
मनस्विता के विकास की आवश्यकता
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मनुष्य को प्राणि वर्ग में श्रेष्ठ और सर्वोत्तम इसलिए नहीं माना गया है कि वह अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान और साधन सम्पन्न है। यह विशेषता तो अन्य प्राणियों को भी उनकी संरचना एवं आवश्यकता के अनुरूप मिली हुई है।
मनुष्य इसलिए श्रेष्ठ है कि वह प्रकृति से लड़ सकता है। उसे बदल और इच्छानुरूप गढ़ सकता है। प्रकृति के अन्तराल में घूमकर उसके रहस्यों का पता लगा सकता है और उन्हें अपने अनुरूप बना सकता है।
यह चर्चा मात्र पदार्थ जगत के संदर्भ में ही नहीं हो रही है वरन् उस प्रकृति के सम्बन्ध में भी हो रही है जो उसकी सीमा में ओत-प्रोत है। सीमा का तात्पर्य है शरीर मन, सघन और सम्बद्ध समुदाय। यह किस रूप में उसे मिले यह भौतिक प्रकृति का खेल है अधिक से अधिक यह कह सकते हैं कि यह सब उनकी परिस्थितियों अथवा भाग्य रेखाओं के अनुरूप है। इतना सब होते हुए भी मनुष्य उन्मुक्त है। विशिष्ट एवं मौलिक है। वह उस सबको जो हस्तगत है बहुत कुछ बदल सकता है। बहुत कुछ ही नहीं, आमूल-चूल भी।
सीमाएं उसे बाँधती नहीं। वह अपने कौशल के बल पर सीमाओं को तोड़ एवं मरोड़ सकता है। प्रकृति ने उसे प्राणि समुदाय से मिलती-जुलती प्रकृति एवं संरचना प्रदान की है। अन्य प्राणी इस बन्धन से अवरुद्ध हैं। वह न अपनी प्रकृति को तोड़ या छोड़ सकते हैं वरन् सिर झुकाकर अनुशासन मानते हैं और जिस भी स्थिति में नियति ने उसे रहने के लिए बाधित किया है, उसी में रहकर जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं। किन्तु मनुष्य है जो अपनी आन्तरिक प्रकृति को पाशविक स्तर की न रहने देकर बहुत ऊँचा उठा सकता है। महामानव एवं ऋषि कल्प बना सकता है। साथ ही यह भी हो सकता है कि अपने को इतना गिरा ले कि उसकी तुलना में हिंस्र पशु भी पीछे रह जाते हैं। वह छल-छद्म के सहारे अनेकानेक जीवितों के शरीर में उनका रक्त इस प्रकार चूस सकता है कि उन्हें पता भी न चले-बुरा भी न लगे और हाय कहने के लिये मुँह भी न खुले। नर पशु तो वह प्रकृतितः है पर यदि वह चाहे तो नर पिशाच भी बन सकता है।
यह हुआ चेतनात्मक प्रकृति की तोड़-मरोड़। शरीर के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह क्षय के रोगी से उछलकर चन्दगीराम पहलवान बन सकता है। जुकाम से सदा ग्रस्त रहने वाले से विश्व विख्यात सेण्डो बन सकता है। वह संकल्प शक्ति के बल पर माँस पेशियों को लोहे जैसी बना सकता है। साँस रोक सकता है और हृदय की धड़कन पर नियन्त्रण करके समाधिस्थ हो सकता है। मुख सज्जा जितनी समस्त श्रृंगारों से मिलकर हो सकती है, उससे असंख्य गुनी अधिक सुन्दरता वह मुसकान, मस्ती और खिलखिलाहट के आधार पर अर्जित कर सकता है।
साथ ही यह भी हो सकता है कि संरचना आकर्षक होते हुए भी प्रकृति के अनुरूप उसे कुरूप, कर्कश और घिनौनी बना ले। यह भी हो सकता है कि उसे आलस, प्रमाद, असंयम के आधार पर रोगों का घोंसला बना दे और रोते कराहते असमय में ही मौत के मुँह में घुस पड़े।
परिवार यों संयुक्त समझा जाता है और उसका वातावरण बनाना संयुक्त उत्तरदायित्व माना जाता है। पर साथ ही इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जो उनमें से प्रतिभावान होता है वह समूचे परिवार पर न केवल अंकुश रखता है वरन् उसकी प्रवृत्तियों को जिस दिशा में चाहे हाँक सकता है। रावण ने अकेले में ही समूची लंका के निवासियों को दैत्य बना लिया था। गुरुकुलों के वातावरण में नर-रत्न ढलते रहे हैं। भागीरथ ने तो अपने दिवंगत परिवार तक का उद्धार कर दिया था। यह प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्त करना है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को आकृति में जिस प्रकार अन्तर होता है वैसे ही प्रकृति भी वंशानुक्रम, पालन-पोषण, प्रशिक्षित आदि के आधार पर भिन्नता युक्त होती है। किन्तु प्रकृति जयी मनुष्य है जो अपने चाक पर कुम्हार की तरह इच्छित बर्तन विनिर्मित करता चला जाता है।
वातावरण बनने बिगड़ने में अनेक परिस्थितियां कारण होती हैं। समाज एक प्रकार का अजायब घर है, जिसमें अनेकों आकृति-प्रकृति के प्राणी अपनी-अपनी बोली बोलते और हरकतें करते रहते हैं। पर उन सबसे तालमेल बिठाकर अनुरूप नीति भेद अपनाते हुए सरकस के रिंगमास्टर की तरह काम लेता है। जो स्वभावतः अनगढ़ हैं उन्हें भी गला-पिघलाकर अपने ढाँचे में ढाल लेता है। एक अच्छा आदमी सैकड़ों बुरों पर जेलर की तरह शासन करता है। साथ ही इसमें भी अत्युक्ति नहीं कि एक ही दुर्व्यसनी अपने दुर्गुणों की श्रृंखला उतनी तेजी से बिगाड़ता है कि अच्छे-खासे समुदाय को विग्रहों का अखाड़ा बना देता है। अपने बिगड़े व्यवहार में अनेकों को बागी विद्रोही बना देता है। साथ ही यह भी सच है कि जिस प्रकार युधिष्ठिर ने एक दिन के लिए जाकर नरक को स्वर्ग में बदल दिया था उसी प्रकार कोई भी सच्चरित्र मनुष्य समूचे परिवार को, समाज को पहले की अपेक्षा एक ऐसे बदले हुए ढाँचे में ढाल सकता है कि देखने वाले आश्चर्यचकित होकर रह जाँय।
संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करने से महान परिवर्तनों के पीछे मुट्ठी भर लोगों की प्रतिभा, योजना एवं पराक्रम परायणता काम करती दिखती है। उनने अपने प्रभाव से अनेकों का सहयोग आकर्षित किया और साहसपूर्वक आगे-आगे चलते हुए वह कर गुजरे जिससे इतिहास की दिशाधारा ही बदल गई।
यह सफलताएँ किस प्रकार उपलब्ध हुईं? समझा जाता है कि प्रचार माध्यम बड़े सशक्त होते हैं और तर्कों के द्वारा अनेकों में हेर-फेर लाया जा सकता है पर बदले हुए जमाने में अभिनेताओं की तरह नेता, प्रचारक, तार्किक और लेखकों की भी बाढ़ आने लगी है। इसे भी एक व्यवसाय माना और उसका कौशल सीखने का अभ्यास किया जाता है। इस बाढ़ के बावजूद वातावरण बदलने का-प्रवाह को उलटने का कोई लक्षण दिख नहीं पड़ता क्योंकि इसके लिए जिन प्रतिभाओं की आवश्यकता है उनके विनिर्मित करने के कोई प्रयास नहीं चल रहे हैं। कलाकार रंग-मंच सजा सकते हैं। लोगों को हँसा या रुला सकते हैं पर यह नहीं कर सकते कि दर्शक समुदाय घर लौटने पर भी उनके संकेतों पर चलने का साहस दिखा सकें।
सादगी और ईमानदारी, अच्छी बात है पर उसके साथ प्रखरता, प्रतिभा, तेजस्विता का भी समावेश होना चाहिए। ताकि वे अपने पराक्रमी व्यक्तित्व के सहारे अपने को संघर्षशील और गढ़ने ढालने की क्षमता रखते हों। इसका अभ्यास निज के अन्तरंग और बहिरंग को सुयोग्य बनाने के आधार पर किया जाना चाहिए। इसके लिए उस बहुमुखी विकास की आवश्यकता है। जिसे गीताकार ने “योगा को कर्म कौशल” रूप में बताया है। इसमें चिन्तन और चरित्र की पवित्रता एक आवश्यक शर्त है पर इसके लिए मनोबल, साहस, पराक्रम की भी कमी नहीं रहनी चाहिए। यह आत्म-विश्वास और आत्म-गौरव का प्रसंग है। जिसकी अभिवृद्धि के लिए चरित्र निष्ठा के अतिरिक्त स्वतन्त्र प्रयोग होना चाहिए।
हम हारे नहीं। अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करें। कठिन परिस्थितियों से जूझने में खिलाड़ियों जैसा रस लें तो मनुष्य में उस प्रतिभा का उदय हो सकता है जो व्यक्ति एवं समाज की वरिष्ठता विकसित करने के लिए नितान्त आवश्यक है।