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Magazine - Year 1970 - Version 2

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नमक शरीर के लिए आवश्यक नहीं

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योग मानवीय अन्तर्चेतना के विकास और अनुभूति का वैज्ञानिक तरीका है। स्थूल विवरण दें, तो कह सकते हैं कि जिस आत्म-चेतना का स्वरूप साधारण रूप से बातचीत में या विचार करने से भी समझ में नहीं आता, योग के द्वारा उसी आत्म-चेतना को प्रकाश के रूप में या शक्ति के रूप में हम ऐसे देख और अनुभव कर सकते हैं जैसे अब शरीर को कर रहे हैं।

ध्यान, धारणा, जप, प्राणायाम, यम, नियम, प्रत्याहार आदि योग के आठ अंग बताये गये हैं। यह आठ प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोग हैं, जिनके अभ्यास से आत्मा का स्वरूप स्पष्ट प्रकट होने लगता है। शेष सात को तो अभी विज्ञान की कसौटी पर नहीं कसा जा सका, पर प्रत्याहार के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों की राय भारतीय आचार्यों के सिद्धाँत का समर्थन करती है। इससे भी भारतीय योग और तत्वदर्शन की प्रामाणिकता सिद्ध होती है।

प्रत्याहार में जहाँ आहार की शुद्धता, संस्कार और मिताहार आदि बातें आती हैं, वहाँ सर्वाधिक जोर इस बात पर दिया जाता है कि आहार में नमक का प्रयोग कतई बन्द कर देना चाहिए। अस्वाद को भारतीय पाक-ग्रन्थों में एक व्रत कहकर उसकी बड़ी महत्ता प्रतिपादित की है। आज का विज्ञान इस मान्यता का पूरी तरह से समर्थन करता है।

जो विज्ञान नहीं जानते, उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि नमक का क्षार तत्व सोडियम और क्लोरीन गैस से मिलकर बनता है। विज्ञान की भाषा में नमक को सोडियम क्लोराइड कहते हैं। क्लोरीन एक विषैली गैस है, जो शरीर के लिये अनावश्यक ही नहीं, हानिकारक भी है। हमारे शरीर के कोषाणु (सेल) उसे पचा नहीं सकते। इसलिये उससे आमाशय यन्त्र की श्लेष्मिक झिल्ली (एक प्रकार की दीवार, जिसमें लगे हुए शक्ति चूसने वाले रेशे अन्न से शक्ति ग्रहण करते हैं) को हानि पहुँचती है। शरीर का कैल्शियम घटता है और स्नायविक प्रणाली उत्तेजित होती है, जिससे शरीर में पक्षाघात और मिरगी जैसे रोगों की सम्भावना की वृद्धि होती है।

सुप्रसिद्ध अमरीकी आहार विशेषज्ञ डॉ0 रेमाँड बर्नार्ड ने नमक को विष बताते हुए लिखा है कि एक बार कुछ पक्षियों और सुअर को उनकी आदत के प्रतिकूल नमक अधिक मात्रा में खाने को विवश किया गया। स्मरण रहे संसार का के कोई भी जीव-जन्तु प्राकृतिक लवण के अतिरिक्त ऊपर से नमक नहीं खाते। फल यह हुआ कि उनमें से अधिकाँश पक्षी 2-3 दिन में ही बीमार पड़ गये, उनमें से कुछ की मृत्यु होने लगी। सुअर की भी मृत्यु हो गई, तब यह प्रयोग रोका गया। नवम्बर 1962 के ‘हिन्दी डाइजेस्ट’ (नवनीत) में डॉ0 रेमाँड बर्नार्ड का इस आशय का लेख छपा भी है।

प्रश्न किया जा सकता है कि यदि नमक शरीर के लिये आवश्यक नहीं, तो लोगों ने खाना क्यों प्रारम्भ किया और सामान्य जीवन में उसकी हानियाँ क्यों नहीं दिखाई देतीं?

