• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • शास्त्र-चर्चा
    • परमात्मा का दर्शन कैसे मिले?
    • “ब्राह्मणः आविर्भवन्ति गुह्य न केचित्”
    • श्रद्धा से बुद्धि का नियमन कीजिए।
    • जीवन कलात्मक ढंग से जियें।
    • Quotation
    • इच्छायें पाप नहीं हैं, पाप है—उनकी निकृष्टता
    • विचार ही नहीं कार्य भी कीजिए?
    • जीवन में हास्य की उपयोगिता और आवश्यकता
    • जैन तीर्थंकर-भगवान महावीर
    • महान धर्म प्रचारक कुमारजीव
    • मृत्यु से केवल कायर ही डरते हैं?
    • आवश्यकताओं के साथ न्याय कीजिये।
    • साक्षरता की दीप वाहिका— श्रीमती वेल्दी फिशर
    • जापान के कर्मयोगी कवि— श्री मियासावा केन्जी
    • बुढ़ापे की तैयारी जवानी में ही करिये!
    • किशोरों के निर्माण में सावधानी बरती जाय।
    • स्वास्थ्य रक्षा के लिए व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता
    • नारी को इस दुर्दशा में पड़ा न रहने दिया जाय?
    • ढलती आयु में इस अवसर का लाभ उठाना ही चाहिए?
    • अखण्ड-ज्योति के परिजन इतना तो करें ही
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • शास्त्र-चर्चा
    • परमात्मा का दर्शन कैसे मिले?
    • “ब्राह्मणः आविर्भवन्ति गुह्य न केचित्”
    • श्रद्धा से बुद्धि का नियमन कीजिए।
    • जीवन कलात्मक ढंग से जियें।
    • Quotation
    • इच्छायें पाप नहीं हैं, पाप है—उनकी निकृष्टता
    • विचार ही नहीं कार्य भी कीजिए?
    • जीवन में हास्य की उपयोगिता और आवश्यकता
    • जैन तीर्थंकर-भगवान महावीर
    • महान धर्म प्रचारक कुमारजीव
    • मृत्यु से केवल कायर ही डरते हैं?
    • आवश्यकताओं के साथ न्याय कीजिये।
    • साक्षरता की दीप वाहिका— श्रीमती वेल्दी फिशर
    • जापान के कर्मयोगी कवि— श्री मियासावा केन्जी
    • बुढ़ापे की तैयारी जवानी में ही करिये!
    • किशोरों के निर्माण में सावधानी बरती जाय।
    • स्वास्थ्य रक्षा के लिए व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता
    • नारी को इस दुर्दशा में पड़ा न रहने दिया जाय?
    • ढलती आयु में इस अवसर का लाभ उठाना ही चाहिए?
    • अखण्ड-ज्योति के परिजन इतना तो करें ही
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1966 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


जापान के कर्मयोगी कवि— श्री मियासावा केन्जी

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 14 16 Last
जापान के आदर्श शिक्षक मियासावा केन्जी आज संसार की विभूति बन गये हैं। उनके लिखे हुए बाल साहित्य का संसार की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है। उनका बाल-साहित्य विश्व बाल-साहित्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।

केन्जी की इस सार्वभौमिकता का मुख्य कारण उनकी वे विशेषतायें रही हैं जो एक आदर्श मनुष्य में होनी चाहियें। वे मानव-जीवन की सफलता एवं सार्थकता के लिये सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तीनों की प्रतिस्थापना को आवश्यक मानते थे। मानव-जीवन के इन श्रेयों की व्यवस्था करते हुये वे कहा करते थे कि सत्यं, शिवं, सुन्दरम् कोई पारलौकिक सिद्धियाँ नहीं हैं बल्कि यह विशुद्ध रूप से मानव-जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। इनसे दूर रहकर कोई भी मनुष्य पूर्ण मनुष्य नहीं बन सकता।

श्री केन्जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन अपनी इन्हीं व्याख्याओं के अनुसार सफलताओं एवं उपयोगिताओं के साथ बिताया और इन्हीं को अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष के लिए सोपान बनाया।

