
क्या हम बन्दर की औलाद हैं?
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जीवों का विकास क्रम क्रमशः अधिक सुविधा सम्पादन की खोज करने वाली इच्छा शक्ति को देखते हुए एक सीमा तक यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जीवन ने लघुता से विभुता की दिशा में पदार्पण किया है। पर यह सिद्धान्त अमीबा जैसे लघुकाय जीवों तक ही लागू होता है। आगे तनिक भी उनकी संगति नहीं बैठती। मछली आरम्भ से ही मछली है और कछुआ आरम्भ से ही कछुआ। मछली के कछुआ होने और कछुए के शूकर बनने की कल्पना यदि यही रही होती तो उन परिवर्तनों का मध्यवर्ती उदाहरण भी देखने को मिलता। कहीं कोई प्रमाण ऐसा पाया जरूर जाता जो मछली का विकसित और कछुए का अविकसित शरीर परस्पर एक होते हुए दृष्टिगोचर होते। घोड़े का विकसित रूप महाअश्व के रूप में दिखाई पड़ता और आदिम मनुष्य बढ़ते-बढ़ते महादैत्य की परिधि तक जा पहुँचा होता।
सृष्टि के आरम्भिक काल में महा सरीसृप, महा गज, महा गरुड़ आदि का इतने समर्थ होने के उपरान्त लुप्त होने का कोई कारण नहीं था। परन्तु विकासवाद के सिद्धान्तानुसार पूर्वकाल की तुलना में अब तक बढ़ते-बढ़ते इन्हें और भी अधिक बड़ा हो जाना चाहिए था।
विकासवाद की खोज प्रायः स्वरूप विकसित जल जीवों पर हुई है। उस क्षेत्र में भी सामान्य सा ही परिवर्तन होता है। वे परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालते या वातावरण से प्रभावित होते देखे गये हैं। ऐसा तो मनुष्यों में भी होता रहता है शीत प्रधान देशों के मनुष्य गोरे और ऊष्ण कटिबन्धों के समीपवर्ती काली चमड़ी के होते हैं पर इससे उनकी शारीरिक या मानसिक संरचना में कोई अन्तर नहीं आता। काले हविश लोग पीढ़ियों पूर्व अमेरिका में बसे थे। वंशानुक्रम के थोड़े से शरीर चिन्हों को छोड़कर वे क्रमशः उसी सभ्यता और मनःस्थिति में ढले हैं जिसमें कि मूल अमेरिका वासी रहते हैं। उत्तर ध्रुव के निवासी एस्किमो बड़ी संख्या में कनाडा के इर्द-गिर्द बस गये हैं। उनका स्वभाव और बौद्धिक विकास वातावरण के अनुरूप ही बन गया है। वंशानुक्रम का प्रभाव अधिक से अधिक इतना ही रह सकता है जैसा कि मंगोल वर्ग के लोगों की आँखें कम चौड़ी और नाक सिकुड़ी हुई होती है। इसके विपरीत अफ्रीकी नस्ल वालों के हाथ और नथुने चौड़े होते हैं। यह क्षेत्रीय विशेषतायें भी वातावरण बदलने पर क्रमशः अपने में परिवर्तन लाती रहती हैं। किन्तु इसका चेतना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दयालु, निष्ठुर, सज्जन-दुर्जन प्रत्येक समुदाय में पाये जाते हैं।
