
अपनों से अपनी बात— असुरता से लड़ने में हम अपने समस्त साधन झोंक दें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य जाति के सामने अगणित समस्यायें उत्पन्न करने वाला, विविध-विधि कष्ट-क्लेश देने वाला ही असुर है-अज्ञान। रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु आदि असुरों ने थोड़े से आदमी मारे खाये थे पर अज्ञान के असुर ने समूची मानव जाति को अपनी दाढ़ों से चबा डाला और उदरस्थ कर लिया है। सर्वसुविधा सम्पन्न इस धरती के निवासियों को स्वर्गीय सुख-शान्ति का उपभोग करना चाहिए था। पर हो बिलकुल उल्टा रहा है-हर व्यक्ति खौलते कढ़ाव में तलने और अंगारों पर चलने से अधिक त्रासदायक क्षणों में मौत के दिन पूरे कर रहा है। जिन्दगी जिस सुरदुर्लभ ईश्वरीय वरदान की तरह हर्षोल्लास के साथ जियी जानी चाहिए थी, वह नारकीय यन्त्रणायें सहते हुए व्यतीत करनी पड़ रही है। उसकी लाश ढोना बहुत भारी पड़ रहा है।
यह स्थिति एक आदमी की नहीं लगभग सभी की है। समझा यह जाता रहा कि पैसा कम पड़ने से यह कष्ट सहने पड़ रहे हैं यदि मनचाही मात्रा में पैसा होता तो सुखी जीवन जिया जा सकता था। यह मान्यता थोड़े ही अंश में ही सही है। यह ठीक है कि अधिक पैसे शरीर को सुख-सुविधा देने वाले अधिक साधन खरीदे जा सकते हैं, पर इससे क्या प्रश्न तो उस मनः स्थिति का है जिसके आधार पर पैसे का उपयोग किया जाना था। उस क्षेत्र के विकृतियों का पुरा साम्राज्य है फलस्वरूप जो धन से खरीदा जाता है उसमें उपयोगी कम और हानिकारक अधिक होता है। इस संदर्भ में हम पैसे वालों की स्थिति का गहरा अन्वेषण विश्लेषण कर सकते हैं। गरीबों की बात कुछ समय के लिए पीछे करके उन अमीरों की स्थिति देखें जिन्हें आवश्यकता से अधिक पैसा मिला है। वे उसका करते क्या है?अपने और अपने परिवार के लिए स्वादिष्ट भोजनों की भरमार करके सब का पेट खराब करते हैं।श्रम से बचने और आरामतलबी का ठाठ-वाट जुटाने में शरीर की श्रम शक्ति गंवा देते हैं। गरीबों से अमीरों के स्वास्थ्य अधिक दुर्बल पाये जायेंगे वे अपेक्षाकृत अधिक रोगी रहते हैं और जल्दी मौत के मुँह में प्रवेश करते हैं।
यहाँ न तो धन की निन्दा की जा रही है और न दरिद्र की प्रशंसा। धन भी विद्या बल, शरीर बन आदि की तरह एक शक्ति है उसका सदुपयोग आता असुरता से लड़ने में हम अपने समस्त साधन झोंक दें है तो अपना-अपने परिवार और समाज का भारी हित साधन किया जा सकता है। पर दृष्टिकोण में छाया हुआ अज्ञान उस धन के सदुपयोग की दिशा सोचने ही नहीं देता। जितनी-इच्छाएँ-जितनी चेष्टाएं होती हैं वे सभी दूषित रहती हैं फलस्वरूप उपार्जित धन अपना, परिवार का, समाज का विविध प्रकार से सत्यानाश ही करता चला जाता है। धन से जो लाभ एवं सन्तोष मिलना चाहिए था उससे धनी वर्ग प्रायः वंचित ही रहता है। यहाँ हजार बार समझना चाहिए दोष धन का नहीं दूषित दृष्टिकोण का है जिसे दूसरे शब्दों में अज्ञान कहा जा सकता है।
विद्या बल की महत्ता और भी अधिक है। ऊँची शिक्षा की-बुद्धि कौशल की, कौन निंदा करेगा। शक्तियों में से किसी की भी निन्दा नहीं की जा सकती,
