
संगीत सृष्टि का भाव भरा उल्लास
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संगीत में ध्वनि तरंगों के कितने ही मोड़-तोड़ और घुमाव ऐसे होते हैं जो उन्हें एक विशेष प्रकार के प्रवाह में निस्सृत करती हैं। ताल वाद्यों का भी क्रम साथ-साथ चलने पर अपने तरह के ‘‘रिद्म’’ बनते हैं। न केवल तरंग प्रवाह वरन् ‘‘रिद्म’’ क्रम का समावेश होने से ध्वनि तरंगों का एक ऐसा विशिष्ट उपक्रम बन पड़ता है जो न केवल चेतन वरन् जड़ को भी प्रभावित करता है।
लोहे के पुलों पर सैनिकों को कदम मिलाकर चलने की मनाही होती है। कारण कि उस संयुक्त ताल बद्धता में पुल के टूट गिरने का खतरा रहता है। इतना ही नहीं एक विशिष्ट प्रकार के रिद्मों में मकानों की छतों में लगे हुए लोहे के गर्डर टूट गिर सकते हैं। इसी प्रकार ताल या सप्त सुरों के अनुरूप उत्पन्न हुआ स्वर प्रवाह ही धातुओं, इमारतों तक को प्रवाहित करता है। इन उपक्रमों से जलाशय तक प्रभावित हो सकते हैं।
सचेतनों पर तो संगीत का जो प्रभाव पड़ता है उसका तो कहना ही क्या? वनस्पतियों पर उसका बहुत अच्छा प्रभाव पाया गया है। पौधे अधिक तेजी से बढ़ते हैं, और फसल का उत्पादन भी अधिक होता है। संगीत के रिकार्ड बजाकर कृषि और बागवानी दोनों पर ही उस प्रभाव का लाभ उठाया जा रहा है।
जल-जन्तुओं को स्तब्ध एवं आकर्षित करने की संगीत की क्षमता भी वैज्ञानिक कसौटियों पर कसी और खरी पाई गई है। मछलियाँ मोहित होकर भाग-दौड़ बन्द कर देती हैं और मछुओं के जाल में आसानी से फँस जाती हैं। मछलियों की प्रजनन शक्ति भी अधिक बढ़ जाती है। वे उन अण्डों में बर्बाद कम होती हैं और पकती अधिक हैं।
पक्षियों में यह प्रभाव मुर्गियों और कबूतरों पर जाँचा गया है। संगीत के शौकीन पक्षी उत्तेजित होते हैं। उनकी अभिवृद्धि और कुशलता में बढ़ोत्तरी होती है। वे अण्डे संख्या में और भार में अधिक होते हैं इसलिए उस वातावरण में पलने वाले पक्षी जहाँ जल्दी प्रौढ़ होते हैं वहाँ उनकी प्रजनन शक्ति भी बढ़ती है। बतखों पर भी यह प्रयोग सफल हुआ। उन्हें भी इस प्रभाव से प्रभावित होने का अवसर मिलता है।
पाश्चात्य देशों में गायों को दुहते समय उन्हें संगीत के रिकार्ड सुनाकर तन्मय किया जाता है। फलतः अधिक दूध मिलता है। भेड़ बकरियों के सम्बन्ध में भी यह बात है। मात्र भैंस ही ऐसा कम बुद्धि वाला जानवर है जिस पर संगीत का कम प्रभाव पड़ता है। विदेशों के चिड़ियाघरों में यह प्रयोग बहुत सफल रहा है कि उदास रहने वाले जानवरों को प्रसन्न रखने के लिए उन्हें समय-समय पर संगीत रिकार्ड सुनाये जाते रहें। हाथी, घोड़े जैसे बुद्धिमान समझे जाने वाले प्राणी इसमें बहुत रस लेते और खुश रहते हैं।
सपेरे बीन के आधार पर ही उनका तमाशा दिखाते हैं और इस आधार पर उन्हें बिलों से बाहर निकालकर पकड़ भी लेते हैं। हिरनों को वेणुवादन की कला से मुग्ध करके उन्हें पकड़ने की कला बहेलिये लोग जानते थे और जाल बिछाकर पकड़ने के आदी थे। जो इस कला को जानते थे वे इसी उपाय को अपनाने में सरलता अनुभव करते थे।
कहा तो यहाँ तक जाता है कि बुझे हुए दीपकों को जलाने में दीपक राग और बादलों को बरसाने में मेघ मल्हार बहुत हद तक सफल होता था। आज की परिस्थितियों में यह कहाँ तक सफल होगा, कहा नहीं जा सकता।