श्री मियासावा केन्जी का जन्म जापान के जिला युवाते के अंतर्गत हानायाकी शहर में एक अगस्त अठारह सौ छियानवे में हुआ था। इनकी माता का नाम इची और पिता का नाम मासा जीरो था।

अठारह वर्ष की आयु में पहुँचते-पहुँचते श्री केन्जी में धार्मिक जिज्ञासा जाग्रत हो गई, जिसकी संतुष्टि के लिए वे बौद्ध सम्प्रदाय के एक मन्दिर में जाकर धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करने और ध्यान लगाने लगे। उनकी यह असामयिक विरक्ति देखकर उनके पिता को बड़ी चिन्ता हुई और वे उन्हें उक्त कार्यक्रम छोड़कर घर-गृहस्थी में रहने के लिए समझाने लगे। श्री केन्जी ने पिता को आश्वासन देते हुये विश्वास दिलाया कि वे साधु होकर संसार से विमुख न होंगे। बल्कि अपनी साधना से सच्चा ज्ञान प्राप्त कर संसार की सेवा ही करेंगे।

श्री केन्जी ने अपने धार्मिक अध्ययन के साथ विद्यालय जाना भी आरम्भ कर दिया। उन्होंने सोचा कि यदि केवल धर्म-संदेशों के आधार से वे संसार की सेवा करना चाहेंगे तो उनकी सेवा में मानव-समाज के लिए कुछ अधिक उपयोगी न होगी। यह उनकी मात्र बौद्धिक सेवा ही होगी कोई सक्रिय सेवा न हो सकेगी। निदान उन्होंने विद्यालय में कृषि एवं कला को अपना अध्ययन का विषय बनाया। इसके साथ ही उन्होंने संगीत एवं काव्य कला का भी विकास किया। इन विषयों को चुनने में उनका उद्देश्य यही था कि कृषि की शिक्षा से वे समाज में सुख-सुविधाओं की वृद्धि का प्रयत्न कर सकेंगे और काव्य एवं संगीत के माध्यम से मानव आत्मा का कलात्मक उत्थान करने का प्रयास करेंगे, और उनका धार्मिक अध्ययन इन विषयों में धार्मिक भाव भरने में सहायक होगा।

श्री केन्जी ने अपने अध्ययन में तन, मन और समय का सम्पूर्ण उपयोग करके तेईस वर्ष की आयु में ही कृषि-विषयक अध्ययन को पूरा कर लिया। उनकी इस परिश्रमशीलता एवं प्रखर प्रतिभा को देखकर उनके विद्यालय ने ही उनको कृषि विभाग में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्त कर लिया जिससे वे अपने शिक्षक के तत्वावधान में कृषि अनुसंधान का कार्य करने लगे।

चार साल तक अध्यापन करने के बाद केन्जी टोकियो चले आये और वहाँ लेख-शोधन कार्य में लग गये। अध्यापन कार्य का त्याग करते समय उन्होंने अपने सहयोगी तथा शिक्षक जिनके तत्वावधान में वे कार्य करते थे, उनको बताया कि अब वे कुछ नवीन शोध कार्य करेंगे जिससे कि जनता का वास्तविक हित साधन कर सकें।

टोकियो आकर श्री केन्जी ने अपना कार्यक्रम और भी अधिक व्यस्त बना लिया। वे दिन का अधिकाँश भाग प्राचीन लेख शोधन में लगाते और रात में बौद्ध मन्दिर में जाकर प्रचार कार्य करते। इतना ही नहीं छुट्टी के दिन जाकर पुस्तकालय में पूरे समय अध्ययन किया करते थे।

अपनी इस व्यस्तता के साथ उन्होंने भोजन के प्रकार एवं मात्रा में एक बड़ा परिवर्तन कर दिया। वे दिन में एक बार थोड़े से आलू ही खाया करते थे और फिर सारे दिन पानी ही उनका भोजन बना रहता था। श्री केन्जी की यह कठिन तपस्या देखकर अनेक परिचितों ने कहा श्री केन्जी आपने तो सम्पूर्ण जीवन ही काम के लिये उत्सर्ग कर दिया है। ऐसा पता चलता है कि आपको अपने जीवन से जरा भी मोह नहीं है।

