
धर्म विज्ञान के द्वारा ही मनुष्य सुखी बनेगा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अमेरिका का रौगरमार्टन यों दूसरों की आँखों में बहुत उन्नतिशील और सुसंपन्न व्यक्ति था। उसके वैभव को देखकर लोग ईर्ष्या करते थे और चाहते थे कि उन्हें भी भगवान उसी जैसी सम्पन्नता प्रदान करे। पर यह दूसरों का ही दृष्टिकोण था। स्वयं रौगरमार्टन को जिस तनाव, दबाव, उद्वेग और खीज का सामना करना पड़ता था उसे वह अकेला ही जानता था। जिन परेशानियों और विफलताओं में होकर उसे रोज ही गुजरना पड़ता था उससे दुखी होकर उसने जीवन के प्रति एक विचित्र दृष्टिकोण बना लिया था। वह कहने लगा था - ‘जिन्दगी एक गन्दगी भर है।’
मार्टन के स्वजन सम्बन्धियों, मित्रों और विश्वासपात्रों तक ने उसे बुरी तरह ठगा और बहकाया। सो उसने यही अनुमान लगाया कि दुनिया में वफादारी और ईमानदारी नाम की कोई चीज है नहीं। एक दूसरे को भरमाने के लिए लोग ऐसे ही आदर्शवाद के ढकोसले रचते हैं, पर जब वक्त आता है तब उस व्यवहार की कसौटी पर कोसों दूर रह जाते हैं। दूसरों के बारे में जैसा समझा जाता है वे वस्तुतः वैसे होते नहीं।
शान्ति की खोज में उसने मद्य-पान की आदत डाली, पर जैसे ही होश आता - विक्षोभ फिर उसके सिर पर सवार हो जाते आखिर हर घड़ी नशे में अचेत पड़े रहना भी तो नहीं बनता था। उसने आत्महत्या की भी कोशिश की, पर वह प्रयत्न भी अधूरा असफल बनकर रह गया।
इस प्रकार के अनेक उतार-चढ़ावों के बीच भटकने के बाद उसने धर्म का तात्विक अध्ययन किया तो पाया कि साम्प्रदायिक जंजाल और धर्म के तत्वदर्शन में मनुष्य के भीतर उतर सके तो वह रोशनी मिल सकती है जिसके आधार पर खीज को एक विनोदी हलचल के रूप में देखा जा सके और सन्तुलित मनःस्थिति अपना कर आत्म निर्भर जीवन जिया जा सके।
इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद उसे लगा कि मनुष्य जाति की सबसे बड़ी सेवा उसे धार्मिक आस्थाओं को समझने, अपनाने का अवसर देना है। इस प्रयोजन के लिए उसने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी और एक धर्मान्वेषी संस्था स्थापित की - “फाउण्डेशन आफ रिलीजन एण्ड फिलॉसफी” अर्थात् धर्म और मनोविज्ञान की संस्था। धर्म और मनोविज्ञान के समन्वित स्वरूप को यदि हम चाहें तो व्यवहारवादी अध्यात्म भी कह सकते हैं।
भारतीय तत्ववेत्ता अति प्राचीन काल से ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गये थे कि मनुष्य की अन्तःस्थिति जब तक उत्कृष्ट चिन्तन के साथ लिपटी हुई न रहेगी तब तक उसका विकास उस दिशा में न हो सकेगा जिससे कि व्यक्ति और समाज की सुख-शान्ति जुड़ी हुई है। उत्कृष्ट अन्तःस्थिति के बिना किया गया भौतिक उपार्जन विपत्ति का कारण ही बनेगा उससे सौभाग्य का उदय नहीं होगा वरन् दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही उत्पन्न होगी।
स्वल्प साधनों में भी सुखी रहने - विपरीत परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने और प्रतिशोध, प्रत्याक्रमण के उद्वेग से बचकर स्नेह, सुधार की ओर मुड़ने - उपभोग को उदारता में परिणत करने से ही मनुष्य अपने आप में सुखी सन्तुष्ट रह सकता है और समाज के लिए श्रेयस्कर अनुदान दे सकता है।
व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठता एवं सम्पन्नता से सुसज्जित करने का आधार धर्म तत्व की सुदृढ़ संस्थापना के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकता। विचारवान अमेरिकी नागरिक ने धर्म विडम्बना को धर्म विज्ञान के रूप में परिणत करने के लिए जो अपने ढंग से एक सराहनीय कदम उठाया, हम सब भी इसी दिशा में कुछ सोचें और करें तो अपनी अपने समाज की महती सेवा साधना कर सकते हैं।