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Magazine - Year 1966 - Version 2

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बुढ़ापे की तैयारी जवानी में ही करिये!

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आज के अर्थ-संकट के समय में निरुपयोगी व्यक्ति क्या परिवार, क्या राष्ट्र और क्या समाज सभी के लिये भार स्वरूप ही सिद्ध हो सकते हैं। ऐसे निरुपयोगी व्यक्तियों में अपाहित तथा अपंग तो हो ही सकते हैं, वृद्ध भी इसी गणना में आ सकते हैं। कौन से वृद्ध—जिनकी उपयोगिता शारीरिक तथा बौद्धिक दोनों रूपों में खत्म हो चुकी हो और वे समाज परिवार, अथवा राष्ट्र किसी के काम के न रहे हों। भारत जैसे अपूर्ण परिस्थितियों वाले देश में जहाँ अक्षत शरीर नौजवान तक समाज व राष्ट्र के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं वहाँ वृद्धों से उपयोगिता की अपेक्षा कहाँ तक की जा सकती है? निःसन्देह वृद्ध भारत के लिये एक समस्या जैसे बन सकते हैं। इस समस्या के और भी गहन हो जाने की सम्भावना है-क्योंकि सर्वेक्षण के आधार पर डॉक्टरों का मत है कि पिछले पचास साठ साल में मनुष्य जीवन में लगभग अठारह बीस साल की वृद्धि हो गई है!

वृद्धों की समस्या केवल उनकी निरर्थकता ही नहीं है, प्रश्न केवल यह नहीं है कि वृद्धावस्था में लोग बहुधा कमा नहीं पाते, एक बड़ी समस्या है उनका अशक्त होकर प्रायः रुग्ण रहना, जिससे परिवार को उनकी देखभाल, दवा दारु तथा पौष्टिक आहार का प्रबंध करने में श्रम, समय, खर्च करने के अतिरिक्त परिचर्या तथा साज संभाल भी करनी पड़ती है। मोटे तौर से यह सारा खर्च एक तरह से जाता बेकार ही है, क्योंकि इससे किसी प्रकार की प्राप्ति की आशा तो होती नहीं। बिना किसी मुजायके के कहा जा सकता है कि यदि वृद्धों पर होने वाला व्यय बच्चों पर लगाया जाता तो वे अधिक स्वस्थ तथा सुयोग्य बन सकते हैं, और यदि बचत की जाये तो आगे परिवार का सम्बल बन सकता है।

इतना ही नहीं वृद्ध तब और भी समस्या बन जाते हैं जब वे अपने साथ विविध प्रकार के व्यसन साथ लाकर बुढ़ापे में प्रवेश करते हैं और अनेक प्रकार की विकृतियों से अपने स्वभाव में चिड़चिड़ाहट और अशक्यता में ईर्ष्या, द्वेष, वासना, तृष्णा, लिप्सा आदि निर्बलताओं को लपेट लाते हैं। सही बात तो यह है कि इस प्रकार के विकृत बूढ़े ही वास्तविक समस्या बन जाते हैं। नहीं तो वैसे वृद्ध जन परिवार समाज व राष्ट्र के गुरुजन होते हैं। उनके अनुभव बड़ी-बड़ी समस्यायें सुलझाने में काम आते हैं। उनका शान्त रक्त और संतुलित मस्तिष्क संसार की नौजवान गर्मी की बहुत कुछ समझाये बुझाये रहता है। उनके अनुत्तेजित नियंत्रण में संसार के जवान बहुत कुछ सधे रहते हैं। नहीं तो आगा–पीछा न सोचने वाली नौजवानी की आग संसार को जल्दी जला डाले! इस प्रकार वृद्ध जन समाज के रक्षक भी हैं। उनके रहने से परिवार, समाज राष्ट्र का वजन बढ़ता है और उनका होना आवश्यक भी है।

संसार के अन्य सारे देशों से अधिक वृद्धों का आदर भारत में होता रहा है, इस समय भी वही मान्यता है और शायद भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के आधार पर यह मान्यता आगे भी बनी रहेगी, किन्तु जबकि वृद्ध जन अपनी ओर से इस महान् मान्यता को हिलने न दें।

गुरु-आदर की मान्यता बनाये रहने के लिये वृद्धों का कर्तव्य है कि वे किसी न किसी प्रकार से अपनी उपयोगिता बनाये रहें और जहाँ तक सम्भव हो परिवार पर बोझ न बनें। वे वृद्धावस्था में भी कोई न कोई ऐसा काम करते रह सकते हैं जो उनके करने योग्य हो। उन्हें इस भावना से निष्क्रिय नहीं रहना चाहिये चूँकि वे परिवार के गुरुजन हैं। उन्होंने लड़कों को पाला पोसा है, पढ़ाया लिखाया और किसी योग्य बनाया है इसलिये बेटे पोतों से बैठे-बैठे सेवा लेना उनका अधिकार है! यह ठीक है कि हमारे गुरुजन उस अधिकारी के सर्वथा अधिकारी हैं। उन की यथासाध्य सेवा होनी ही चाहिये। फिर भी यदि वे अपने इस अधिकार को यथा सम्भव अनुपयुक्त ही रहने दे तो उनको गुरु की गरिमा कई गुना बढ़ जाये और वे सेवा ही नहीं अधिकाधिक श्रद्धा व पूजा के पात्र बन कर न जाने कितना सम्मानित जीवन-यापन करें। उनकी प्रजा उन्हें हाथों हाथ लिये रहे और सेवा सुश्रुषा के साथ रहकर कुछ न करने और आराम से बैठने के लिये प्रार्थना करती रहे! कदाचित अपने नैतिक अधिकार के उपयोग की अपेक्षा उनका सक्रिय रहना उन्हें अधिक सुखी बना सकता है। इसलिये ही मनीषी व्यक्तियों ने अधिकार से अधिक त्याग करने की भावना को महत्व दिया है!

