
स्वास्थ्य सुधार के लिए रंगों की उपयोगिता
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मनुष्य के शरीर और मन पर रंगों का सुनिश्चित प्रभाव पड़ता है। रंगे कपड़े, पुते मकान में जो रंग मिला होता है, वे अपना प्रभाव छोड़ते हैं। काँच के माध्यम से सूर्य किरणों को शरीर पर लिया जाय या रंगीन काँच की बोतल को धूप में छः घंटे रखकर उस पानी को दो-दो घंटे बाद पिया जाय तो उसका प्रभाव भी रंग के अनुसार आरोग्य प्रदान करने में काम आता है।
लाल रंग गर्मी उत्तेजना उत्साह का प्रतीक है। उसे ठण्डक, उदासीनता मन्दगति के निवारण में प्रयोग करना चाहिए।
नीला रंग शीतल है। शान्तिदायक है। निद्रा लाता है। बेचैनी दूर करता है।
पीला रंग पाचक है। मल विसर्जन में, पसीना लाने में, मानसिक उद्विग्नता में काम आता है। नेत्रों की ज्योति बढ़ाता है।
अन्य रंग इन तीन के सम्मिश्रण से बनते हैं। इसलिए उनके गुण भी उसी अनुपात में परिवर्तित होते रहते हैं। जैसे नीला और पीला मिलने से हरा बनता है। पीला और लाल मिलने से नारंगी होता है। इनमें न्यूनाधिकता भी होती है। जो रंग ज्यादा होगा उसका प्रभाव अधिक पड़ेगा और जो मात्रा में कम होगा उसका असर कम रहेगा। किस काम में प्रयोग करना है, इसी आधार पर रंगों को यथावत भी लिया जा सकता है और उनका न्यूनाधिक मात्रा में मिश्रण भी किया जा सकता है।
“इंटर नेशनल जर्नल आफ वायोसोशल रिसर्च” में प्रकाशित एक लेख में ऐसे अनेकों प्रयोगों का वर्णन है जिनमें विद्यालय एवं दफ्तरों की दीवारों में रंगों की पुताई में प्रयोग करके अभीष्ट लाभ प्राप्त किया गया और जो कठिनाई रहती थी उसे दूर किया गया।
अमेरिका के इन्स्टीट्यूट फार वायो स्पेशल रिसर्च के डायरेक्टर एलेगजेन्डर चास ने भी रंगों के आधार पर मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में हेर-फेर होने की बात स्वीकार की है और इसके अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।
सोवियत संघ में कोयला खदानों में काम करने वाले श्रमिकों की वर्दियां गहरे नीले रंग की बनवायी गई हैं और देखा गया है कि कोयले की धूल का जो दुष्प्रभाव पड़ना चाहिए वह इस परिवर्तन से कम हो गया। इसी प्रकार वहाँ अधिक गर्मी वाले कारखानों में हरे रंग का जहाँ जितना सम्भव है वहाँ उतना प्रयोग किया गया।
होटलों में जहाँ अधिक मात्रा में खाने पर लाभ समझा जाता है वहाँ नारंगी रंग के मेजपोश बिछाये जाते हैं और जहाँ कम खाने से लाभ है वहाँ आसमानी या सिलेटी कपड़े बिछाये जाते हैं।
शोधकर्ताओं का कथन है कि रंगों का प्रभाव मस्तिष्क के महत्वपूर्ण भागों पर विशेष रूप से पड़ता है और वहाँ से फिर उसी प्रकार की प्रेरणा सारे शरीर के लिए चल पड़ती हैं।
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से स्रावित होने वाले हारमोन इन रंगों के प्रभाव से अपनी क्षमता में रगों की चुम्बकीय शक्ति से न्यूनाधिक होते और अपने प्रभाव में परिवर्तन करते हैं। मस्तिष्क की पिट्यूटरी और पीनियल ग्रन्थियों पर रंगों का प्रभाव प्रत्यक्ष देखा गया है। हाइपोथैलमस क्षेत्र को इसी आधार पर उत्तेजित और शान्त होते देखा गया है। यही कारण है जो दुर्बलता और रुग्णता का निवारण करने में सहायक होते हैं।
छोटे बच्चों के लिए यह प्रयोग प्रक्रिया विशेष रूप से उपयोगी है। क्योंकि उनकी प्रकृति अधिक कोमल होती है उस पर तीखी औषधियों की ऐसी प्रतिक्रिया होती है जो लाभ के स्थान पर हानि भी कर सकती है। यही बात गर्भिणी स्त्रियों के सम्बन्ध में भी है। उन दिनों उनकी प्रकृति विशेष रूप से नाजुक रहती है वे तीखी औषधियों का प्रभाव सहन नहीं कर पाती। उदरस्थ बच्चे के ऊपर माता के खान-पान तक का-मानसिक उद्विग्नता तक का प्रभाव पड़ता है तो तीखी औषधियाँ क्यों प्रभाव न डालेंगी। इसलिए जहाँ सौम्य चिकित्सा की आवश्यकता है वहाँ रंगों का प्रयोग करना चाहिए।