इसका उत्तर बहुत आसान है। शरीर के लिए जितना नमक आवश्यक है, वह प्राकृतिक रूप में अन्न और सब्जियों के साथ अपने आप मिल जाता है। रही बात उसकी हानियाँ स्पष्ट प्रकट न होने की, तो उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि अभ्यास में आ जाने के कारण उसकी अस्वाभाविकता समझ में नहीं आती। प्राचीनकाल में कुछ राजाओं के यहाँ विष कन्यायें हुआ करती थीं। इनका उपयोग दुश्मन राजाओं को गुप्त रूप से मारने में किया जाता था। यह स्त्रियाँ बाहर से देखने में स्वस्थ, सुन्दर और कलाकार भी हुआ करती थीं। किन्तु इन्हें विष थोड़ा-थोड़ा करके खाने का अभ्यास कराया जाता था। धीरे-धीरे उसकी मात्रा बढ़ायी जाती थी। कुछ दिन में उनके शरीर में विष की मात्रा इतनी अधिक बढ़ जाती थी जो व्यक्ति कि उनके संसर्ग में आता था, उनसे शरीर सम्बन्ध स्थापित करता था उसकी मृत्यु हो जाती थी, जबकि उनको स्वयं कुछ न होता था। नमक अभ्यास के कारण हमारा स्वाभाविक आहार-सा बन गया है अन्यथा उसका प्रभाव शरीर में विष की तरह ही होता है।

अफीम, शखिंया जैसा कोई भी विष खाने से मुँह सूखता है और प्यास लगती है। स्वभाव से अधिक कभी नमक खा लें, तो तुरन्त और थोड़ी-थोड़ी देर बाद तेज प्यास लगती है। हमारा आमाशय, जहाँ भोजन पचने की क्रिया होती है, जानता है कि नमक विजातीय पदार्थ है। वह शरीर में पच नहीं सकता, इसलिये उसे अपना काम छोड़कर सबसे पहले उस गन्दगी को धोने की आवश्यकता पड़ती है, इसी कारण तुरन्त प्यास लगती है। इस अतिरिक्त जल से आमाशय नमक को घोलकर गुदा के मार्ग से बाहर निकालता है। उसमें उनकी बहुत-सी शक्ति तो बेकार जाती ही है, साथ ही गुरदे की कोमल नलियों में उसका जो भार पड़ता है, उससे उनमें खराबी आती रहती है। कुछ दिन नमक न खाकर देखें, तो पता चलेगा कि तब पेशाब हलका और जलनरहित होता है, फिर एकाएक किसी दिन अधिक नमक खा लेने के बाद पेशाब करने से उसका भारीपन और जलन एक साथ अनुभव की जा सकती है। गुर्दे की सूजन, पैरों की बीमारियाँ और रक्त विकार यह सब शरीर में नमक की वृद्धि के कारण ही होते हैं। इन रोगों पर वैद्य-हकीम दवा देने से पहले बिना नमक का खाना लेने का परहेज बताते हैं। कुष्ठ की बीमारी भी दरअसल नमक की मात्रा असाधारण रूप से बढ़ जाने के कारण उत्पन्न हुआ रक्त-विकार ही है। इस अवस्था में शरीर के कोष उस विजातीय द्रव्य को धारण किये रहने में समर्थ नहीं होते, इसीलिये कुष्ठ के बीमार को लम्बी अवधि तक बिना नमक का आहार लेना पड़ता है।

अक्टूबर 1969 के नवनीत में प्रसिद्ध समाज-सुधारक श्री रविशंकर महाराज का एक संस्मरण छपा है। उनके किसी वैद्य मित्र को एक गाँव जाना हुआ। वहाँ कोई कुष्ठ के रोगी थे, उन्होंने वैद्यजी से कुष्ठ रोग की दवा पूछी। वैद्य जी ने उन्हें बताया कि उन्हें गुरच और एरण्डी का तेल दवा के रूप में लेना चाहिये और बिना नमक की साबुत मूँग का ही सेवन करना चाहिए।

यह परहेज केवल इसलिये था कि शरीर के कोषाणुओं (सेल्स) में जो विजातीय द्रव्य भर गया है, दवा उसे निकालती रहे और ऊपर से विजातीय तत्व (नमक) का पहुँचना बन्द रहे। यदि नमक भी जारी रहता, तो औषधि का कोई प्रभाव न पड़ता। यह दवा बता कर वैद्यजी घर चले गये।

5-6 वर्ष पीछे वैद्यजी को पुनः उसी गाँव जाना पड़ा। उस व्यक्ति ने वैद्यजी का आना सुना, तो उनके पास गया और उन्हें प्रणाम करके बताया कि अब मैं आपकी दवा के प्रभाव से अच्छा हो गया हूँ साथ ही यह भी पूछा कि अब भी मुझे वैसा ही आहार लेना चाहिये या नहीं?

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