संगीत की उपयोगिता इसी हद तक सीमित नहीं है कि वह मनुष्यों के मनोरंजन के साथ-साथ भावना तरंगित करने का आनंदन भी देता है। वरन् इसमें भी है कि उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन पर रोग निवारण पर, अच्छा असर पड़ता है और उसे एक विशेष चिकित्सा पद्धति के रूप में भी विकसित किया जा सकता है। उससे दुर्बलता सुधारने में और रोग कीटाणुओं को नष्ट करने में सहायता मिलती है। संगीत एक बलवर्धक टॉनिक भी है।
अनिद्रा दूर करने में संगीत उपचार बहुत कारगर सिद्ध हुआ है। बच्चों को सुलाने के लिए पुरातन काल की माताएँ लोरियाँ गाया करती थीं। अब उस झंझट से बचने के लिए हलके संगीत रिकार्ड लगा दिए जाते हैं। इतना ही नहीं, जिन वयस्कों को भी देर में नींद आती है उनके लिए बिना गीत का संगीत जिसमें ध्वनि तरंगें ही काम करती हों, एक उपयोगी सिद्ध हो रहा है। शिकागो के डाक्टर मैकमूलर ने तो मानसिक रोगों की चिकित्सा प्रक्रिया में संगीत का ही एक माध्यम बनाया और अच्छी ख्याति प्राप्त की है। डाक्टर ऐटकिसन का वह तरीका इस उपचार के सामने फीका पड़ गया है। जिसमें वे अनिद्रा के रोगियों को एक से दस तक गिनती-गिनने की पुनरावृत्ति करते हुए ऐसे रोगियों का उपचार किया करते थे। आध्यात्मिक चिकित्सा में राम या ॐ जैसा मानसिक जप करने पर भी जल्दी नींद आने की बात कही है। कुछ लोग पुस्तकें पढ़ते ही नींद आ धमकने की बात कहते हैं।
सर्दी या गर्मी का ऋतु प्रभाव बढ़ने पर कई प्रकार के रोग खड़े होते हैं। जाड़े के दिनों में खाँसी, जुकाम, दर्द, निमोनिया आदि की शिकायतें खड़ी होती हैं। गर्मी में लू मारना, भूख न लगना, शिर दर्द, अनिद्रा, जलन आदि की व्यथाएँ खड़ी होती हैं इनके लिए उन रोगों के अनुरूप ध्वनि तरंगों का प्रयोग वैज्ञानिकों ने किया है और उनका सत्परिणाम सामान्य दवा-दारु की अपेक्षा कम नहीं, अधिक प्रभावोत्पादक ही पाया है।
चित्त की एकाग्रता के लिए, भाव समाधि के लिए नाद ब्रह्म का उपाय सरलतम और नवीनतम उपचार है। प्राचीन काल के योगी जन अन्तरिक्षीय दिव्य ध्वनियों का सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को जागृत करके सुना करते थे। अब वह कार्य स्थूल ध्वनि प्रवाहों में भी सम्भव हो गया है। इस प्रकार ध्यान धारणा के निमित्त अब कई विशिष्ट प्रकार के ध्वनि प्रवाहों का सफल प्रयोग किया जा सकता है। इसमें अपेक्षाकृत सरलता भी रहती है। यह नादब्रह्म की साधना है।
हर्षोल्लास के वातावरण को कई गुना बढ़ा देने की क्षमता संगीत में है। यही कारण है कि त्यौहारों, संस्कारों, पर्वों पर विशेष रूप से गीत वाद्यों का आयोजन किया जाता है। विवाह शादियों में महिलाएँ इसी प्रयोजन में विशेष रूप से दत्त-चित्त रहती हैं और अपनों तथा उपस्थित जनों का मन प्रफुल्लित करती हैं। पुरुष गायक भी अपने अनुभवों के आधार पर इस विद्या का अपने ढंग से उपयोग करते हैं और उल्लास की अभिवृद्धि में सहायक होते हैं।
कुछ पक्षी अपनी कर्णप्रिय मधुरता के लिए प्रख्यात हैं। कोयल की कूक, मोर का उद्घोष, भ्रमरों का गुँजन-सभी प्रसिद्ध हैं। झींगुर की झंकार ही नहीं, मेंढकों की टर्र-टर्र भी प्रकृति के अन्तराल को उत्तेजित करती है और श्रवण कर्ताओं का मन मोहती है। इस प्रकार के और भी अनेक पक्षी हैं, जिनके कलरव से सृष्टि के आनन्ददायक तत्वों का अभिवर्धन होता है। उससे सभी जड़ चेतन प्रभावित होते हैं।