सभी प्रशंसनीय और उपयोगी हैं-शर्त एक ही है कि उनके उपयोग में विवेक से काम लिया जाय। बिजली, भाप, गैस, पैट्रोल अणु ऊर्जा आदि शक्तियाँ कितनी उपयोगी हैं, यह भी जानते हैं पर यदि इनमें किसी का भी दुरुपयोग किया जाय तो वे भयंकर परिणाम उत्पन्न करती हैं। साहित्यकार कैसे साहित्य लिख रहे हैं- कलाकार किन प्रवृत्तियों को उभार रहे हैं इसे अत्यन्त निराशापूर्वक देखा जा सकता है। दुनिया में एक से एक बुद्धिमान भरे पड़े हैं जिनमें से थोड़ी भी प्रतिभाएं यदि जन मानस को दिशा देने में लग गई होती तो दुनिया की स्थिति वैसी न होती, जैसी आज है।
शरीर बल से उपयोगी श्रम हो सकता था-कारखाने उपयोगी सृजन कर सकते हैं। पर हम देखते हैं कि शारीरिक क्षमता, आतंक और अनाचार उत्पन्न करने में लगी हुई हैं । अपराधों और अनाचारों में वे ही लोग अधिक लगे हैं। जिनके स्वास्थ्य अच्छे हैं। भगवान ने जिन्हें रूप दिया है वे उससे कला कोमलता का सृजन करने की अपेक्षा पतन और दुराचार को प्रोत्साहन दे रहे हैं। कल-कारखानों नशेबाजी से लेकर विलासिता के अनेकानेक साधन बनाने में लगे हुए हैं । मनुष्य द्वारा मनुष्य को मारे-काटे जाने के लिए जितनी युद्ध सामग्री बन रही हैं यदि उसे बदल कर सृजनात्मक उपकरण बनाये गये होते तो उतनी धन शक्ति का, जन शक्ति का, क्रिया-कौशल का न जाने संसार की सुख-शान्ति में कितना बड़ा योगदान मिला होता।
संसार में साधन कम नहीं हैं। अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कनाडा आदि देशों में इतनी फालतू और बेकार जमीन पड़ी है कि उस पर भारत और चीन घने देशों की आबादी को बसा कर सबके लिए प्रचुर सुख-साधन जुटाये जा सकते हैं, जितना धन, जितना साधन संसार में है उसे मिल-बाँटकर खाया जाय तो हर मनुष्य बीमारी, बेकारी, अशिक्षाजन्य कठिनाइयों से मुक्ति पा सकता है। जो विज्ञानी मस्तिष्क अणु आयुध और विघातक गैसें और भी न जाने क्या-क्या बना रहे हैं वे समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाने जैसे कार्यों में जुट जाय तो इस धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ हँसती-खेलती दिखाई पड़े और हम सब नन्दन वन में रह रहे हों।
एक-दूसरे को गिराने में, शोषण और दोहन में हमारी जो दुरभिसन्धियाँ निरन्तर क्रियान्वित रहती हैं। यदि वे उलट जायें और परस्पर सहयोग प्रदान करने-ऊँचा उठाने में लग जायें तो उससे सभी को राहत मिले। घृणा, द्वेष, प्रतिशोध के स्थान पर स्नेह, सौजन्य बिखर पड़े और दुनिया कितनी सुन्दर, सुहावनी बन जाय, हर व्यक्ति के इर्द-गिर्द हर्षोल्लास का वातावरण बिखरा दिखाई पड़ने लगें।
स्वर्ग जैसी समस्त सम्भावनाओं के रहते हुए भी अपनी दुनिया नारकीय यातनाओं में जल-भुन रही है इसके ऊपर कारण तो पेड़ पर लगे अनेक पत्तों की तरह अलग-अलग दिखाई पड़ सकते हैं पर विचारवान देख सकते हैं कि यह विष वृक्ष जिन गहरी जड़ों के कारण फल-फूल रहा है, वह हर क्षेत्र में छाया हुआ अज्ञान, अनाचार ही है।आदमी का सोचने का तरीका यदि बदला जा सका होता तो उसका परिणाम उससे सर्वथा विपरीत होता, जो आज हमारे सामने है। हर उलझी समस्या का-हर विपत्ति और दुर्गति का एक ही कारण है भ्रष्ट चिन्तन और तज्जनित दुष्ट कर्तव्य। इसका मूल्योच्छेदन किये बिना अन्याय उपायों से सुधार की-प्रगति की बाल-क्रीड़ा ही होती रहेगी पर बनेगा कुछ नहीं।
