
धर्म-विहीन विज्ञान नितान्त अपूर्ण
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विज्ञान का मत है कि पदार्थ और उसके रासायनिक संवेग ही सत्य हैं। पदार्थ से परे भी कोई आत्मा या परमात्मा नाम की कोई सूक्ष्म सत्ता काम कर रही है-विज्ञान की इस सम्बन्ध में कोई श्रद्धा नहीं। विज्ञान की यह मान्यता मेंढक-विश्वास के समान है।
एक कुँए में एक मेंढक रहता था। एक हँस मान-सरोवर से उड़ता हुआ उधर आ पहुँचा। उसने कुएँ में देखकर कहा-ओ कूप-मण्डूक! इस संकीर्ण क्षेत्र में पड़े रहने में क्या आनन्द? आओ, देखो तो संसार कितना विराट् है। यहाँ कैसी-कैसी वैभव-विभूतियाँ फैली हुई हैं।
मेंढक ने कुएँ का का एक चक्कर लगाया और हंस से पूछा-”तुम्हारी दुनिया इतनी बड़ी है?” हंस मुस्कराया और कहने लगा-इससे भी बड़ी है। मण्डूक ने अब कुँए के दस-बीच चक्कर काटे और फिर पूछा-तो फिर तुम्हारी दुनिया इतनी बड़ी होगी? हंस को हँसी आ गई। उसने कहा-बन्धु! यह तो उस विशालता की तुलना में हाथी के आगे चींटी के सिर से भी छोटा हैं। मेंढक इस बार देर तक 100-200 चक्कर मारता रहा, फिर रुककर बोला-तो भाई हंस! तुम्हारा संसार इतना बड़ा होना चाहिए।
हंस गम्भीर होकर बोला-बन्धु! तुम जिस स्थिति में पड़े हो, विश्व की विशालता का दिग्दर्शन करना उससे सम्भव नहीं। यह कहकर हंस वहाँ से उड़कर चल आया।
आज के तथाकथित पदार्थवादी या बुद्धिवादी लोगों की आध्यात्म और धर्म के सम्बन्ध की मान्यतायें भी कूप-मण्डूक की तरह हैं। तो भी संसार आज जिस विश्वास पर और प्रत्यक्षवादी दर्शन पर चल रहा है, उसे देखते हुए हमें विरोध नहीं व्यक्त करना चाहिए कि सचमुच विज्ञान का धर्म के सम्मुख कोई अस्तित्व नहीं।
चींटी एक बार में अधिक-से-अधिक एक वर्ग इंच दूरी की वस्तुएं देख सकती है। इसका यह अर्थ नहीं कि उसकी दुनिया को कुल एक योजन की अधिकतम सीमा में ही मान लिया जाय। विज्ञान पढ़ने और सुनने वालों की आंखें यदि केवल थोड़े-से वैज्ञानिक निष्कर्षों तक ही बुद्धि दौड़ाकर कोई निष्कर्ष निकाल रही हों तो, न तो उनकी बात को सत्य ही माना जा सकता है और न ही उन्हें झूठा सिद्ध किया जा सकता है। किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँचने के लिये हमें वैज्ञानिकों का मत भी जानना अनिवार्य है, क्योंकि उनके मस्तिष्क की दौड़ सामान्य पाठक से भिन्न होती है।
इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री जे0 आर्थर हिल ने ‘आत्म-विज्ञान और धार्मिक विश्वास’ (साइकिकल साइन्स एण्ड रिलीजियस विलीफ) नामक पुस्तक में विज्ञान की अपूर्णता और धर्म की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-
“जब भी हमारे सामने धर्म शब्द आता है हमें एक आध्यात्मिक संसार की कल्पना करनी पड़ती है। आध्यात्मिक संसार का अर्थ है कि हमें यह विश्वास करना चाहिए कि यह भौतिक विश्व ही सब कुछ नहीं है। व्यक्तिगत अस्तित्व (इन्डिविजुअल एक्जिस्टैन्स) हमारे शारीरिक अन्त तक ही सीमित नहीं है। हमें इस भौतिक विश्व में ही यह बोध होता है कि कुछ ऐसी भी घटनायें (फेनामेना) इस संसार में घटती रहती हैं, जो हमें भौतिक सिद्धान्तों से आगे ले जाती हैं। यह प्रतिक्रियायें ही हमें भौतिकतावादी आस्था से धार्मिक विश्वास में अस्तित्व का भान कराने का कारण बनती हैं।”
