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Magazine - Year 1970 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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यह विशाल धनराशि निर्धनता पाट सकती है।

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First 52 54 Last
चन्द्रमा अब हमारे लिये पड़ौसी राज्यों की तरह हो गया है। कई चन्द्र-परिक्रमायें पूरी हुईं, पर उनकी कीमत कम ही लोग जानते होंगे। 10 जुलाई को प्रसारित अन्तरिक्ष केन्द्र ह्यूस्टन (टेक्सास) की एक विज्ञप्ति में बताया गया है कि अपोलो-11 के यात्री नील आर्मस्ट्राँग की चन्द्रमा पर दो घण्टे 40 मिनट की चहलकदमी के लिये 180 अरब रुपये खर्च किये हैं। दस साल पूर्व स्थापित अन्तरिक्ष प्रशासन को अब तक 180 अरब रुपयों की धनराशि मिल चुकी है। यह धनराशि यदि पिछड़े लोगों की भलाई में प्रयुक्त होती, तो सैकड़ों 12 आना प्रतिदिन पाने वाले लोगों को दोनों वक्त भरपेट भोजन देने के काम आती।

अन्तरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्राँग को 20500 रुपया प्रतिवर्ष वेतन मिलता है। चन्द्रमा पर उतरने के लिये उसे जो पोशाक पहनाई गई, उसकी कीमत उसके 12 वर्ष के वेतन के बराबर मूल्य अर्थात्-246600 (चौबीस लाख 66 हजार रुपये) की थी। अपोलो-11 के निर्माण पर ही 2 अरब 62॥ करोड़ रुपया खर्च करना पड़ा। इतने रुपयों में भारतवर्ष के एक वित्तीय वर्ष का बजट बनता। यह संपत्ति एक बार के प्रयोग के बाद लगभग पूरी नष्ट हो जाती है। 4 करोड़ 10 लाख डालर के मूल्य पर बना चन्द्र-मोड्यूल ‘ईगल’ तो चन्द्रमा में ही गिर कर नष्ट हो गया। सैटन-5 जो यान को प्रक्षेपित करता है, 18 करोड़ 50 लाख डालर में बना है। यह अपव्यय अभी तो प्रत्येक बार की यात्रा में होता रहेगा।

इन आँकड़ों को देखकर ही भारतीय वैज्ञानिक डॉ0 आत्माराम की आत्मा रो पड़ी थी। उन्होंने चन्द्रमा पर मनुष्य के चरण का समाचार सुनकर अपनी भावाभिव्यक्ति करते हुए कहा था-”अन्तरिक्ष की खोज में लग रही यह विशाल धनराशि यदि अशिक्षितों को शिक्षित बनाने, बेरोजगारों को रोजगार देने, बीमारों को औषधि, भूखों को भोजन देने के काम आ सकी होती, तो आज संसार के किसी भी देश का कोई भी व्यक्ति भूखा-नंगा नहीं रहा होता।”

दुनिया के दो-तिहाई लोग अभावग्रस्त जीवन जीते हैं। अमेरिका जैसे देश में भी निर्धन लोगों की कमी नहीं। रूस दूसरों से अन्न मोल लेकर अपने नागरिकों के पेट भरता है। यदि अन्तरिक्ष यात्राओं और वैज्ञानिक अनुसन्धान में खर्च होने वाली अथाह धनराशि मानवता के कल्याण की दिशा में प्रयुक्त हुई होती, तो संसार में एक भी व्यक्ति भूखा न रहता। 30 नवम्बर 1969 के ‘धर्मयुग’ पृष्ठ 43 पर एक बड़ा मार्मिक समाचार छपा है। प्रारम्भिक पंक्तियाँ यह हैं-बम्बई जैसे महानगरों में जहाँ गन्दी बस्तियों और फुटपाथों पर रहने वाले अपंग और भिखारी जूठे पत्ते चाट कर अपना पेट भरते हैं। बम्बई के श्री एच॰ सी0 मेहता और उनकी धर्मपत्नी ने कदम उठाया है-इन भूखे गरीब अनाथों की मदद के लिये वे कमर कसकर निकल पड़े हैं। ये लोग कई पार्टियों और दावतों में निमन्त्रण पाकर वहाँ बचा-खुचा भोजन इकट्ठा करने जाते हैं, (उनमें शरीक होने नहीं), उस भोजन को कार में, रखकर गन्दी बस्तियों में जाकर भूखों में बाँट आते हैं।

ऐसी स्थिति भारतवर्ष ही नहीं, सारी दुनिया में है। कदाचित् विज्ञान के नाम पर खर्च होने वाली यह धनराशि इन निर्धनों के पेट भर सकती, तो संसार में कितनी शाँति होती?

First 52 54 Last


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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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