जल जीवों में मछलियाँ आदि में अपनी-अपनी पैतृक विशेषता तो रहती है। पर एक वर्ग दूसरे में नहीं बदलता। ह्वेल-शार्क आदि की अपनी-अपनी जातियाँ और वंश परम्पराएँ हैं वे आरम्भ से वैसी ही बनी हुई हैं। झींगा मछलियाँ कभी विकसित होते ही ह्वेल बन जायेगी और ह्वेल का आकार जलयानों जैसा हो जायेगा, ऐसी आशा करना व्यर्थ है। पालतू मुर्गे को शुतुरमुर्ग बनाया जा सकता है या हिरन घोड़े हो सकते हैं, यह अटकल लगाना व्यर्थ है।
विकासवाद का एक पक्ष यह है कि जड़ ही चेतन बन जाता है। परमाणु ही जीवाणु का रूप धारण कर लेते हैं। यदि यह बात ही रही होती तो युवाओं के स्वस्थ शरीरों को मरण के उपरान्त सहज ही जीवित किया जा सकता। शरीर तो यथावत् है। किसी भयंकर रोग या दुर्घटना को छोड़कर यदि साधारण स्थिति में किसी की मृत्यु हुई है तो थोड़ी उलट-पुलट करके उसे जीवित करने में क्यों कठिनाई होती। कारण कि शरीर तो भीतर बाहर से ज्यों का त्यों बना हुआ है ऐसी दशा में उसे पुनर्जीवित करने का उपचार बहुत कठिन नहीं होना चाहिए।
प्रागैतिहासिक काल के पाषाणीकृत अस्थि पंजरों (फॉसिल्स) के आधार पर खड़ा किया विकासवाद का काल्पनिक ढाँचा इसलिए नहीं माना जा सकता कि विज्ञान काल में ऐसे कोई महान परिवर्तन नहीं हुए। जिन्हें देखकर उन कल्पनाओं की पुष्टि की जा सके। बन्दर जाति में से कोई भी अब तक विकसित होकर मनुष्य नहीं बना। इसी प्रकार पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों की प्रजातियाँ यथावत बनी हुई हैं। क्षेत्रीय वातावरण के आधार पर परिपक्व हुई प्रकृति ही वंश परम्परा के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इसके अतिरिक्त उनका मूल स्वभावः यथावत् ही बना रहता है। शाकाहारी और माँसाहारी प्राणी सुविधा के रहते अपनी प्रकृति नहीं बदलते। मनुष्य के पालतू होने पर ही वे अपनी प्रकृति में यत्किंचित् परिवर्तन कर लेते हैं, जैसे बंदर का सिगरेट पीना। पर वह आदत भी उनके वंशजों में नहीं चलती। गाय, बैल हिरन आदि को माँसाहारी बनाया जा सकता है इसमें सन्देह है। वंशानुक्रम की सीमा भी इसी सीमा को कठिनाई से छू पाती है। अन्यथा वह यथावत ही बनी रहती है। इस क्षेत्र में भी विकासवाद के प्रतिपादित सिद्धांतों के बारे में समझा जा सकता है। सृष्टि की विचित्रता को देखते हुए कहीं कोई अपवाद दिख पड़े तो उतने भर से किसी सिद्धान्त की पुष्टि नहीं होती।
जड़ से चेतन का बनना भी इसी प्रकार का कौतूहल है। पत्थर को भले ही पीस कर रेत बना लिया जाय पर उससे कोई समग्र प्राणी नहीं बन सकता। काई जैसा कोई रासायनिक परिवर्तन भले ही हो चले। यह सिद्धान्त बहुत थोड़े स्तर के सड़न से उत्पन्न होने वाले कृमि-कीटकों के सम्बन्ध में भले ही एक सीमा तक लागू हों, विकसित प्राणियों में, पशु-पक्षियों तक में ऐसा कुछ देखा नहीं जा सकता है। ऐसे कहने वालों को यह प्रश्न असमंजस में डाल देता है कि भविष्य में मनुष्य का विकसित रूप क्या होगा? क्या वह सर्प की तरह बिना हाथ पैरों के दौड़ सकेगा?