श्री केन्जी ने उत्तर दिया ‘निःसन्देह मैंने ऐसा ही किया है।’ मैं जीवन को अपना नहीं समझता। इसको परमात्मा की धरोहर मानता हूँ, जो कि मुझे जनहित का कार्य करने के लिए दिया गया है। साथ ही अब मैंने आजीवन ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने को निश्चय कर लिया है। अपने इस व्रत का पालन करने के लिए केवल काम ही ऐसा साधन है जो सबसे अधिक सहायक हो सकता है। ब्रह्मचर्य पालन के लिए जो व्यक्ति सक्रियता छोड़कर अन्य साधनों का सहारा लिया करते हैं मेरे मत से वे ठीक नहीं करते। केवल ब्रह्मचर्य बनाये रखने के लिए ही जो इस व्रत को लेते हैं उनका सारा समय सजगता पूर्वक उसकी रक्षा करने में ही लग जाता है वे अपने इस व्रत का कोई लाभ समाज को नहीं दे पाते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्ति संचय करने के लिए किया जाता है सो भी समाज अथवा राष्ट्र की कोई सेवा करने के लिए। जिसने ब्रह्मचर्य से उपार्जित शक्तियों का कोई उपयोग संसार के लिए नहीं किया उसने मानो अपने गृहस्थ जीवन को निरर्थक ही तिलाँजलि दे दी है।

राजधानी टोकियो में कुछ समय काम करने के बाद वे पुनः अपने घर युवाते चले आये। उनकी वापसी का कारण उनकी बहन की रुग्णता थी। उनकी छोटी बहन इतनी बीमार हो गई कि बचने की कोई आशा न रही। उसने मृत्यु शैय्या पर अपने बड़े भाई केन्जी को देखने की इच्छा प्रकट की। केन्जी अपनी बहन की अन्तिम इच्छा पूरी करने के लिए टोकियो से वापस चले आये। घर आकर उन्होंने अपने हाथ से बहन की सेवा-सुश्रुषा की जिससे कि कुछ ही समय में वह अच्छी हो गई। परिवार के लोगों का विश्वास था कि यदि केन्जी घर न आये तो सम्भव है कि उनकी बहन न बचे। इसलिए बहन के जीवन के लिए केन्जी को अनुरोधपूर्वक बुलाया गया था। केन्जी ने टोकियो से चलते समय विदाई समारोह में कहा कि मैं बहन के मोह से घर नहीं जा रहा हूँ बल्कि एक जाते हुए मानव-जीवन को साँत्वना देने के लिए जा रहा हूँ।

बहन के स्वस्थ हो जाने के बाद श्री केन्जी हायाना के कृषि विद्यालय में अध्यापन करने लगे। इसी समय उन्होंने सैकड़ों कवितायें तथा अनेकों नाटक लिखे जो कि उन्हीं की देख-रेख में अभिनीत भी किये गये। श्री केन्जी की अध्यात्म भावों से भरी हुई कवितायें आज भी जापान में घर-घर गाई जाती हैं।

लगभग पाँच छः वर्ष अध्यापन करने के बाद श्री केन्जी कृषि विद्यालय से निकले हुए तरुणों को कृषि का सक्रिय प्रशिक्षण देने के लिए अध्यापन छोड़कर कृषि करने लगे। उन्होंने नगर से दूर जंगल में स्वयं अपने हाथ से झाड़ियाँ काटकर एक छोटा-सा फार्म बनाया और उसी के किनारे एक कुटी बनाकर रहने लगे। वे अपने हाथ से खेती करते, छात्रों को निःशुल्क प्रशिक्षण देते और अवकाश के समय धर्म प्रचार करते।

