
संगीत-एक हृदयस्पर्शी शक्ति
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बात उन दिनों की है जब ट्रावनकोर में स्वातितिरुनालु राजा राज्य करते थे। उनके दरबार में वडिवेलु नाम के एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ रहते थे। संगीत के क्षेत्र में उनका यश सारे देश में फैला हुआ था।
रस ही तो है, एक दिन वडिवेलु अपनी संगीत-साधना में इतने तन्मय हो गये कि उन्हें राज-दरबार में उपस्थित होने की भी सुधि न रही। इस पर स्वातितिरुनालु बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने वडिवेलु को राज्याश्रय से बाहर निकाल दिया। मन्त्रियों तथा सभासदों ने कहा-महाराज! संगीत तो भगवान् का स्वरूप है। यदि कोई संगीत-आराधना में इतना निमग्न हो गया कि उसे राज दरबार में आने का ध्यान न रहा, तो उसे ईश्वर-भक्ति मानकर क्षमा ही नहीं करना चाहिये, वरन् श्रद्धा व्यक्त करनी चाहिये। यदि संगीत न रहेगा महाराज, तो जीवन नीरस हो जायेगा। फिर कौन आत्मा इस धरती पर आना चाहेगी? प्रेम, सौंदर्य और संगीत यही तो आत्मा के आकर्षण हैं, इन्हीं पर तो संसार टिका हुआ है।
अहंकार प्रबल हो तो मनुष्य न्याय की बात सोच भी कैसे सकता है। स्वातितिरुनालु ने एक न सुनी। उन्होंने वडिवेलु को राज्य-आश्रय से निकाल ही दिया। अपना थोड़ा -सा सामान बाँधकर वीतराग संगीतज्ञ वहाँ से निकल पड़ा। साथ में बेला की पेटी भी थी। जब वह हार-थक जाते, तो बेला बजाते और अपनी सारी थकावट को दूर कर लेते। सचमुच संगीत मनुष्य को ताजगी और नया जीवन देता है। हम पाश्चात्य संगीत की कामुक धार में बहे न होते और अपने संगीत के भाव-पक्ष को जीवित रख सके होते, तो आज जैसी नीरसता के शिकार न हुए होते।
वडिवेलु एक जंग पार कर रहे थे, तभी कुछ डाकुओं ने उन्हें आ घेरा। उनका सारा सामान छीन लिया और साथ में बेला-वादन पेटी भी। वडिवेलु ने प्रार्थना की ‘भाइयों! तुम सब कुछ ले जाओ पर मुझे मेरी बेला दे दो। तुम नहीं जानते, संगीत मेरा प्राण है। मेरा ही क्यों, यह तो मानव-मात्र की आत्मा है। देखा नहीं-गाँवों के कृपण-मजदूर दिन भर के थके माँदे आते हैं, शाम को एक स्थान पर बैठकर संगीत के साथ लोक-धुनों में मस्त हो जाते हैं, उनकी पीड़ायें हर लेता है संगीत। कृपा करो, मेरी बेला मुझे दे दो ताकि कभी कुछ न हो, तो अपनी आत्मा की प्यास और थकावट तो दूर कर लिया करूंगा।’
डाकुओं को दया आ गई। उन्होंने वेला वडिवेलु को लौटा दी। जैसे छोटा बच्चा अपनी माँ को पाकर गदगद हो जाता है और उसके स्तनों से चिपक जाता है, वैसे ही वेला मिलते ही वडिवेलु की आँतरिक भावनायें प्रवाहित हो उठीं। वहीं बैठ गये। ढीले तार कसे और वेला का मधुर राग हवा में गुँजाने लगे।
डाकुओं को वह स्वर-लहरियाँ बहुत मीठी लगीं। परिस्थितिवश कोई कितना ही बुरा क्यों न हो जाये, उसकी करुणा थोड़े ही मर जाती है। वेला की स्वर-झंकृति ने उन डाकुओं के हृदयों को छुआ और उनसे कोमलता फूट पड़ी। डाकू श्रोता बनकर बैठ गये। वडिवेलु पूरी तन्मयता से वेला के तारों को गति देने लगा। डाकुओं का चित्त संगीत की रस धारा में ऐसा बह गया कि उन्हें अपने आप का भी ध्यान न रहा। इसका पता तो उन्हें तब लगा जब वाद्य बन्द हुआ। सबकी आँखों में प्रेम और पश्चाताप के आँसू। पश्चाताप अपने दुष्कर्म पर और प्रेम संगीत से, मानव की आत्मा से, जो अब तक उनसे छिपी थी और संगीत-स्वरों ने जिसे फूँककर जगा दिया था।
डाकुओं ने वडिवेलु का सारा समान लौटा दिया। उन्हें जंगल से बाहर तक छोड़ भी आये। उनके पैर छुए और प्रतिज्ञा की कि अब वे कभी भी किसी को न लूटा करेंगे। यह बात स्वातितिरुनालु ने सुनी तो उनका भी अहंकार दूर हो गया। उन्होंने वडिवेलु को सादर वापिस बुलाया और टावनकोर में फिर से संगीत की रसधारा लोक-जीवन को अनुप्राणित करने लगी।