
जीवन में हास्य की उपयोगिता और आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अंग्रेजी में किसी विद्वान का कथन है— “मैन इज ए लाफिंग एनीमल” अर्थात्— “मनुष्य एक हँसने वाला प्राणी है।” मनुष्य और अन्य पशुओं के बीच भिन्नता सूचित करने वाले—बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि जहाँ अनेक लक्षण हैं, वहाँ एक हास्य भी है। पशुओं को कभी हँसते नहीं देखा गया है। यह सौभाग्य, यह नैसर्गिक अधिकार एकमात्र मनुष्य को ही प्राप्त हुआ है। जिस मनुष्य में हँसने का स्वभाव नहीं, उसमें पशुओं का एक बड़ा लक्षण मौजूद है, ऐसा मानना होगा!
संसार में असंख्यों प्रकार के मनुष्य हैं। उनके रहन-सहन, आहार-विहार, विश्वास-आस्था, आचार-विचार, प्रथा-परम्परा, भाषा-भाव एवं स्वभावगत विशेषताओं में भिन्नता पाई जा सकती है। किन्तु एक विशेषता में संसार के सारे मनुष्य एक हैं। वह विशेषता है— ‘हास्य’। काले-गोरे, लाल-पीले, पढ़े-बेपढ़े, नाटे-लम्बे, सुन्दर-असुन्दर का भेद होने पर भी उनकी भिन्नता के बीच हँसी की वृत्ति सब में सम-भाव से विद्यमान है!
प्रसिद्ध विद्वान् मैल्कम मगरीज ने एक स्थान पर दुःख प्रकट करते हुए कहा है— “संसार में आज हँसी की सबसे अधिक आवश्यकता है, किन्तु दुःख है कि दुनिया में उसका अभाव होता जा रहा है।” कहना न होगा कि श्री मगरीज का यह कथन बहुत महत्व रखता है और उनका हँसी के अभाव पर दुःखी होना उचित ही है! देखने को तो देखा जाता है कि आज भी लोग हँसते हैं। किन्तु यह उनकी व्यक्तिगत हँसी होती है। किन्तु सामाजिक तथा सामूहिक हँसी दुनिया से उठती चली जा रही है। उसके स्थान पर एक अनावश्यक, एक कृत्रिम गम्भीरता लोगों में बढ़ती जा रही है।
ऐसा करने में उनका विचार होता है कि लोग उनको गहन-गम्भीर और उत्तरदायी व्यक्ति समझ कर आदर करेंगे, समाज में उनका वजन बढ़ेगा। यह बात सही है कि गम्भीरता जीवन में वाँछित गुण है। किन्तु यह ठीक तभी है, जब आवश्यकतानुसार हो और यथार्थ हो। नकली गम्भीरता से आदर होना दूर लोग मातमी सूरत देखकर उल्टा उपहास ही करते हैं। गम्भीरता के नाम पर हर समय मुँह लटकाये, गाल फुलाये, माथे में बल और आँखों में भारीपन भरे रहने वाले व्यक्तियों की समाज में बहुत कम पसन्द किया जाता है। वे एक बन्द पुस्तक की भाँति लोगों के लिये सन्देह तथा संदिग्धता के विषय बने रहते हैं।
आज लोग अपनी गम्भीरता तथा उदासी का कारण उत्तरदायित्व एवं चिन्ता बतलाते हैं। कहते है—” ढेरों की ढेर चिन्तायें सिर पर सवार हैं, जिम्मेदारियाँ पीसे डाल रही हैं, कैसे हंसे और कैसे खुश रहें?” किन्तु वे यह नहीं सोचते कि उदास और विषष्ण रहने से चिन्तायें और प्रबल उत्तरदायित्व और बोझिल हो जाता है। जब कि हँसने और प्रसन्न रहने से उनका बोझ हल्का मालूम होता है, उन्हें वहन कर सकने की शक्ति में वृद्धि होती है। एक बार एक विदेशी ने महात्मा गाँधी की विनोद-प्रियता के विषय में प्रश्न किया तो बापू ने बताया कि “यदि मुझमें विनोद-प्रियता की वृत्ति न होती तो मैं चिन्ताओं के भार से दब कर कभी का मर गया होता। यह मेरी विनोद-प्रियता ही है, जो मुझे चिन्ताओं में घुलने से बचाये रखती है!” इस प्रकार पता चलता है कि जिन्दगी का उत्तरदायित्व वहन करने में हास-विनोद बहुत सहायक होता है। जो लोग विनोदी वृत्ति का बहिष्कार कर देते हैं, उनकी जिन्दगी नीरस होकर निर्जीव हो जाती है। वे श्वाँसों के बन्दी बने हुए ज्यों-त्यों दिन पूरे किया करते हैं।
जिसको हास-विनोद में रुचि नहीं, हर समय रोनी सूरत बनाये रहता है, उसका साथ देना लोग कम पसन्द करते हैं। एक विचारक ने बताया है कि “अगर तुम हँसोगे तो सारी दुनिया तुम्हारे साथ हँसेगी और अगर तुम रोओगे तो कोई तुम्हारा साथ न देगा और इस प्रकार अकेले पड़ जाओगे!” जीवन को सामाजिक बनाने के लिये हास-विनोद की बड़ी आवश्यकता है। हास जीवन की कँटीली राह में सुन्दर सुमनों की तरह है, जो काँटों एवं कटुता का प्रशमन कर देता है।
