवरों को भगाने या पकड़ने के लिये दौड़-धूप करना आदि कार्य ही ऐसे स्वाभाविक व्यायाम हो जाते हैं जिससे उनके समस्त अंगों का पर्याप्त संचालन—हिलना डुलना हो जाता है और उनकी पाचन-शक्ति तीव्र बनी रहती है। पर जो लोग शहरों में रहकर ऐसे धन्धों या रोजगारों में संलग्न रहते हैं जिनमें शारीरिक श्रम के बजाय मानसिक और बौद्धिक श्रम की प्रधानता रहती है, उनकी परिस्थिति इससे विपरीत होती है। वे अधिक वेतन या मुनाफा प्राप्त करके पोषक पदार्थ तो अधिक मात्रा में पा जाते हैं, पर उनको शारीरिक श्रम तथा अंग-संचालन का अवसर बहुत कम मिलता है। इससे उनकी पाचन-शक्ति दुर्बल बनी रहती है और अधिक घी, दूध से बने पदार्थों अथवा मेवा, मिष्ठान्न को अच्छी तरह नहीं पचा सकती। ऐसे व्यक्तियों के लिये इस बात की आवश्यकता पड़ती है कि अपने अर्थोपार्जन के धंधे के अतिरिक्त स्वास्थ्य रक्षा के निमित्त प्रतिदिन खुले वातावरण में किसी प्रकार का व्यायाम, शारीरिक श्रम भी करते रहें, जिससे शरीर के भीतरी-बाहरी अंगों को संचालन करने का उद्देश्य पूरा होता रहे और उनमें स्फूर्ति तथा दृढ़ता की वृद्धि हो।

व्यायाम और भावना-

वैसे सभी प्रकार के शारीरिक श्रम स्वस्थ-जीवन की दृष्टि से हितकारी होते हैं, पर जब हम एक विशेष भावना के साथ हलका या भारी व्यायाम करते हैं तो उसका प्रभाव अपेक्षाकृत अल्प समय में ही दिखाई देने लगता है। इसका कारण शरीर और मन का वह सम्बन्ध है जिससे वे सदैव एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। मन की शक्ति यद्यपि सूक्ष्म है, पर इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि जिन व्यक्तियों का मन अशान्त तथा अस्त-व्यस्त दशा में रहेगा वे शरीर और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी कभी सुखी नहीं रह सकते। श्रम के साथ-साथ मनोयोग लगा देने से दुहरा लाभ होता है। व्यायाम का प्रयोजन यही है। मन को स्वास्थ्य संवर्धन पर एकाग्र कर देने से शारीरिक विकास में भारी सहायता मिलती है।

भारतीय मल्ल-विद्या के ज्ञाता और संसार भर में भारतीय व्यायाम पद्धति का डंका बजाने वाले प्रो. राममूर्ति ने भी कहा था कि “भारतीय व्यायाम पद्धति में केवल अंगों का संचालन ही नहीं किया जाता, वरन् उसमें प्राणायाम तथा ध्यान का भी संयोग रहता है। जब मेरी छाती पर से मोटर निकाली जाती है या भारी पत्थर तोड़ा जाता है तो मैं अपना समस्त मानसिक बल छाती के ऊपर ही लगा देता हूँ। जैसे किसी साधक ने समाधि चढ़ाई हो उसी प्रकार मैं उस समय प्रत्येक ख्याल और विचार को भूल जाता हूँ। इसी का परिणाम है कि मैं बिना किसी खतरे के ऐसे कठिन प्रयोगों को सहज ही सफलतापूर्वक करके दिखाने में समर्थ हो सकता हूँ।”

यों तो व्यायाम प्रत्येक मनुष्य के लिये हितकारी है, क्योंकि संसार में शक्ति की आवश्यकता सदैव पड़ती रहती है और निर्बलता अनेक कार्यों में बाधक सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग परिस्थितिवश ऐसे वातावरण में रहते हैं जिसमें बाहर चलने-फिरने और परिश्रम करने का अवसर नहीं मिलता अथवा जो किसी रोग के कारण निर्बल हो गये हैं या वे स्त्रियाँ जिन्हें अधिकाँश में घर के भीतर ही रहना पड़ता है, इन सब को किसी न किसी प्रकार का व्यायाम अवश्य करना चाहिये। यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि पहलवानों द्वारा की जाने वाली भारी कसरतों से इस प्रकार का स्वास्थ्य-रक्षक व्यायाम सर्वथा भिन्न होता है। पहलवानी कसरत में जहाँ उनके अंग लोहे जैसे कठोर और प्रायः बेडौल हो जाते हैं सामान्य व्यायाम से हमारे अंग कोमल, लचीले और सुडौल ही बनते हैं।

शक्ति प्राप्त करने के कृत्रिम साधन-

स्वास्थ्य-सम्बन्धी उपर्युक्त दूषित अवस्था की तरफ यदि लोगों का ध्यान जगता भी है तो वे उसके सुधार के लिये स्वाभाविक और प्राकृतिक साधनों से काम न लेकर कृत्रिम उपचारों की तरफ दौड़ने लगते हैं। कुछ समय से बहुसंख्यक लोगों की यह धारणा हो गई है कि इस प्रकार की स्वास्थ्य सम्बन्धी न्यूनता का प्रतिकार दवाओं अथवा विशेष भोजनों के द्वारा किया जा सकता है। इसके लिये वे वैद्यों के पाक अथवा आसव, हकीमों की माजूम या कुश्ते और डॉक्टरों की ‘टानिकों’ पर भरोसा करते हैं और समझते हैं ये ताकत की गोलियाँ या शीशिया कोई जादू का करिश्मा करके घर बैठे हमको तन्दुरुस्त और ताकतवर बना देंगी। कभी-कभी उनकी यह आशा थोड़े समय के लिये पूरी भी होती है और औषधियों में मिश्रित मादक तत्वों के प्रभाव से वे झूठी शक्ति का अनुभव करने लगते हैं। पर जिस प्रकार थका हुआ घोड़ा चाबुक की मार खाकर कुछ दूर तेज दौड़ भी लेता है पर उसके बाद एक साथ गिर जाता है वही हालत इन भ्रम में पड़े लोगों की भी होती है और वे कुछ महीनों या एक-दो वर्ष बाद ही पहले से भी कहीं अधिक कमजोरी और बीमारी के शिकार होते हैं और उन्हें अकाल में ही अपनी जीवन-लीला समाप्त करनी पड़ती है।

वास्तव में स्वास्थ्य रक्षा की कुँजी प्राकृतिक आहार-विहार है। शारीरिक परिश्रम जीवन के प्रवाह को निर्मल और अबोध रखने का प्रथम मूल मंत्र है। कोई भी व्यक्ति चाहे वह कैसा भी विद्वान या चतुर क्यों न हो यदि इस नियम की उपेक्षा करेगा और जान-बूझकर या परिस्थितियों से विवश होकर सदा बैठे-बैठे काम करने का स्वभाव बना लेगा तो उसे निर्बलता क्षीणता, रोग के रूप में प्रकृति का दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा।

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