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Magazine - Year 1985 - Version 2

Media: TEXT
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गायत्री सर्वतोमुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

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First 53 55 Last
इस विश्व में दो शक्तियाँ काम करती हैं- एक चेतन और दूसरी जड़। जड़ पदार्थ देखने में ही स्थिर प्रतीत होते हैं, पर उनमें भी अद्भुत क्रियाशीलता विद्यमान है। परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है। वह चर्मचक्षुओं से स्थिर स्तब्ध दिखाई पड़ता है, पर जब सशक्त सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से उनकी अन्तरंग स्थिति को देखा जाता है तो प्रतीत होता है कि परमाणु में कितनी प्रचण्ड शक्ति और द्रुतगामी हलचल भरी पड़ी है। अणु विश्लेषण, अणु विस्फोट के प्रयोगकर्ता जानते हैं कि पदार्थ का सबसे छोटा यह घटक भी अपने भीतर कितनी भयंकर क्षमता दबाये हुए है और वह क्षमता स्थिर न रह कर कितनी सक्रिय हलचलों में संलग्न है अणु भट्टियों से उत्पन्न ताप द्वारा जो विशालकाय विद्युत उत्पादन योजनाएँ चल रही हैं और अणु आयुधों द्वारा संसार भर का सर्वनाश करने की जो विभीषिका सामने खड़ी है, उसके मूल में परमाणु के अन्तराल में काम करने वाली प्रचण्ड सक्रियता ही मूल कारण है।

परमाणु की तरह दूसरा घटक है- जीवाणु। जीवाणु का शरीर कलेवर तो रासायनिक पदार्थों से ही बना होता है, पर उसकी अन्तःचेतना मौलिक है जो पदार्थ की शक्ति से उत्पन्न नहीं होती, पर अपने प्रभाव से कलेवर को तथा समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है। इसे चेतना कहते हैं। चेतना के दो गुण हैं, एक इच्छा एवं आस्था दूसरी विवेचना एवं विचारणा है। एक को अंतरात्मा दूसरी को मस्तिष्क कह सकते हैं। मस्तिष्क जो सोचता है उसके मूल में आकाँक्षा, आस्था, विवेचना एवं विचारधारा की सम्मिलित प्रेरणा ही काम करती है। इस जीव चेतना को परा प्रकृति कहते हैं।

परमाणु सृष्टि का सबसे छोटा घटक है, इसका संयुक्त रूप ब्रह्माणु या ब्रह्मांड है। व्यष्टि और समष्टि के नाम से भी इस लघुता और विशालता को जाना जाता है। जीवाणु की चेतना सत्ता आत्मा कहलाती है और उसकी समष्टि विश्वात्मा अथवा परमात्मा है। ब्रह्मांड में भरी क्रियाशीलता से परमाणु प्रभावित होता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि परमाणुओं की संयुक्त चेतना ब्रह्मांड-व्यापी हलचलों का निर्माण करती है। इसी प्रकार चेतना के क्षेत्र में इसी तथ्य को परमात्मा द्वारा आत्मा को अनुदान मिलना अथवा आत्माओं की संयुक्त चेतना के रूप में परमात्मा का विनिर्मित होना कुछ भी कहा जा सकता है।

परमाणु का गहनतम विश्लेषण करने पर जाना गया है कि वह मूलतः ऋण और धन विद्युत प्रवाहों में उतना ही समृद्ध सम्पन्न बनता जाता है। इस विश्व में बिखरी हुई शोभा सम्पन्नता को उसी महाशक्ति का इन्द्रियों से अनुभव किया जा सकने वाला स्वरूप कह सकते हैं। इसकी चर्चा इस प्रकार हुई है-

ईश्वरोऽहम् च सूत्रात्माविराडात्माऽहमस्मि च। ब्रह्माऽहम् विष्णु रुद्रौ च गौरी ब्राह्मी च वैष्णवी सूर्योऽहम् तारकाश्चाहं तारकेशस्तथाऽम्यहम्। यच्च किंचित्वचिद्वस्तु दृश्यते श्रू यतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्याहम् सर्वदा स्थिता॥

अपश्यस्ते महादेव्या विराड् रूपं परात्परम्। द्यौर्मस्तकं भवेद्यस्य चन्द्रसूर्यौ च चक्षुषी॥

दिशः श्रौत्रे वचो वेदाः प्राणोवायुः प्रकीर्तितः। विश्व हृदयमित्याहुः पृथ्वी जघन् स्मृतम्।

नभस्तल नाभिसरो ज्योतिश्चक्रमुरःस्थलम्। महर्लोकस्तु ग्रीवा स्याज्जनलोको मुख स्मृतम्।

तपोलोको रराटिस्तु सत्यलोकादधः स्थितः। इन्द्रादयो बाहवः स्युः शब्दः श्रोत्रं महेशितुः।