इस प्रकार श्री केन्जी ने अन्य सभी ओर से अपने को पूर्ण रूप से जनहित में लगा दिया। उन्होंने एक “आदर्श धरती मानव संघ” की स्थापना का सूत्रपात किया और किसान संस्कृति के विकास के लिए प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। धरती-मानव संघ की स्थापना का उद्देश्य बतलाते हुए श्री केन्जी ने बतलाया कि वे चाहते हैं कि कृषि विद्यालय से निकले हुए छात्र केवल मौखिक शिक्षक ही न बनें बल्कि वे अपने हाथों से खेती करें जिससे कि परिश्रम एवं बौद्धिकता का समन्वय हो सके। मेरा विश्वास है कि कृषि-फार्म में शिक्षा पाये हुये छात्र यदि किसान बन जाने लगें तो देश शीघ्र ही धन-धान्य पूर्ण हो जाये, और किसान संस्कृति से मेरा मतलब है कि एक ऐसी श्रमिक-संस्कृति का विकास किया जाये जिससे कि संसार के श्रमिक वर्ग का संगठन हो सके और संसार श्रम की महत्ता समझने लगे और उसका आदर करने लगे। ऐसा होने से संसार में फैला हुआ संघर्ष बहुत कुछ दूर हो सकता है।

श्री केन्जी ने अपने उद्देश्य के प्रचार के लिए अथक परिश्रम किया। वे गाँव-गाँव घूमते, किसानों को इकट्ठा करते और उन्हें श्रम का महत्व बतलाते हुए कृषि की वैज्ञानिक विधि सिखाते। उन्होंने अपने फार्म पर एक कृषि-प्रशिक्षण केन्द्र खोलने के साथ-साथ गाँवों में भी अनेक ऐसे छोटे-छोटे केन्द्र खोले जहाँ किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता था। उनके चलाये हुए अनेक प्रारम्भिक पाठशालाओं में बच्चों को शुरू से ही कृषि कार्य में रुचि पैदा की जाती थी।

श्री केन्जी अपने फार्म पर जो प्रशिक्षण दिया करते थे, उसका कोई पारिश्रमिक न लिया करते थे बल्कि शिक्षणार्थियों को यथा सम्भव अपने हाथ से पैदा किया हुआ अन्न, सब्जी तथा फल खिलाया करते थे। श्री केन्जी के इस अथक प्रयत्न का फल यह हुआ कि जापान की जनता ने श्रम तथा कृषि की महत्ता समझी और शीघ्र ही वह पिछड़े हुए देशों की पंक्ति से विकसित देशों की पंक्ति में आ गया।

दिन-रात के इस राष्ट्रीय कार्य में निरन्तर संलग्न रहने से श्री केन्जी का स्वास्थ्य खराब हो गया और वे बीमार पड़ गये। अपनी बीमारी की हालत में श्री केन्जी ने किसी से सेवा नहीं ली और न अधिक दवाओं पर ही निर्भर रहे। उन्होंने अपने भोजन के समय तथा आत्म-विश्वास के बल पर तीन साल के लम्बे क्षय रोग पर विजय पाली। बीमारी की हालत में उनके डॉक्टर मित्रों ने उन्हें अंडा तथा मछली का शोरबा खाने के लिए परामर्श दिया किन्तु वे इसके लिए तैयार न हुए। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं जीवन-भर शाकाहारी रहा हूँ और अब जिन्दगी के मोह में पड़कर अपने शाकाहार का नियम नहीं तोड़ सकता। जिन्दगी मेरी अपनी नहीं है। वह परमात्मा की धरोहर है फिर भी मैं अधिक समय जनता की सेवा करने के लिए उसे बचाने का प्रयत्न करूंगा तथापि अपने आहार सम्बन्धी नियम को कदापि न त्यागूँगा।

