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Magazine - Year 1975 - Version 2

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अपने उपार्जन का अकेले ही उपभोग न करें

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खजूर का पेड़ बहुत ऊँचा होता है; पर उसकी छाया में शीतलता पाने का अवसर किसी को नहीं मिलता। ऐसी उन्नति किस काम की जिसका लाभ स्वयं ही उठाता रहे अन्य किसी को उससे सुविधा प्राप्त करने का अवसर ही न मिले।

सुना है भूमिगत खजाने पर उसका मालिक सर्प बनकर जा बैठता है। रखवाली करता रहता है कि कहीं कोई व्यक्ति आकर उसे उखाड़ कर ले जाने और लाभ उठाने में सफल न हो जाय।

किस के पास कितना वैभव है इसकी कोई महत्ता नहीं। जहाँ तक व्यक्तिगत उपभोग का सम्बन्ध है- एक बहुत छोटी मात्रा में ही सम्पत्ति को काम में लाया जा सकता है। थोड़े से आहार से पेट भर जाता है और थोड़ा सा कपड़ा पहना जा सकता है, जीवन की मूल आवश्यकताएँ और उपभोग की क्षमताएं नगण्य हैं। एक सीमा तक ही वस्तुओं का प्रयोग हो सकता है। इसके बाद तो वह लोभ, मोह की सनक पूरी करने के लिए किसी भण्डार में ही जमा पड़ी रहती हैं। बुद्धिमत्ता इस उपार्जन के श्रेष्ठतम सदुपयोग में है। लालच और कृपणता से ग्रसित होकर यदि संपत्ति का संग्रह भर करते चलें तो उससे कुछ बनेगा नहीं। यदि सदुपयोग करने की दूरदर्शिता अपने में नहीं है तो फिर उसका दुरुपयोग होना ही निश्चित है। मरने के बाद कुटुम्बियों और सम्बन्धियों में किस प्रकार उस हराम के पैसे को पाने के लिए ईर्ष्या, द्वेष भड़कता है यह देखते ही बनता है। जिनके हाथ वह मुफ्त का पैसा लगता है वे किस तरह उसे व्यसन, व्यभिचार में फूंकते उड़ाते हैं वह सहज ही सर्वत्र देखा जा सकता है।

बुद्धिमता कमाने में नहीं खर्च करने में है। भाग्य को भी धनी बना सकते हैं। चोर, उचक्के भी अनीति पर उतारू होकर बहुत कुछ कमा लेते हैं। धनी होना गौरव की बात नहीं। दूरदर्शी विवेकशीलता की परख इसमें है कि उपार्जन का उपभोग किस प्रकार किया गया। यदि उसे संग्रह भर किया जाता रहा और उससे लाभ लेने का अवसर मात्र थोड़े से वंशजों को ही दिया गया तो इसे जरूरतमन्दों अथवा सत्कार्यों को उस लाभ से वंचित रखना ही कहा जायगा।

हमारी योग्यता, क्षमता एवं उपार्जन की सफलता का श्रेय समस्त समाज की है जिसकी सहायता से हमारा व्यक्तित्व उभरा और सफलताएँ प्राप्त कर सकने का अवसर मिला। दूसरे प्राणी तो एकाकी जीवन भी जी सकते हैं पर मनुष्य के लिए तो उतना भी सम्भव नहीं। जन्म से लेकर मरण तक हर कार्य और हर क्षेत्र में उसे दूसरों की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। इस अनुदान का प्रतिदान चुकाये जाने का यही एक मात्र उपाय है कि हम अपनी नितान्त आवश्यकताएँ पूरी करने के उपरान्त जो कुछ बच जाय उसे उस समाज के उत्कर्ष में खर्च करें, जिसने हमें कमाने योग्य बनाने में अनवरत योगदान दिया है।

सराहनीय उसी का दृष्टिकोण है जिसने उपार्जित सम्पदा का सदुपयोग किस प्रकार होना चाहिए इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया और अपनी उपलब्धियों से संसार में श्रेष्ठ परंपराएं स्थापित करने का प्रयोजन पूरा किया। जिसने मोह वश किसी व्यक्ति विशेष को लाभान्वित करने की बात सोचने की अपेक्षा यह सोचा कि किस प्रकार समाज की अधिक उन्नति के लिए अपने उपार्जन का सदुपयोग हो सकता है। हमें न तो खजूर बनना चाहिए और न सर्प। न शरीर पोषण तक सीमित रहना चाहिए और न सन्तान को अमीर बनाने के ताने-बाने बुनने चाहिए। उचित कर्त्तव्यों का पालन करने के उपरान्त जो कुछ भी श्रम, समय, ज्ञान, प्रभाव, धन, वैभव आदि बचता है उसे लोक मंगल के लिए वापिस करना ही दूरदर्शिता पूर्ण कार्य है।

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