द्वेष की दावानल शमन करने के लिये हास एक अमोघ उपाय है। दो पुराने दुश्मन भी जब एक साथ किसी प्रसंग पर हँस पड़ते हैं तो उनके हृदय से द्वेष का विष बहुत कुछ कम हो जाता है। असफलताओं को हँस कर अंगीकार करने से उनका दुःख, क्षोभ कम हो जाता है। मनुष्य आगे के लिए हतोत्साहित नहीं होता। विद्वानों का मत है कि यदि लोग जी खोल कर हँसा करें, अपने सामाजिक एवं दैनिक व्यवहार में इसको अधिक स्थान दें तो समाज में फैली कटुता तथा असहयोग की भावना बहुत कुछ कम हो जाये। कड़ी से कड़ी बात को हँस कर टाल देने से बड़े-बड़े अनर्थों से बचाव हो जाता है। इसके विपरीत जब एक छोटी सी अप्रिय बात को गम्भीरतापूर्वक लिया जाता है और उस पर आक्रोश भाव से सोचा जाता है, तब वह बात इतनी गम्भीर अनुभव होती है जितनी कि वह होती नहीं है। हास जहाँ कटु प्रसंगों को भी मधुर बना देता है, वहाँ अनावश्यक गम्भीरता अथवा विषाद मीठी बात को भी कड़वी बना देते हैं। सुख-दुःख, द्वेष-प्रेम आदि सारी बातों को मुस्कान एवं प्रसन्नता के वातावरण में रखकर ही स्वीकार करना चाहिए।
हास्य से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति का लाभ उठाने के लिए बड़े-बड़े चिकित्सालयों में रोगियों को हँसाने तथा प्रसन्न करने के लिए हास्य-विनोद की व्यवस्था रक्खी जाती है। मनोरंजन के माध्यम से अपराधियों के आचरण-सुधार के प्रयोगों के परिणामों को आशाजनक बतलाया जा रहा है, मनोरंजक तथा विनोद-प्रियता के साथ पढ़ाने वाले अध्यापक गम्भीर तथा गुरुता से बोझिल अध्यापकों की अपेक्षा अधिक सफल पाये जाते हैं। इसीलिये बच्चों को पढ़ाने की आधुनिक पद्धति मनोरंजक एवं विनोदपूर्ण व्यवस्था के आधार पर विकसित की जाती है। जो एक बात गम्भीरता अथवा गुरुता के साथ किसी के मस्तिष्क में हजार बार कहकर नहीं बिठाई जा सकती, वह मुसकराते हुए मधुर ढंग से एक बार में बिठाई जा सकती है।
हास; मुस्कान और विनोद में कितना सुख है, कितना आनन्द है? इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बड़े बड़े लोग यहाँ तक कि राजा-महाराजा स्वाँग और नाटकों के रूप में अपने प्रति व्यंग विनोद देख-सुनकर प्रसन्न ही नहीं होते हैं, बल्कि सफल अभिनेता को पुरस्कार तक दिया करते थे! आज समाचार पत्रों में छपने वाले व्यंग चित्र संसार के किस बड़े से बड़े आदमी का मजाक नहीं बनाते, छींटा-कशी नहीं करते? किन्तु उनको देखकर सब हँस ही पड़ते है, रोष कोई भी नहीं करता।
आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हास्य एवं प्रसन्नता का महत्व अपरिमित है! योग में मन को स्थिर करने के उपायों में प्रसन्नता का प्रमुख स्थान है। हर समय प्रसन्न रहने से मन के मल तथा विक्षेप आदि विकार स्वयं दूर हो जाते हैं। आध्यात्मिक लाभ एक चिर-स्थायी प्रसन्नता के रूप में ही प्राप्त होता है। जो लोग अध्यात्म क्षेत्र में गम्भीर चिंतन, विचार एवं विवेचना को ही प्रधानता देते हैं, वे भूल करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में हास्य एवं प्रसन्नता की ही प्राथमिकता है।
एक बार एक तरुण, एक महात्मा के पास बड़ी गंभीर मुद्रा के साथ पहुँचा और उनसे अध्यात्म ज्ञान देने की प्रार्थना करने लगा! उसका विचार था कि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक गम्भीरता अपेक्षित है। बुद्धिमान सन्त ने उसे देखा और कहा—वत्स! बाजार से कोई विनोद प्रधान अच्छी-सी पुस्तक खरीद लाओ और उसे पढ़ा करो। तुम्हारे अध्यात्म का यही मार्ग उचित होगा!
इस प्रकार देखा जा सकता है कि जीवन के हर क्षेत्र में हास्य का कितना महत्व है? निःसन्देह संसार के सभी व्यक्ति समान रूप से विनोद-प्रिय बन जायें और जीवन में मुक्त एवं निश्छल हास्य की प्रतिस्थापना कर सकें तो दुनिया से रोग-दोष, दुःख-दारिद्र तथा ईर्ष्या-द्वेष को भागते देर न लगे।