पेड़ मुरझा रहा है तो पत्ते छिड़कने से नहीं जड़ सींचने से काम चलेगा। चेचक की हर फुन्सी पर अलग-अलग पट्टी नहीं बंध सकती रक्त शोधक दवा से ही उसकी जड़ कटेगी। मनुष्य और समाज के सामने आज अगणित समस्यायें हैं, पर वे उत्पन्न एक ही कारण से हुई हैं और उनका निवारण भी एक ही केन्द्र से सम्बद्ध है। ताले के हर पुर्जे की तोड़-फोड़ जरूरी नहीं। ताली घुमाने से वे सभी घूम जायेंगे और ताला खुल जायेगा। शरीर गत रुग्णता, मनोगत उद्विग्नता, आर्थिक क्षेत्र की तंगी, अपराधों का आतंक, क्लेश, विग्रह, अशिक्षा, बेकारी, पिछड़ापन, पीड़ा आदि जो कुछ जहाँ कहीं भी अशुभ दिखाई पड़े समझना चाहिए यह सारा दावानल अवांछनीय चिन्तन की चिनगारी का उत्पन्न किया परिवार है।
अपनी निज की, अपने परिवार की, देश, समाज, विश्व-मानव की प्राणि मात्र की कुछ ठोस सेवा करने की इच्छा हो तो व्यापक रूप से मनःक्षेत्र में भरी हुई उस गन्दगी को साफ करना चाहिए। जिसकी सडांद से विभिन्न जातियों के विषाणु उत्पन्न होते और एक से एक भयंकर महामारियों का सृजन करते हैं। हर विषाणु को मारने की अपेक्षा-हर रोगी का अलग इलाज करने की योजना बनाने से पहले हमें स्वच्छता अभियान चलाना चाहिए ताकि महामारी के उद्गम स्रोत पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सके।
प्राचीन काल के रावण, कंस, महिषासुर, वृत्तासुर आदि की सता स्थानीय थी इसलिए उन्हें आसानी से मारा जा सका। इस युग का रावण सर्वव्यापक है। हर व्यक्ति की इच्छा, बुद्धि और क्रिया उसी से चंगुल में पूरी तरह जकड़ गई हैं। इससे लोहा लेना अपेक्षाकृत कठिन हैं फिर भी हिम्मत तो नहीं ही हारी जायेगी। हाथ पर हाथ धरे तो नहीं बैठेंगे। समुद्र से अण्डे वापस लेने के लिए टिटहरी जब अथक प्रयास कर सकती थी और अन्ततोगत्वा सफल हो सकती थी तो हमीं क्यों अपने को उससे कम साहसी और कम पुरुषार्थी सिद्ध करेंगे। इस धर्म युद्ध में हम पाँच हैं अतः सौ कौरवों की अठारह अक्षौहिणी सेना से लड़ेंगे। गाण्डीव और गदा को विश्राम नहीं लेने देंगे। एकाकी होते हुए परशुराम का कुल्हाड़ा अब चलेगा ही विराम, विश्राम के अवकाश की घड़ी बहुत चली गई।
युग परिवर्तन का-जन मानस के भावनात्मक नव-निर्माण की घड़ी निकट आ पहुँची। अरुणोदय का, ऊषा का आलोक प्राची के समीप न सही दूर दिखाई पड़ने लगा है। हम इस ब्राह्ममुहूर्त में आलस्य प्रमाद के गर्त में पड़े न रहेंगे, कमर बाँधकर आगे बढ़ेंगे और कर्तव्यों की पुकार को शिरोधार्य करते हुए शूरवीरों जैसा दुस्साहस जुटायेंगे। इसमें त्याग बलिदान का परिचय देना होगा। इसके बिना इतना बड़ा सर्वजित् यज्ञ सफल नहीं हो सकता।
अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों ने प्राथमिक परीक्षायें कितनी ही पास कर ली हैं। प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक शतसूत्री योजना के आमंत्रण को प्रायः सभी ने स्वीकार किया है और न्यूनाधिक योगदान सभी का रहा है। यदि ऐसा न होता तो उज्ज्वल भविष्य की आशा किरणें हर किसी को आश्वस्त कर रही हैं उनका आलोक किस प्रकार दृष्टिगोचर हुआ होता। पर अब खोजने के लिए पंचवटी से लेकर रामेश्वर की यात्रा पूरी हो चुकी। रास्ता नापने का ठहरने और भोजन का प्रबन्ध जुटाने का छोटा काम पूरा हो गया। रीछ, बानर अब उस तट पर आ पहुँचे जहाँ से सेतु बन्ध बाँधा जाना है। जहाँ से सोने की बनी, दुर्दान्त असुरों की शस्त्र सज्जा से सजी लंका पर आक्रमण किया जाना है। संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए और कोई उपाय भी तो नहीं है। रावण को कुछ भी कर गुजरने-असंख्य सीताओं के अपहरण की छूट देकर ही हम अपनी सुख-सुविधायें बचा सकते हैं। अन्यथा ‘हतो वा प्राप्यसी’ स्वर्गं जीत्वावा भोक्ष्यसे मुहीम के दोनों हाथों में लड्डू देखते हुए करो या मरो की नीति अपनानी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प अब रह नहीं गया है।
रावण और कंस के समय में अनेक साधन सम्पन्न राजा, योद्धा, धनी, विद्वान, और कुशल, समर्थ व्यक्तियों का अभाव न था वे चाहते तो मिल-जुलकर असुरों के विरुद्ध मुहीम खड़ी कर सकते थे। मुगलकाल में अनेकों शस्त्र सज्जित सामन्त मौजूद थे, वे चाहते तो आक्रान्ताओं को मिल-जुलकर खदेड़ सकते थे। गान्धी जी के जमाने में 600 से अधिक रजवाड़े थे, उनके पास सैनिक भी थे और शस्त्र भी पर वे सभी साहस गवाँ चुके थे। त्याग-बलिदान की माँग पूरी करने की तेजस्विता उनमें रह नहीं गई थी। फलतः रावण से लड़ने के लिए रीछ, बानरों को, मुगलों से लड़ने कि लिए प्रताप, शिवाजी छापामारों को अंग्रेजों से लड़ने के लिये गाँधी के निहत्थे सत्याग्रहियों के उपहासास्पद और नगण्य समझे जाने वाले जत्थों को आगे आना पड़ा था। आज भी वही स्थिति है। सुयोग्य और समर्थ व्यक्तियों की कोई कमी नहीं। वे चाहें तो अज्ञान के असुर से जूझने के लिए उन साधनों को दे सकते हैं, जो उनके क्षुद्र स्वार्थों में लगे हुए हैं। पर ऐसा सम्भव नहीं। साधन सम्पन्न होने से क्या हुआ? सामर्थ्यवान होने से क्या बना? उनके हृदय बहुत ही छोटे और कृपण हैं। संग्रह और उपभोग से आगे की बात सोचना उनकी कृपण चेतना के लिए सम्भव नहीं है। आदर्श प्रस्तुत करने के लिए जिस दुस्साहस की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटाना इनके लिए कदाचित् ही सम्भव हो सके। मनुष्य जीवन का लक्ष्य और सफलता का रहस्य जिन्होंने माला घुमाने और कर्मकाण्डों की टन्ट-घन्ट तक सीमाबद्ध कर लिया हो; वे सस्ते में सब कुछ पा लेने की बात सोचते हैं। मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए जो महँगी कीमत चुकानी पड़ती है, उसे वे क्योंकर जुटा पायेंगे, समर्थ और साधन सम्पन्न होने से क्या हुआ उनकी आन्तरिक कृपणता इतनी गहरी है कि उस साहस की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती जो महामानवों की पंक्ति में बैठने वाले-मानवी गौरव को प्रतिष्ठा देने वाले आदर्शवादी लोगों को देनी पड़ती हैं।
