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Magazine - Year 1966 - Version 2

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अखण्ड-ज्योति के परिजन इतना तो करें ही

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हमारी धर्म-निष्ठा, कर्त्तव्य-निष्ठा की ओर बढ़ चलें।

अखण्ड-ज्योति अपने परिजनों को विगत 27 वर्षों से अध्यात्म ज्ञान और धर्म का प्रकाश उपलब्ध कराती रही है। उसका प्रयास कहाँ तक सफल हुआ इसकी परख एक ही कसौटी पर कसी जा सकती है कि जिनने इन विचारों को पढ़ा उनने उन्हें जीवन में अपनाया, उतारा या नहीं? ज्ञान की सार्थकता तभी है जब वह कार्य रूप में परिणत हो। अन्यथा बकरे के गले में लटकते हुए थनों की तरह उसे निरर्थक ही मानना चाहिए।

लोगों ने भले ही हनुमान-चालीसा पढ़ने का नाम, अभ्यास और तिलक लगाने का नाम धर्म समझा हो पर मनीषियों ने सदा से एक ही बात कही है कि धर्म और अध्यात्म उस प्रवृत्ति का नाम है जिसमें व्यक्ति अपने पर संयम का नियन्त्रण कठोर करता चला जाता है और दूसरों के प्रति उदार बनता जाता है। सेवा, धर्म का अविच्छिन्न अंग है। जो किसी की सेवा नहीं कर सकता वह अधार्मिक है। जिसे अपने ही लाभ की बात सूझती है, जिसे दूसरों के दुख-दर्द से कोई वास्ता नहीं वह नास्तिक है। भले ही वह बाहरी दृष्टि से कितना ही बड़ा धर्माडम्बर ओढ़े बैठा हो।

‘अखण्ड-ज्योति’ ने मानव-जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने वाली विचारधारा का सृजन एवं प्रसार किया है। लोक-मानस तक उस प्रकाश को पहुँचाने का अविरत प्रयत्न किया है। साथ ही यह भी आवश्यक माना है कि जो लोग इन विचारों को पढ़ें वे मानसिक विलासिता ही इस पठन को न बना लें वरन् उसे कार्यान्वित करने के लिए भी साहसपूर्ण कदम उठायें। हमने गायत्री उपासना तथा दूसरी पूजा पद्धतियाँ भी लोगों को सिखाई हैं और साथ ही यह भी कहा है कि इनका पूरा लाभ उन्हीं को मिलेगा जो अपने व्यक्तित्व को पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने की साधना भी साथ ही करेंगे। मंत्र चाहे कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो उसका फल केवल परिष्कृत व्यक्तित्व वालों को ही मिलता है। औषधि सेवन के साथ-साथ आहार-विहार का पथ्य भी ठीक रखें तभी रोगी अच्छा होगा। दवा कीमती खायें किन्तु परहेज बिगाड़े तो बीमारी कैसे जायगी? कारतूस बढ़िया हों पर बन्दूक बाँस की बनी हुई नकली हो तो उससे निशाना कहाँ सधेगा? अच्छा कारतूस तभी अच्छा निशाना लगावेगा जब बन्दूक भी बढ़िया हो। मनुष्य का चरित्र जितना सुधरेगा उतना ही भजन भी फलदायक होगा। अन्यथा गन्दे नाले में आधी छटाँक गंगा जल डालने की तरह वह भी निरर्थक हो जायगा।

अध्यात्म के लाभ अपार हैं। ईश्वर उपासना से जो लाभ मिलते हैं वे संसार के अन्य किसी भी पुरुषार्थ से संभव नहीं। पर यह मिलते उन्हीं को हैं जो अपना अन्तःकरण अधिक पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। कहना न होगा कि व्यक्तिगत जीवन में महानता उत्पन्न करने के लिए सेवा धर्म अपनाया जाना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। गुण कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता बढ़ाने का अभ्यास परमार्थ, परोपकार की प्रक्रिया अपनाने से ही संभव है। इसलिए प्रत्येक आंतरिक सफल अध्यात्मवादी ने ईश्वर उपासना के साथ-साथ ही जीवन साधना को भी गाड़ी के दो पहियों की तरह अन्योन्याश्रित माना है। कोई भी धर्मात्मा व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ-कोई भी ईश्वर भक्त ऐसा नहीं रहा-जिसने मानव सेवा का व्रत न लिया हो। जिसने इस ओर उपेक्षा बरती वह भले ही कितनी ही माला घुमाता रहा हो, कितना ही व्रत उपवास करता रहा हो, आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्ति में सर्वथा असफल ही रहेगा।