जर्मन एकेडेमी ऑफ कलर साइन्स के निर्देशक हेरोल्ड बोल फर्थ ने प्रयोगों के सम्बन्ध में अपना अभिमत निश्चित कर लेने के उपरान्त इन प्रयोगों की विशेषतया बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर ही किया। उनका कथन है कि कोमल एवं संवेदनशील प्रकृति वालों के लिए रंगों के माध्यम से उनका उपचार करना अधिक उपयुक्त एवं सुरक्षित है।
मौसमी फूल हर मौसम में हर रंग के खिलते हैं। इनमें से जो रंग अपने लिए उपयुक्त हो उसे अपने आँगन में या गमलों में बोना खिलाना चाहिए। इन्हें रोगी के समीप रखने से उनका प्रभाव पड़ता है।
शाक भाजी और फल भी विभिन्न रंगों के मिलते हैं। उनमें भी रंग के अनुरूप प्रभाव पाये जाते हैं। इसलिए इनके चुनाव में भी सेवन कर्ता की प्रकृति तथा आवश्यकता का ध्यान रखना चाहिए।
स्विट्जरलैंड में रंग चिकित्सा का प्रचलन सबसे अधिक है। वहाँ पहाड़ी क्षेत्रों में क्रोमोपैथी के कितने ही चिकित्सालय बने हुए हैं जिनमें फ्रेम लगी एक व्यक्ति के बैठने या लेटने योग्य कोठरियाँ बनी हुई हैं। जिनमें गहरे या हलके रंग के काँच अदल-बदल कर लगाये जा सकते हैं। उनमें रोगी एकाकी नंगे बदन बैठते हैं और रंग में छनकर आया हुआ सूर्य प्रकाश शरीर पर लेते रहते हैं। विशेषतया उस अवयव पर जो रुग्ण है। जो अंग प्रकाश से बचाना हो उस पर कपड़ा तानकर छाया कर दी जाती है। तेज धूप में गहरे रंग के और हल्की धूप में हलके रंग के काँच लगाये जाते हैं ताकि प्रकाश और गर्मी का सन्तुलन सही बना रहे। ऐसे केबिन कहीं भी बनाये जा सकते हैं और रुग्ण अवयवों पर पन्द्रह मिनट से लेकर आधे घंटे तक सूर्य किरणों का प्रकाश पहुँचाया जा सकता है।
हलके कपड़े रंग कर पहनाना और सूर्य की खुली धूप में टहलना भी इस चिकित्सा पद्धति का अंग है। इसके लिए प्रातःकाल का समय ही उपयुक्त है। धूप तेज होने लगे तो सिर को तौलिये से ढक लेना चाहिए।
रत्न धारण करने की परिपाटी इसी चिकित्सा का अंग है। यों ग्रह शान्ति के हिसाब से ज्योतिषी लोग नवग्रहों के आधार पर नौ रंगों में से किसी को धारण करने की सलाह देते हैं पर जहाँ तक चिकित्सा का सम्बन्ध है और सामान्य आर्थिक स्तर की बात है वहाँ साफ-सुथरे पारदर्शी रंगीन कांचों का धारण करना भी लाभदायक होता है। इन्हें इस प्रकार पहनना चाहिए कि उन्हें स्पर्श करती हुई सूर्य किरणें शरीर का स्पर्श कर सकें। सोने में या किसी धातु में जड़ कर उन्हें पहनने का इस दृष्टि से कोई तुक नहीं है।
खिड़कियों के दरवाजे ऐसे लगाये जाँय जिनमें सफेद या रंगीन काँच इच्छानुसार अदल-बदल कर लगाये जा सके। दरवाजों पर लटकाये जाने वाले पर्दों के सम्बन्ध में यही बात है उनके रंगों का चुनाव करते समय अपनी आवश्यकता को विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिए।
मानसिक शान्ति के लिए आमतौर से नीले या हरे रंग का प्रयोग किया जा सकता है। रात्रि को सोते समय हल्की रोशनी के बल्ब लगाकर कमरे में जलते रहने दिये जाँय तो उनका प्रभाव पड़ता है। पढ़ना लिखना हो तब तो सफेद बल्ब ही काम देते हैं अन्यथा ऐसे ही केवल प्रकाश की जरूरत हो तो रंगीन बल्ब अच्छे लगते हैं। उनसे आँखों पर तेज चमक भी नहीं पड़ती और कीड़े मच्छर भी कम आते हैं स्वस्थ स्थिति में सफेद कपड़े पहनाना ही ठीक है अन्यथा उद्देश्य विशेष के लिए महिलाओं एवं बच्चों को रंगीन किन्तु हलके कपड़े पहनाने चाहिए ताकि हवा और धूप को शरीर तक पहुंचने में अड़चन न पड़े। गर्भिणी स्त्रियों को पीला रंग अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। यह समस्त उपक्रम पूर्णतः विज्ञान सम्मत हैं इसे चिकित्सक गण भी स्वीकार कने लगे हैं।