इस सेतु बन्ध को हम रीछ, बानर ही मिलकर बाँधेंगे। इस गोवर्धन को उठाने में हम ग्वाल-बाल ही अपनी लाठी लगावेंगे। समुद्र को पाटने के लिए गिलहरी अपने बालों में रेत भर ले जाती थी और उसे पानी में छिड़कती थी-टिटहरी ने अण्डे वापस लेने के लिए समुद्र में चोंच-चोंच मिट्टी डालने का उपक्रम किया था। निस्सन्देह यह प्रयास बुद्धिमान समझे जाने वाले लोगों के लिए मूर्खता पूर्ण थे। पर जब बुद्धिमानी अपने स्थान पर जीवित है तो इस बेचारी आदर्शवादी मूर्खता को भी तो जिन्दा रहना ही चाहिए। हमें गर्व और गौरव के साथ इस दुस्साहस भरी ‘मूर्खता’ का परिचय देना चाहिए जिसमें हमें अपने पास जो कुछ है उसे युग देवता के चरणों पर समर्पित करना है। अज्ञान का असुर इससे कम में मरेगा नहीं। वृत्तासुर वध का एक ही उपाय था-दधीचि की अस्थियों का वज्र। उन महामुनि ने इस संदर्भ में कृपणता नहीं बरती। यों कष्ट तो सुई चुभने का भी होता है, अस्थि-दान में उन्हें पीड़ा तो हुई ही होगी पर आदर्शों की स्थापना के लिए इससे कम में कभी काम चला भी नहीं है। रीछ, बानर अपना जान बचाते तो लंका विजय सम्भव न थी। धर्म युद्ध में पाप मरता है पर मरता तब है जब धर्म वीरों के त्याग-बलिदान की पूरी परख कर लेता है। आज भी इतिहास की उसी पुनरावृत्ति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।
यह हमारी वास्तविकता की परीक्षा बेला हैं। अज्ञान असुर के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रचुर साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। जन शक्ति, बुद्धि शक्ति, धन शक्ति जितनी भी जुटाई जा सके उतनी कम है। बाहर के लोग आपाधापी की दलदल में आकण्ठ मग्न हैं। इस युग पुकार को अखण्ड-ज्योति परिवार ही पूरा करेगा।
जिनको पारिवारिक उत्तरदायित्वों का न्यूनतम निर्वाह करने के लिए जितना समय लगाना अनिवार्य है वे उस कार्य में उतना ही लगावें और शेष समय अज्ञान के असुर से लड़ने के लिए लगावें। जिनके बच्चे बड़े हो चुके-जिनके घर में निर्वाह व्यवस्था करने वाले दूसरे लोग मौजूद हैं वे वह उत्तरदायित्व उन लोगोँ पर मिल-जुलकर पूरा करने की व्यवस्था बनायें। जिनने संतान के उत्तरदायित्व पूरे कर लिये वे पूरी तरह वानप्रस्थ में प्रवेश करें और परिव्राजक बनकर जन-जागरण का अलख जगायें। जगह-जगह छोटे-छोटे आश्रम बनाने की आवश्यकता नहीं है। इस समय तो हमें परिव्राजक बनकर भ्रमण करने के अतिरिक्त दूसरी बात सोचनी ही नहीं चाहिए। बूढ़े होने पर संन्यास लेने की कल्पना निरर्थक है जब शरीर अर्ध मृतक हो जाता है और दूसरों की सहायता के बिना दैनिक निर्वाह ही कठिन हो जाता है तो फिर सेवा साधना कौन करेगा। युग सैनिकों की भूमिका तो वे ही निभा सकते हैं जिनके शरीर में कड़क मौजूद है। जो शरीर और मन से समर्थ हैं। इस तरह भी भावनाशील एवं प्रबुद्ध जन-शक्ति की अधिक से अधिक मात्रा में आवश्यकता है। सड़े-गले, अध-पगले, हरामखोर और दुर्व्यसनी तो साधु-बाबाओं के अखाड़ों में वैसे ही बहुत भरे पड़े हैं युग देवता को तो वह प्रखर जन-शक्ति चाहिए जो अपना बोझ किसी पन न डाले वरन् दूसरों
*समाप्त*