वैज्ञानिकों के मतानुसार मानवी संरचना के निकटवर्ती प्राणियों में बन्दर, खरगोश प्रमुख हैं। चूहों की संरचना में ही मनुष्य संरचना से बहुत कुछ समानता मिलती है। इस आधार पर संगीत के प्रभाव को जाँचने के लिए उपरोक्त जंतुओं पर विशेष रूप से परीक्षण किये गये हैं। इन परीक्षण कर्ताओं में डा. जार्ज फैर विल्सन अग्रणी रहे हैं। उनके प्रकृति भेद से पृथक-पृथक संकेतों का प्रभाव जाँचा और कहा है कि यदि सही चुनाव बन पड़े तो यह प्राणी विभिन्न स्तर के लाभ संगीत द्वारा उठा सकते हैं। उनकी अभिवृद्धि और प्रसन्नता में निश्चित रूप से उत्साहवर्धक प्रभाव पड़ता है।
कई प्राणियों को कई संगीतों के प्रति 34 दिन के अभ्यास से इस प्रकार प्रशिक्षित किया जा सकता है कि उनकी प्रिय ध्वनि तरंगें निस्सृत हो जान पर वह भोजन की तलाश की बात को भी छोड़कर उस मधुर स्वर को सुनने के लिए अत्यन्त आतुर होते हैं। ध्वनि बन्द हो जाने पर अप्रसन्नता और खीज प्रकट करते हैं। देखा गया है कि प्राणी प्रायः उस स्वर को अधिक पसन्द करते हैं जो उनके अपने स्वर से मिलता-जुलता हो।
वनमानुष, चिंपेंजी, गोरिल्ला जाति के बन्दर मनुष्य जैसे स्वभावों के अभ्यस्त होते हैं। उन्हें प्रिय संगीत सुनाकर उत्साहित किया जा सकता है। उस वर्ण के प्राणियों को वंशी और वायलिन का स्वर अन्य वाद्य यन्त्रों की तुलना में अधिक पसन्द आता है।
दरियाई घोड़ा और गेंडा अपनी गहरी नींद के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हें बेचैन करने वाली भूख ही नींद से उठा सकती है। उनके जगाने में संगीत का बहुत अच्छा प्रभाव होता देखा गया है। वे सुनते ही चौकन्ने हो जाते हैं और इधर-उधर भागने की अपेक्षा अपने स्थान पर बैठे-बैठे तब तक संगीत सुनते रहते हैं जब तक कि वह बन्द नहीं हो जाता। सरोद वादन पर तो उन्हें मुँह बांये झूमता हुआ देखा गया है। हाथी घोड़ों को वाद्य यन्त्रों की ध्वनि पर नाचता देखा गया है। रीछ बन्दर भी इसी का अनुसरण करते हैं। वन बिलावों को पाइप बैण्ड अन्य वादनों की अपेक्षा अधिक उत्साह प्रदान करते देखा गया है। मगर घड़ियालों को भी संगीत सुनने का डडडड चस्का पड़ जाता है, तब वे भी लहराने लगते हैं और अपनी अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इसी प्रकार कुत्तों और लोमड़ियों को भी प्रभावित होते देखा गया है।
विचारणीय है कि जब सामान्य पशु-पक्षी, साँप, बिच्छू तक संगीत से प्रभावित होते हैं तो उसका प्रभाव मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी पर क्यों न पड़ेगा। यह प्रभाव प्रायः उपयोगी ही सिद्ध होता है।
संगीत उच्चकोटि की कला है। उसमें उत्साह और उल्लास बढ़ाने वाले तत्व बड़ी मात्रा में हैं। संगीत बदनाम तो इसलिए हुआ है कि उसके साथ अश्लीलता जुड़ती चली गई और वह बुराई बढ़ते-बढ़ते इस हद तक पहुँची कि कामुकता और संगीत कला एक दूसरे के साथ बुरी तरह गुंथ गई। दूध में मक्खी पड़ जाने पर वह पूरा लोटा भर दुग्ध खराब हो जाता है। संगीत की भी इन दिनों ऐसी ही दुर्गति हुई है और उसे मनचलों का व्यसन माना जाने लगा है।