एक बच्चा जन्म से ऐसी प्रतिभायें लेकर आता है, जो उसके माता-पिता ही नहीं, परिवार के किसी भी सदस्य में नहीं होतीं। माता-पिता बड़े साहसी और धार्मिक निष्ठाओं वाले होते हैं, पर उनके बच्चे प्रारम्भ से ही भयभीत और बुरे स्वभाव वाले। जो बच्चा सारी बातें अपने माता-पिता से अनुकरण कर सीखता है, उसके लिये भय एक पूर्व संस्कार ही हो सकता है और वह किन्हीं-न-किन्हीं घटनाओं और परिस्थितियों के कारण होता है। ये घटनायें और परिस्थितियाँ जब इस जन्म की नहीं हुईं, तो उससे निश्चित होता है कि इस नये जन्म से पूर्व वह एक व्यवस्थित जीवनयापन कर चुका है।
11 नवम्बर 1969 के ‘वीर अर्जुन’ में बम्बई का एक समाचार इस प्रकार छपा है-”बम्बई 10 नवम्बर। हीरालाल कर्णावत नामक एक अद्भुत स्मरण- शक्ति सम्पन्न 6 वर्षीय बालक उज्जैन से यहाँ आया है। संस्कृत साहित्य का पर्याप्त ज्ञान तो इसे प्रभु-प्रदत्त वरदान ही प्रतीत होता है।”
“इस बालक के पिता श्री रामचन्द्र कर्णावत ने डिप्टी कलेक्टरी के पद का परित्याग कर शिक्षण कार्य अपनाया था। उनका कथन है कि पाँच वर्ष की आयु में ही हीरालाल संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन करने की हठ करने लगा था। तब से अब तक वह विभिन्न धार्मिक विषयों के सौ से भी अधिक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन कर चुका है। वह गीता के किसी भी श्लोक को उद्धृत कर उसकी व्याख्या कर सकने में समर्थ है। उसने विगत 15 मास से तो जैन धर्म और संस्कृत ग्रन्थों पर विशाल जन समुदाय के समक्ष अनेक भाषण भी किये हैं। वह 15 मिनट से लेकर 1 घन्टे तक बोलने की क्षमता रखता है।”
ऐसे ही पूर्वाभास, स्वप्नों में घटित होने वाले सत्य, भविष्यवाणी का सत्य होना और अन्तरिक्ष की असीमता का जितना अधिक चिन्तन करते हैं, धार्मिक विश्वास उतने ही परिपुष्ट होते चले जाते हैं। हमें विश्वास करना पड़ता है कि दृश्य संसार में कुछ अदृश्य सत्य भी हैं जो दिखाई तो नहीं देते, पर मनुष्य उन संवेगों से भी चिरकाल से जुड़ा हुआ है। जब तक वे सुखी नहीं होते, मनुष्य पूर्णतः सुखी नहीं हो पाता।
श्री आर्थर हिल स्वीकार करते हैं-”विज्ञान और धर्म विरोधी नहीं ही हैं। हमारी धार्मिक चेतनायें और आध्यात्मिक ज्ञान सत्य को पाने का एक यथार्थ या उचित मार्ग हैं, क्योंकि उससे हमें अपने भीतर उठने वाली जिज्ञासाओं का समाधान मिलता है। मान लिया कि हम पदार्थों के बारे में बहुत-सी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं, पर उससे जीवन का उद्देश्य तो सिद्ध नहीं हो जाता। यदि पदार्थों का सुख ही वास्तविक सुख है, तो हमें मृत्यु से पूर्व किसी ऐसे स्थान को प्राप्त कर लेना चाहिए था, जहाँ हमारी सभी सुख की इच्छायें सन्तुष्ट हो जातीं। पर ऐसा स्थान कहाँ हैं? हम अमरता की इच्छा क्यों करते है? क्यों सुख को चिरस्थायित्व देने का प्रयत्न करते हैं? इससे हमें लगता है कि अन्तर्ज्ञान और अनुभूतियाँ (इंट्यूशन एण्ड इन्स्पायरेशन्स) वास्तविक हैं, पदार्थ-ज्ञान का महत्व केवल शरीर धारण किये रहने तक है, इसीलिये वह कम उपयोगी है। धर्म स्थाई जीवन का उद्देश्य और व्यवहार बताता है, इसलिये उसका मूल्य और महत्व होना चाहिए।”
विज्ञान उन पदार्थों के समान है, जो हमारे खेलने में, प्रसन्नता बढ़ाने में मदद करते हैं। पर वृद्धा माँ जानती है कि यह सारी सामग्री खेलने और बच्चे के समुचित विकास भर के लिये आवश्यक है। इसीलिये जैसे ही बच्चा बड़ा हुआ।