नासत्यदस्त्रौ नासे स्तो गन्धो घ्राणं स्मृतो बुधैः। मुखमग्नि समाख्यातो दिवारात्री च पक्ष्मणी।

एतादृशं महारूपं ददृशुः सुरपुंगवाः। ज्वालामालासहस्त्राढ्य लेहिना च जिह्वया।

सहस्त्रशीर्षनयनं सहस्त्रचरणं तथा। कोटि सूर्यप्रतीकाश विद्युत्कोटिसमप्रभम्। भयंकरं महाघोरं हृदक्ष्णोस्व्रासकारकम्। -देवी भागवत

मैं ही अणु, मैं ही विभु हूं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, गौरी, ब्राह्मी, वैष्णवी मैं ही हूँ। सूर्य, चन्द्र, तारागण मैं ही हूँ। जो कुछ भी दिखाई पड़ता है या सुना जाता है जो कुछ भीतर बाहर है उस सब में मैं ही व्याप्त हूँ।

देवताओं ने उसका विराट् रूप देखा। उसका मस्तक- आकाश, सूर्य-चन्द्रमा- नेत्र, दिशायें कान, वेदवाणी, वायु- प्राण, विश्व- हृदय, पृथ्वी- जंघा, पाताल- नाभि, महःलोक- ग्रीवा, जनःलोक- मुख, सत्यलोक- अधः, तपोलोक- ललाट, इन्द्र- बाहु, शब्द- कान, अश्विनी कुमार- नासिका, गन्ध- नासिका, दिन-रात पलकें देखी।

देवताओं ने भगवती के ऐसे विराट् रूप के दर्शन किये। उसके शरीर में से असंख्य ज्वालाएँ निकल रही थीं। उसके हजारों सिर, हजारों नेत्र, हजारों चरण थे करोड़ों सूर्यों और बिजलियों जैसी दीप्ति निकल रही थी।

शक्तिवान के साथ शक्ति जुड़ी होती है। यह ब्रह्म शक्ति का समन्वय युग्म है। प्रत्येक शक्तिवान की सामर्थ्य को उसी संव्याप्त क्षमता का स्वरूप कहा जा सकता है। इसे पति-पत्नि के रूप में उदाहरणों सहित चित्रित किया गया है। समर्थों की सामर्थ्य के रूप में, विशिष्टों की विशेषता के रूप में इस महाशक्ति के दर्शन स्थान-स्थान पर किये जा सकते हैं। इसका अलंकारिक वर्णन देवी भागवत में इस प्रकार हुआ है।

संसार में जितने भी अभाव और कष्ट हैं, जितनी भी आधि-व्याधियाँ हैं उन सबको शक्ति की न्यूनता का प्रतिफल ही कहा जाना चाहिए। आत्मशक्ति के अभाव में सुख साधनों से वंचित रहना पड़ता, अस्तु शक्ति संयम के निरन्तर प्रयत्न करने चाहिए कि भौतिक समर्थता किस प्रकार प्राप्त होती है। इसे सब जानते हैं, पर आत्मिक तेजस्विता किस प्रकार पाई जा सकती है, इसका मार्ग अध्यात्म विज्ञान में बताया गया है। गायत्री साधना उसी के लिए की जाती है। शक्ति के अभाव में दुर्बलता ओर दुर्गति होने की चर्चा इस प्रकार आती है-

अनुमानमिदं राजन्कर्तव्य सर्वथा बुधैः। दृष्ट्वा रोग युतान्दीनाक्षन्क्षु धितान्निर्धनांछढान्।

जनानातीस्थक्षा मूर्खान्पीड़ितान्वैरिभि सदा। दासानाज्ञा करान्क्षु द्रनिह्वलानथ।

अतप्तन्भोजने भोगे सदार्तानजितेन्द्रियान्। तष्णाधिकानशक्तीश्च सदाधिपरिपीड़ितान्॥ -देवी भागवत

अर्थात्- हे राजन्! तुम कहीं पर लोगों को रोगी, दीन, दरिद्र, भूखे, प्यासे, शठ, आर्त, मूर्ख, पीड़ित, पराधीन, क्षुद्र, विकल, विह्वल, अतृप्त, असन्तुष्ट, इन्द्रियों के दस अशक्त और मनोविकारों से पीड़ित देखो तो समझना इन्होंने शक्ति का महत्व नहीं समझा और उसकी उपेक्षा अवहेलना की है।

गायत्री उपासना आत्मशक्ति अभिवर्धन का सरल किन्तु श्रेष्ठतम उपाय है। जो इसके लिए प्रयत्न करते हैं वे समर्थ, सफल और सार्थक जीवन जीकर धन्य बनते हैं।

First 53 55 Last


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Type: TEXT
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