इस दशा में श्री केन्जी ने शारीरिक श्रम करना कम कर दिया और उसके स्थान पर बौद्धिक कार्य में अधिक समय देने लगे। इसी अन्तिम समय में उन्होंने इतने सुन्दर बाल साहित्य का सृजन किया कि आगे चलकर वह सारे संसार में बच्चों के पाठ्यक्रम में स्वीकृत कर लिया गया। बाल-साहित्य लिखने के साथ श्री केन्जी ने जो कवितायें इस अवधि में लिखीं उन्होंने उन्हें कवि के रूप में भी अमर कर दिया। श्री केन्जी का गद्य साहित्य जहाँ समाज-सुधार की दिशा में प्रेरणाप्रद रहा करता था वहाँ उनका पद्य साहित्य मनुष्यता के विकास की प्रेरणा देने वाला रहा है।

अपने अन्तिम काल में श्री केन्जी ने जो कवितायें लिखीं वे उनकी सर्वोत्तम रचनायें हैं। उनके काव्य साहित्य का महान उद्देश्य उनकी एक अन्तिम रचना से समझा जा सकता है। जिसका भावार्थ इस प्रकार है—

“मेरी इच्छा है कि मैं एक ऐसा मानव बनूँ”—

मैं सशक्त शरीर धारण कर सकूँ। ऐसा शरीर जिसका आधार संयम हो और जिस पर प्रकृति के प्रकोपों का कोई प्रभाव न पड़ सके और जो दिन-रात काम करके भी न थके—मैं एक ऐसा मानव बन सकूँ —जिसकी आत्मा राग द्वेष के वशीभूत न हो, जिनका मन स्वार्थ देखने की योग्यता ही न रक्खे और जिसकी बुद्धि परमार्थ एवं परोपकार की पोषिका हो।”

“मैं एक ऐसा मानव बन सकूँ जिसकी कोई आवश्यकता न हो और जो अपने लिए कुछ भी न करके औरों के लिए सब कुछ कर सके।”

“मैं एक ऐसा मानव बन सकूँ—जिसकी सहानुभूति चारों दिशाओं में फैली रहे। पूर्व दिशा में यदि किसी बच्चे की बीमार देखूँ तो दौड़कर उसकी सेवा करने लगूँ, पश्चिम दिशा में यदि किसी थकी हुई माँ को देखूँ तो उसका बोझ उठाकर सहायता कर सकूँ, उत्तर दिशा में यदि विवाद होता देखूँ तो प्रार्थना पूर्वक लोगों को न लड़ने के लिए कह सकूँ और दक्षिण दिशा में यदि किसी को मृत्यु शय्या पर देखूँ तो उसको ढांढस बांधकर धर्म का सन्देश दे सकूँ।”

इस प्रकार साहित्य, श्रम तथा धर्म से संसार एवं समाज की सेवा करते हुए श्री मियासावा केन्जी ने सन् 1929 में अपना शरीर त्याग दिया।

First 14 16 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • शास्त्र-चर्चा
  • परमात्मा का दर्शन कैसे मिले?
  • “ब्राह्मणः आविर्भवन्ति गुह्य न केचित्”
  • श्रद्धा से बुद्धि का नियमन कीजिए।
  • जीवन कलात्मक ढंग से जियें।
  • Quotation
  • इच्छायें पाप नहीं हैं, पाप है—उनकी निकृष्टता
  • विचार ही नहीं कार्य भी कीजिए?
  • जीवन में हास्य की उपयोगिता और आवश्यकता
  • जैन तीर्थंकर-भगवान महावीर
  • महान धर्म प्रचारक कुमारजीव
  • मृत्यु से केवल कायर ही डरते हैं?
  • आवश्यकताओं के साथ न्याय कीजिये।
  • साक्षरता की दीप वाहिका— श्रीमती वेल्दी फिशर
  • जापान के कर्मयोगी कवि— श्री मियासावा केन्जी
  • बुढ़ापे की तैयारी जवानी में ही करिये!
  • किशोरों के निर्माण में सावधानी बरती जाय।
  • स्वास्थ्य रक्षा के लिए व्यायाम की अनिवार्य आवश्यकता
  • नारी को इस दुर्दशा में पड़ा न रहने दिया जाय?
  • ढलती आयु में इस अवसर का लाभ उठाना ही चाहिए?
  • अखण्ड-ज्योति के परिजन इतना तो करें ही
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj