
जीवों की सात अवस्थायें और उसका विज्ञान
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जीवात्मा क्या है? कहाँ से आया है? विश्व में वह किस स्थिति में है और कहाँ पहुँच कर वह पूर्णता प्राप्त करता है? इस संबंध में पूर्व और पाश्चात्य, ज्ञान और विज्ञान जगत् दोनों ही आदि काल से खोज करते रहे हैं। किन्तु अति सूक्ष्म विज्ञान होने के कारण उसे अच्छी तरह समझा नहीं जा सका। इस संदर्भ में उपलब्ध दर्शनों में वेद और उपनिषद् संबंधी मीमाँसा को सर्व शुद्ध और प्रामाणिक माना गया है।
1.भूः 2. भुव 3. स्वः 4. महः 5. जनः 6. तपः और 7. सत्यम्-यह सात लोक, 1.बीज जागृत 2. जागृत 3. महा जागृत 4. जागृत स्वप्न 5. स्वप्न 6. स्वप्न जागृत और 7. सुषुप्ति-यह जीव की सात अवस्थायें, 1. रस 2. रक्त 3. माँस 4. मज्जा 5. मेद 6. अस्थि और 7. वीर्य-यह सप्त धातुयें, तथा 1. स्वप्न जागर 2. संकल्प जागर 3. केवल जागर 4. चिर जागर 5. धन जागर 6. जागृत स्वप्न और 7. क्षीण जागर-यह जीवों के सात प्रकार। इन सबकी विधिवत् जानकारी दिलाना भारतीय तत्व-दर्शन का उद्देश्य रहा है। यह सप्तक केले के पत्तों के अनुसार जीव-चेतना के विकास की सात अवस्थाओं का विज्ञान है। इसे समझ लेने पर परमात्मा की स्थिति से लेकर संसार के विस्तार, जीवात्मा के विज्ञान से लेकर पुनः मुक्त अवस्था प्राप्त होने तक का शुद्ध ज्ञान प्राप्त करना सुगम हो जाता है। इन अवस्थाओं को ‘एस्ट्रल’ शरीर के नाम से थियोसोफिस्ट और पाश्चात्य वैज्ञानिक भी जानने लगे हैं, तथापि उनकी सबसे अच्छी व्याख्या योग-ग्रन्थों और उपनिषदों में ही प्राप्त है।
सर्वप्रथम सृष्टि विस्तार की प्रक्रिया को लेते हैं। भारतीय दर्शन की मान्यता यह है कि प्रारम्भ में एक ही ‘महातत्व’ या परमात्मा था, उसकी इच्छा हुई-’एकोऽहं बहुस्याम्’ मैं एक हूँ, अनन्त हो जाऊं। उसकी इस इच्छा से ही पंच-तत्वों की रचना हुई और क्रमशः अनेक लोक-लोकान्तरों और जीवधारियों की रचना होती चली गई। यों ब्रह्माण्डों की संख्या अनन्त है-बहवो ह वा......आदित्यात् पराच्चो लोकाः (जैमिनी ब्रह्माण 1/11) अर्थात् आदित्य से परे लोक है तथापि पंच तत्वों की न्यूनाधिक मात्रा के अनुपात से लोकों की संख्या सात ही मानी गई, 5 लोक पाँच तत्वों की मिश्रित बहुलता वाले अर्थात् किसी में आकाश तत्व अधिक है, शेष 4 कम मात्रा में। किसी में अग्नि तत्व अधिक है, शेष 4 कम ऐसे। एक इन समस्त तत्वों से परे महत्तत्व और अन्तिम तमिस्र लोक अर्थात् जिसमें स्थूलता-ही-स्थूलता, अन्धकार-ही-अन्धकार है।
इन लोकों की स्थिति पृथक-पृथक न होकर अंतर्वर्ती है अर्थात् एक लोक में ही शेष 6 भी हैं। एक ही स्थान पर सातों लोक विद्यमान हैं। जीव-चेतना अपने तत्वों की जिस बहुलता में होती है, वह उसी प्रकार के लोक का अनुभव करती है। पृथ्वी पर रहते हुए भी हम सूर्यलोक, आदित्य या स्वर्गलोक में स्थित हो सकते हैं, यदि हमारी चेतना अग्नि, सोम और महत्त्व में परिणित हो चुकी हो। जैमिनी ब्रात्म में इसी बात को-’अनन्तर्हितान् एश्वेत् उध्वनि लोकान् जयति’ कहा है, जिसका अर्थ होता है-ईश्वर को प्रयत्नपूर्वक धारण करने वाला व्यक्ति न पृथक् हुए ही ऊर्ध्व लोकों को जीतता है।
लोक हमारे भीतर है, हम जिस लोक के तत्व का विकास कर लेते हैं। स्थूल रूप से शरीर में होने पर भी अपने भीतर उसी लोक में अनुभव करते हैं, वैसी ही सूक्ष्म दृष्टि और शक्ति के स्वामी भी हम होते हैं। भूलोक स्थूल धातुओं और खनिजों का लोक है। इस लोक में रहने वाले व्यक्ति में इच्छाएं और वासनाएँ बनी रहती हैं। इस तत्व से प्रभावित व्यक्ति में नेतृत्व, सर्व विद्या विनोदी, रोगमुक्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य आदि विकसित होते हैं।
भुवः लोक जल तत्व प्रधान सिन्दूर वर्ण का है। इस लोक में निवास करने वाले व्यक्तियों का अहंकार, मोह, ममत्व नष्ट हो जाता है। ईश्वरीय मनन में प्रसन्नता अनुभव होने लगती है। रचना-शक्ति का विकास होने लगता है, सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा वह अधिक उन्नतिशील होता है स्वःलोक अग्नि तत्व की प्रधानता की अवस्था है। सूर्य में अग्नि तत्वों वाले जीव ही रह सकते हैं या यों कहना चाहिये कि सूर्य का ध्यान करते रहने से अग्नि अर्थात् उष्णता, विद्युत् और प्रकाश के परमाणुओं का शरीर में विकास होता है। ऐसे शरीर वाले व्यक्ति में संहार और पालन की शक्ति, वचन-सिद्धि आदि गुण होते हैं। उस शक्ति को दुर्गुणों से घृणा होने लगती है तथा परमार्थ व सेवा में आनन्द मिलने लगता है।
महः लोक वायु तत्व की प्रधानता का प्रतीक है। इसके ध्यान और प्राप्ति से इन्द्रिय संयम, ज्ञान-प्राप्ति की उत्कण्ठा और परकाया प्रदेश आदि सिद्धियों का स्वामित्व मिलता है। इसी स्थिति में परिणित हो जाने पर आत्म-चेतना इन शक्तियों सामर्थ्यों का अधिकार सामान्य रूप में प्राप्त कर लेती हैं। जनः लोक, जिसके परमाणु धूम्र वर्ण के, आकाश तत्व की प्रधानता वाले होते हैं। इस स्थिति में जीवात्मा दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्व हित परायणता और भूत-भविष्य को देखने का अधिकार प्राप्त करती है। इस स्थिति पर पहुँच गई आत्मायें कठिन परिस्थिति में भी अतीव शान्ति अनुभव करती हैं। उनके मस्तिष्क में से सदैव सुखद विचार उठते रहते हैं।
तप लोक शुभ्र वर्ण के शुद्ध ज्योतिर्मय परमाणुओं से बना होता है। इसे ही महत्तत्व कहते हैं, उसके ध्यान करने से ॐ कार का सुखद नाद सुनाई देता है और तीनों लोकों में जो कुछ है वह स्थूल नेत्रों की तरह आत्मा में प्रतिभासित होने लगता है। इस अवस्था में पहुँचे हुए साधक के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। अन्तिम सत्यलोक, जहाँ से परमात्मा का संकल्प स्फुरित होता है, जो निराकार और सभी तत्वों से अतीत है। यहाँ पहुँची हुई आत्मायें जन्म-मृत्यु के बंधनों से छूटकर सहस्रदल कमल की तरह आकार वाले दिव्यलोक का स्वामित्व प्राप्त करती हैं। इन सातों लोकों की क्रमशः सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम अवस्थायें हैं। इनमें आत्म-चेतना की क्रमशः परिणिति को ही जीव की सात अवस्थायें कहा गया है।
यों ब्रह्माँड के विस्तार के संबंध में पाश्चात्य विद्वानों के अनेक मत हैं, पर उनमें से जिन जिन सिद्धान्तों को पाश्चात्य देशों में प्रमाणिक माना गया हैं, उनका सार इन तथ्यों का प्रतिपादन ही करता है।
पहला ब्रिटिश खगोलशास्त्री फ्रायड हायल का ‘अपरिवर्ती’ सिद्धाँत है। इसके अनुसार ब्रह्माँड का अस्तित्व हमेशा रहा है। हम भी मानते हैं कि परमात्मा अनादि तत्व है, वह कालातीत है अर्थात् ऐसा कोई भी समय नहीं, जब वह न रहा हो। इस तत्व को हाइड्रोजन कहते हैं। इसी से अनेक आकाश गंगायें बनीं और क्रमशः घनत्व वाले ब्रह्माँडों का विस्तार होता चला गया है।
दूसरा सिद्धाँत कैम्ब्रिज विश्व-विद्यालय के रेडियो खगोल शास्त्री डॉ0 मार्टिन रैले का ‘बृहत् विस्फोट’ का सिद्धान्त कहलाता है। उसके अनुसार 10 अरब वर्ष पूर्व एक अत्यन्त सघन परमाणुओं वाला तत्व था, उसमें एका-एक जोर का विस्फोट हुआ। उस विस्फोट से बिखरे पदार्थ-खण्ड ही आकाश गंगायें बनीं और उनसे सूर्य, सूर्य से पृथ्वी आदि ग्रह-नक्षत्र बने। गुब्बारा फूलने की तरह यह ब्रह्माँड विकसित होता जा रहा है और वह अनन्त विस्तार में समाता चला जायेगा। इस मत के मानने वाले ब्रह्माँड की समाप्ति कर नहीं, विस्तार पर ही विश्वास करते हैं।
तीसरा सिद्धान्त पुनरावृत्ति का या दोलायमान स्थिति का सिद्धाँत कहलाता है और जो ऐलेन सैण्डेज तथा पालोमर वेधशाला के वैज्ञानिकों की देन है-ये और सब बातें वृहत् विस्फोट के सिद्धान्त की ही हैं, पर इनके अनुसार 80 अरब वर्ष पीछे ब्रह्माँड के विस्तार की अन्तिम स्थिति होगी अर्थात् उस समय प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न होने से सारे पंचभूत नष्ट होकर पुनः एक ही तत्व में चले जायेंगे। इसके बाद सृष्टि-निर्माण की प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ होगी।
यह सिद्धान्त प्रकारान्तर से भारतीय सिद्धान्तों की ही पुष्टि करते हैं। एक ही तत्व के विकास और काल-विभाजन की हमारे यहाँ गणनायें तक हुई हैं और उन्हें देव-युगों से लेकर पृथ्वी के युगों तक बाँटकर एक-एक युग में तत्वों की कमी या आधिक्य के साथ यह तक बता दिया है कि अमुक युग में ऐसी मनःस्थिति, अमुक युग में अमुक मन-स्थिति के लोग होंगे। ब्रह्माँड के विकास के साथ चेतना के विकास का जितना अच्छा समन्वय और सामंजस्य भारतीय तत्व-दर्शन ने प्रस्तुत किया है, उतना संसार के अन्य किसी भी विद्वान ने नहीं किया। वे अभी तक स्थूल विवेचन तक ही सीमित है, इसलिये आगे जीव की जिन सात अवस्थाओं का विवेचन करेंगे, उनका वैज्ञानिक दृष्टि से कोई प्रमाण नहीं मिलेगा। उनको प्रमाणित करने वाले तत्व केवल मनोवैज्ञानिक और घटनापरक तथ्य ही होंगे, जिनका विवरण अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों में लगातार दिया जा रहा हैं।
अब तक सप्त लोकों की स्थिति का अध्ययन और पुष्टि वैज्ञानिक नहीं कर सके तथापि ब्रह्माँड में कुछ धुँधली रहस्यमयी वस्तुयें दिखाई दी हैं, जिन्हें आकाश की जबर्दस्त शक्ति-स्त्रोत के रूप में देखा जा रहा है। इन वस्तुओं का नाम ‘क्वासार’ रखा गया है। उनका अध्ययन तो ज्योतिर्विज्ञान के अध्याय में अन्यत्र करेंगे, पर यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन शक्ति-स्रोतों के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) सात रंग के पाये जाते हैं 1. बैंगनी 2. नीला 3. आसमानी 4. हरा 5. पीला 6. नारंगी 7. लाल। इनमें से कुछ वर्ण भेद समीपवर्ती रंगों के सम्मिश्रण हो सकते हैं। यदि ऐसा हो, तो उनकी पूर्ति अत्यन्त दिव्य और अत्यन्त अन्धकारपूर्ण वे दो रंग हो सकते हैं, जिन्हें अपने वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) में पालोमर वेधशाला के वैज्ञानिक डॉ0 एलन सैडेज और जीस ग्रीनस्टेन ने प्राप्त किया। बड़े परिश्रम से जब उन्होंने अत्यन्त सूक्ष्म वर्ण क्रम प्राप्त किया, तो उसमें यह दो ही रंग उपलब्ध हुए।
इन अवस्थाओं और शक्ति स्रोतों को इकट्ठा चित्रित करना कठिन है, पर यह निश्चित है कि यह अनजाने शक्ति-स्त्रोत सात लोकों के सात तत्व केन्द्र ही हैं। उन पर और विस्तृत खोजें हुईं, तो लोग देखेंगे कि भारतीय तत्व-दर्शन कितना अत्याधुनिक और प्रमाणिक रहा है। ...
(क्रमशः)