इस सुनिश्चित तथ्य को ध्यान में रखते हुए ‘अखण्ड-ज्योति’ ने अपने प्रिय परिजनों को ज्ञान की शिक्षा, उपासना की प्रेरणा देते हुए साथ ही सेवाधर्म अपनाने का भी पूरे जोर से प्रतिपादन किया है, युग-निर्माण योजना ऐसी ही एक सेवा साधना है। जिसका उद्देश्य समाज का नवनिर्माण ही नहीं उस कार्यक्रम में संलग्न व्यक्तियों का अध्यात्म लक्ष्य पूरा करना भी है। हमने स्वयं भी यही रीति-नीति अपनाई है, और अपने प्रत्येक सहचर को शास्त्रों एवं ऋषियों का यही संदेश सुनाया है कि वे भी विश्व मानव की सेवा को भी अपने जीवन का वैसा ही अंग बनावें जैसा कि धन उपार्जन तथा शरीर यात्रा के नित्य कर्म करने में प्रयत्नशील रहते हैं।

प्रसन्नता की बात है कि जो तथ्य और सत्य को समझने का प्रयत्न करते हैं, अध्यात्म को बहुमूल्य तत्व मानकर उसकी समुचित कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं, वे अपनी गतिविधियाँ इसी आधार पर विनिर्मित कर रहे हैं। सेवा धर्म को चरितार्थ करने के लिए सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप युग-निर्माण योजना का जो कार्यक्रम प्रस्तुत किया है—उसे विश्व-मानव की—विराट ब्रह्म की- प्रत्यक्ष सेवा मानते हुए उस दिशा में सलग्न हैं। इन्हीं कर्मवीर सच्चे धर्म-प्रेमियों की निष्ठा और तत्परता देखते हुए हम देश, धर्म, समाज और संस्कृति के उज्ज्वल भविष्य को सामने देखते हैं और उन सपनों को मूर्तिमान होते देखकर एक सबसे बड़ा कदम उठाने का भी साहस करते रहते हैं।

कहना उनसे है जिन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया, जिन्होंने पत्रिका को एक पठन मनोविनोद मात्र माना है, जिन्होंने एक दो माला फेरने को ही ऋद्धि-सिद्धि और स्वर्ग मुक्ति प्राप्त करने की कुँजी माना है, जो सेवा का प्रपंच मानते हैं, जिन्हें आदर्शवादी विचार तो अच्छे लगते हैं, पर उन्हें कार्यान्वित करने का साहस नहीं होता। आलस, संकोच, झिझक, निराशा आदि की आड़ में निष्क्रिय बने बैठे रहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या भी अपने परिवार में कम नहीं यह पंक्तियाँ उन्हीं के लिए विशेष रूप से लिखी जा रही हैं।

आदर्शवादिता पर आस्था रखने वाले हर अध्यात्मवादी विचारशील व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उत्कृष्ट विचारधारा का वास्तविक लाभ एवं आनन्द लेने के लिए, उसे कार्यान्वित करने के लिए भी तत्परता प्रकट करे। हम अपने स्वजनों में से प्रत्येक से यही आशा करते हैं कि यदि उन्हें ‘अखण्ड-ज्योति’ के विचार पसंद आते हों तो वे उन्हें कार्य रूप में परिणत करके अपनी आन्तरिक ईमानदारी का परिचय दें। हम लोग इन दिनों जिस समाज में रह रहे हैं, उसमें भ्रान्तियों और विकृतियों की भरमार है। अतएव वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही स्तर पर व्यक्ति अनेक समस्याओं में घिरा उलझा पड़ा है। इस स्थिति को बदला जाना चाहिये और ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की जानी चाहिए, जिनमें प्रेम, न्याय, सज्जनता, खुशहाली एवं हँसी-खुशी के साथ हर किसी को जीवन यापन कर सकना सम्भव हो सके। हमें ऐसा ही भावनात्मक नव-निर्माण करना चाहिये। संकीर्णता और स्वार्थपरता की जो दुष्प्रवृत्ति जन मानस में भर गई है, उसके विरुद्ध विचार क्रान्ति को बगावत खड़ी करनी है और उसके स्थान पर विवेकशीलता न्यायनिष्ठा एवं सज्जनता की प्रतिस्थापना कर धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का स्वप्न साकार करना है। युग-निर्माण योजना के आधार पर इसी दिशा में एक व्यवस्थित अभियान चलाया गया है। इस पवित्र धर्म युद्ध में हम में से हर एक को सम्मिलित होना चाहिए। यह अनुरोध प्रत्येक भावनाशील विचारशील व्यक्ति से है पर ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्यों से तो इस संदर्भ में विशेष आग्रह ही है। उन्हें इस दिशा में कुछ न कुछ करना ही चाहिए।