फिर निष्क्रिय रहने से शरीर में शिथिलता, बुद्धि में विकार और आत्मा में आलस्य आता है जिससे मनुष्य-परिवार पर क्या स्वयं अपने पर भार स्वरूप बन जाता है! सन्तानों के बहुत कुछ समर्थ एवं सम्पन्न होने पर भी यथासम्भव यदि उनके आभार से बचा रहा जा सके तो शायद जीवन का वह अन्तिम चरण जवानी की कर्मठता से भी अधिक महनीय एवं माननीय हो! जो वृद्ध जन इस गौरव को ले सकें वे अवश्य लें। उन्हें बेटे पोतों की कमाई खाने और सेवा लेने की सौभाग्यपूर्ण भावुकता से बचने का ही प्रयत्न करना चाहिये।

अब यदि किन्हीं वृद्ध जनों की स्थिति सक्रिय जीवनयापन करने की न भी हो तो वे कम से कम अपनी आवश्यकताओं को वैसे ही काट कर गिरा दें जिस प्रकार माली पौधों की बेकार बढ़ी हुई शाखाओं को काट देता है! जवानी के व्यसनों और विकारों को तो शपथपूर्वक त्याग ही देना चाहिये। वासना, तृष्णा, लिप्सा और लोलुपता को तिलाँजलि देकर अपने को अधिक से अधिक लघु तथा सरल बना लेना चाहिये। ऐसा करने से उनका चित्त स्वयं ही शान्त, प्रसन्न तथा बंधन रहित रहेगा। बुद्धि निर्विकार होगी और आत्मा में बल का संचार होगा जो परलोक चिन्तन की दिशा में बड़ा ही उपयोगी सिद्ध होगा! जवानी की विकृतियों को वृद्धता में बनाये रहने वाले वृद्धों को बड़े कष्ट का सामना करना पड़ता है। संतान से एक बार भोजन-वस्त्र का तकाजा किया जा सकता है किन्तु अनावश्यक व्यसन वासनाओं का नहीं। व्यसनीय व्यक्ति को भोजन वस्त्र का अभाव उतना नहीं सताता जितना कि व्यसनों की आपूर्ति। व्यसनी वृद्ध जनों का जीवन बड़ा ही दयनीय तथा अनादर पूर्ण बन जाता है! व्यसनों को साथ लगाये रहने से उनसे उत्पन्न होने वाले रोगों से भी पीछा नहीं छूटता ऐसी दशा में पर-निर्भरता के साथ व्यसनों की मार से त्रस्त बुढ़ापे की अशक्यता का क्या हाल होगा इसका अनुमान सहज ही में लगाया जा सकता है!

बुढ़ापे का शेष जीवन शाँतिपूर्ण आत्मचिन्तन तथा भगवान के भजन करने के लिये होता है, धक्के खाने के लिये नहीं। यही वह मूल्यवान समय होता है जब मनुष्य अपने परलोक-प्रसाद की नींव रखता है। किन्तु यह सम्भव तभी हो सकता है। जब मनुष्य पहले से ही इसकी तैयारी करके अन्तिम चरण में प्रवेश करे जवानी में अथक परिश्रम करके अपने कर्तव्यों को पूरी तरह से पूरा करे। संतानों को इस योग्य बनाये कि वे उसका दायित्व ठीक से सँभाल सकें। अपने लिए भी स्थायी परिस्थितियों का निर्माण करे जो आगे चल कर उसकी सच्ची सहयोगी बन सकें संयम नियम तथा कठोर व्रत पालन द्वारा इतनी शक्ति, इतना तप तेज संचय करें जो अन्तिम क्षण तक उसे अशान्त न होने दे बुढ़ापा जीवन की अनिवार्य शर्त है, एक दिन सबको ही बूढ़ा होना होता है। जीवन का वह समय ऐसा होता है, जिसमें संचय का अवसर नहीं होता केवल व्यय ही करना होता है। इस व्यय के लिये आवश्यक संचय जवानी में ही किया जा सकता है। जवानी को अस्त-व्यस्त बिता डालने वालों को वृद्धावस्था में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, जवानी के ज्वार में बुढ़ापे का भाटा न देखने वाले अदूरदर्शी ही होते हैं जीन को अहने कस दृष्टि-दोष का फल बुढ़ापे में भोगना पड़ता है जवानी के जीवंत दिन जिन कष्टों को सहन कर सकते हैं बुढ़ापा नहीं कर सकता इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह जवानी में अपने को इतना अवश्य कस ले कि आगे चलकर बुढ़ापे का बोझ आसानी से उठा सके।

ऋषि परम्परा से आश्रम जीवन जीने वाले बहुत कम धोखा खाते हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास विभाग के अनुसार जीवन क्रम कदाचित ही असफल होता है! वह आजीवन अपनी संचित शक्ति के आधार पर परिवार समाज तथा राष्ट्र को किसी न किसी प्रकार उपयोगी बना ही रहेगा। जिन्हें अपना बुढ़ापा समस्या न बनाना हो और ठीक-ठीक गुरु का आदर-वाँछित हो वह जवानी में ही बुढ़ापे की तैयारी करता हुआ बुढ़ापे में पहुँचे।

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