विकासवाद की कल्पना के विरुद्ध इसलिए विचार करना पड़ता है कि उससे हमारा स्थायित्व चला जाता है। आत्मिक चेतना समाप्त हो जाती है और वंशानुक्रम का जीवाणुवाद ही शेष रह जाता है। इसके उपरान्त मनुष्य के लिए निर्धारित नीति मर्यादा के सारे नियम छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। मनुष्य यदि हँसने वाला पशु और चलने वाला पौधा है तो उसे आवश्यकतानुसार कुछ भी करने की छूट मिल जाती है। फिर कर्त्तव्य अकर्तव्य का कोई विवेचन शेष नहीं रहता। पशु प्रवृत्तियों में से अधिकांश ऐसी हैं जो मानवी सभ्यता में तनिक भी तालमेल नहीं खाती। पशु अपना पेट कहीं भी दिखने वाली हरियाली को देखकर भरने चल पड़ता है। उसे यह ज्ञान नहीं कि यह खेत किसी ऐसी विधवा का है जिसके छोटे बच्चे इसी फसल से पलेंगे। फिर वह दूरदर्शिता और उपयोगी दूरदर्शिता को भी छोड़ बैठेगा और भावनात्मक भी न रहेगा। अन्य प्राणियों में किसी भी नर-मादा के साथ यौन संपर्क साधने की छूट है। यदि मनुष्य भी एक पशु है तो उसे भाई-बहिन, माता पुत्र जैसे पवित्र रिश्तों की क्या आवश्यकता रह जायगी। फिर वह भी क्यों अन्य प्राणियों की तरह स्वच्छन्द यौनाचार बरत कर परिवार संस्था को समाप्त क्यों न कर लेगा?
कर्मफल का सिद्धान्त केवल मनुष्य पर ही लागू होता है। अस्तु वह तात्कालिक लाभ के लिए ललचाते समय भावी परिणामों की बात भी सोचता है। स्वर्ग नरक भी उसकी दृष्टि में रहता है और सामाजिक यश अपयश भी प्रभावित करता है। ऐसी ही अनेक विशेषताएँ मनुष्य की हैं। आस्तिक भी वही होता है और ज्ञान, कर्म-भक्ति को विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए संयम अनुशासन के अनेकानेक वचन अनुशासन अपने ऊपर स्वेच्छापूर्वक लगाता है। यदि तथाकथित विकासवाद के सिद्धान्त को मान्यता दी जाय तो फिर इस संसार में “जिसकी लाठी-उसकी भैंस” का सिद्धांत ही सर्वत्र अपनाया जाने लगेगा और बड़ी मछली छोटी को खाने लगेगी।
ऐसी दशा में मानवी स्नेह सहयोग का आधार क्या रह जायेगा? उचित अनुचित का विश्लेषण कैसे हो सकेगा। ऐसी दशा में वन-मानुषों की बिरादरी में ही सारा मनुष्य समुदाय सम्मिलित हो जायेगा। तब न्याय, प्रेम, सहयोग, देश भक्ति, परमार्थ, आत्म-संयम जैसे सिद्धान्तों का भी सहज परित्याग चल पड़ेगा।
विकासवाद में पुरातत्व की प्राणि विकास की खोज ही सीमित नहीं है पर उसकी प्रतिक्रिया अत्यधिक भयंकर है। वह मनुष्य की संचित सभ्यता को पूरी तरह छीन सकती है फलतः प्रगति का द्वार भी रोक सकती है। भ्रष्टाचार और अनाचार की तो पूरी छूट मिलेगी ही।
इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए काल्पनिक विकास वाद को किसी की अभिभूत और अप्रामाणिक कल्पना का घुड़-दौड़ मात्र ही समझा जाना चाहिए।
आत्म गौरव, आत्म-सम्मान, इतिहास, सभ्यता, संस्कृति की दुहाई देने वाले, अपने को सृष्टि का मुकुटमणि और सृष्टा का ज्येष्ठ पुत्र मानने वाले मनुष्य के लिए यह बड़ी लज्जा की बात होगी कि डार्विन के मतानुसार वह अपने महान पूर्वजों को बन्दर कहे। यदि इस मान्यता ने जोर पकड़ा तो हमें निर्वस्त्र होकर रहने में भी क्या लज्जा लगेगी और शिक्षा, दर्शन आदि की क्या उपयोगिता शेष रहेगी।