तात्कालिक कार्यक्रम यह है कि हम में से प्रत्येक अपने-अपने संपर्क क्षेत्र में विचारक्रान्ति का क्षेत्र बढ़ाना आरम्भ कर दें। जो प्रकाश उसे मिल रहा है उसे अपने से सम्बन्धित अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न करें। एक घण्टा समय और एक आना नित्य देने की युग-याचना को पूरा करने के लिए अब किसी को भी कृपणता नहीं दिखानी चाहिये। चौबीस घण्टे का समय स्वार्थ में ही बीतता है, इसमें से एक घण्टा समय लोक मंगल के लिए भी निकालना चाहिए। जो कमाते हैं वह प्रायः सारा का सारा ही अपने लिए खर्च होता है। उसका एक नगण्य अंश एक आना—नव-निर्माण के लिए भी खर्च किया जाना चाहिए। यदि किसी पर इस विचारधारा का—आध्यात्मिक आस्था का—रत्तीभर भी प्रभाव पड़ा होगा तो उसे इतने से दो तुच्छ त्याग कर सकता तनिक भी कठिन प्रतीत न होगा। इस सम्बन्ध में आलस किसी को भी नहीं बरतना चाहिए। छोटे ट्रैक्टों की सीरीज तेजी से छपती चली जा रही है। लागत से भी कम मूल्य के अत्यन्त सस्ती, अत्यन्त सुन्दर, साथ ही विचार क्रान्ति की आग में लबालब भी हुई इन छोटी-छोटी पुस्तिकाओं को—एक आना प्रतिदिन निकाले जाने वाले अनुदान के बदले खरीदा जा सकता है। पैसा बाहर के किसी व्यक्ति को दान नहीं देना है वरन् अपने ही घर में उसके बदले का भावनात्मक-क्रान्ति के लिए उपयुक्त अस्त्र-शस्त्र-सत्साहित्य—खरीदने में खर्च किया जाना है। इस पैसे के बदले में हर सदस्य के पास एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण, अत्यन्त ही प्रभावशाली पुस्तकालय बनता चला जायगा। यह पुस्तकालय अलमारी का कूड़ा बना कर नहीं पड़ा रहना चाहिए वरन् हर सदस्य को उसे पढ़ने के लिए सुनाने के लिए—अपने हर परिजन के—स्वजन एवं सम्बन्धी के पास जाना चाहिए। अपने घर का एक भी शिक्षित अशिक्षित-बाल वृद्ध ऐसा न बचे जिन्हें यह साहित्य पढ़ने या सुनने को नियमित रूप से न मिलता हो। इसी प्रकार पड़ौसियों, मित्रों, स्वजनों सम्बन्धियों, साथियों सहयोगियों को भी यह चीजें पढ़ने या सुनने के लिए विवश किया जाना चाहिए। बेशक आज आदर्शवादी विचारों को सुनने समझने की अभिरुचि लोगों में नहीं है। वे इस प्रयत्न को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं और उसे पढ़ने -सुनने से बचना चाहते हैं तो भी हमारा पुरुषार्थ कुछ रंग लावेगा ही। हम सच्चे मन से प्रयत्न करें तो अरुचि एवं उपेक्षा को गहरी दिलचस्पी में परिणत कर सकते हैं। यदि इतना कर लिया तो समझना चाहिए कि बहुत बड़ी सफलता मिल गई। विचार क्राँति को सुनने समझने में निरन्तर अभिरुचि लेने वाले यदि दस व्यक्ति भी हम घर या बाहर बना सकें और इन तक निरन्तर इस प्रेरक प्रकाश की धारा को पहुँचाते रहने में संलग्न हो सकें तो समझना चाहिए कि ‘अखण्ड-ज्योति’ की उनको सदस्यता सार्थक हो गई और हमने जो आशा अपने प्रिय परिजनों से कर ली है, उसको पूरा करके दिखा दिया गया है। हम तीस हजार से तीन लाख, और तीन लाख से तीस लाख बने तो ही नव-निर्माण का उद्देश्य पूरा होगा।

इस युग की सबसे बड़ी शक्ति संघबद्धता है। दस-बीस चोर डाकुओं के संगठित गिरोह अपने क्षेत्र में आतंक मचा देते हैं। तब हम दस-बीस लोक सेवी धर्म पुरुष अपने क्षेत्र को दिव्य प्रकाश से प्रकाशित क्यों न कर सकेंगे? असुरता से देवत्व की शक्ति अधिक है। फिर हमारे संगठित प्रयत्नों का आशाजनक परिणाम क्यों उत्पन्न न होगा?

जहाँ भी ‘अखण्ड-ज्योति’ पहुँचती है वहाँ के सदस्यों का प्रयत्न यह होना चाहिये कि वे मिलजुल कर नये लोगों के पास जायें और कम से कम दस सदस्य तो अपने यहाँ बना ही लें। ताकि वहाँ एक छोटा संगठित युग-निर्माण केन्द्र-विधिवत् स्थापन हो सके। इन सदस्यों को परस्पर मिल-जुलकर बैठना सीखना चाहिए और एक विधिवत् संगठन बना लेना चाहिये। एक ऐसे कार्यालय की स्थापना जिसमें पुस्तकालय भी जुड़ा रहे हर शाखा द्वारा होना नितान्त आवश्यक है। ऐसी स्थापना अभी तक जहाँ नहीं हुई है, वहाँ विलम्ब न होना चाहिये। शाखा की गतिविधियों के संचालन का कोई व्यवस्थित क्रम तो होना चाहिये इन संगठनों का प्रथम कार्य यह हो कि सदस्यों के जन्म दिन मनाने आरम्भ कर दें।

(1) जन्म दिन मनाने की पद्धति, (2) जन्म दिन इस तरह मनायें, यह दो पुस्तकें 40+20=60 मूल्य और 20 पैसा पोस्टेज कुल 80 पैसे के टिकट भेज कर मंगाई जा सकती हैं और इनके आधार पर आरम्भ किये छोटे-छोटे आयोजनों द्वारा युग-निर्माण योजना का सन्देश घर-घर पहुँचाने का क्रम चलाया जा सकता है। इतना कार्य हर जगह चल पड़े तो हमें यह विश्वास हो जाय कि आगे अपने इस संगठन द्वारा नव-निर्माण के लिए जो बड़े कदम उठाये जाते हैं वे भी सफल होकर रहेंगे।

गत अंक में भी स्वजनों से यह अनुरोध किया था और अब बहुत जोर देकर अपने प्रत्येक परिजन से आग्रह कर रहे हैं कि वह एक घण्टा समय, एक आना नित्य नव-निर्माण के लिये देते रहने के लिये पूर्ण सतर्कता और नियमिता बरते। (2)विचार क्रान्ति के लिये नव निर्मित साहित्य का घरेलू पुस्तकालय चलायें और पढ़ने सुनने की अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए जन संपर्क बनायें।

(3) अपने यहाँ कम से कम दस ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्य पूरे करने और उन्हें संगठित करके कार्यालय की स्थापना तथा संचालक की नियुक्ति का काम पूरा कर लें। (4) जहाँ भी ऐसे संगठन बनें वहीं हर जगह सदस्यों के जन्म दिन मनाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाय ताकि रचनात्मक कार्यों के लिए आवश्यक उत्साह बढ़ाने की प्रक्रिया चल पड़े।

इन पंक्तियों को हर सदस्य अपने लिये निजी अनुरोध मानें और जहाँ उपरोक्त चारों बातें चल रही हैं, वहाँ उनमें अधिक तेजी लाई जाय। जहाँ इतना तक नहीं बन पड़ा वहाँ यह क्रम अविलम्ब आरम्भ कर लिया जाय। जहाँ यह क्रम चल रहे होंगे वहाँ की संगठित शाखायें सजीव मानी जायेंगी। हमारा विचार इस वर्ष-जुलाई के बाद—मथुरा से अपने प्रतिनिधि हर जीवित शाखा में भेजने का है ताकि वे आलस्य और अवसाद की, निराशा और ढील-पोल की स्थिति को दूर कर चेतना, प्रेरणा और प्रकाश का और भी अधिक संचार कर सकें। जेष्ठ के शिविर में ऐसे कार्यक्रम भी बन जायेंगे कि कहाँ किस शाखा में हमारे प्रतिनिधि कब पहुँचेंगे, वे सदस्यों की विचार गोष्ठी दो दिन तक करेंगे।

आशा है ‘अखण्ड-ज्योति’ के पाठक इन पंक्तियों को भावनापूर्वक पढ़ेंगे और आलस्य छोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर तत्परतापूर्वक कदम उठाने के लिये कटिबद्ध होंगे। हमारी ऐसी ही अभिलाषा एवं आकाँक्षा है।

*समाप्त*

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