
देवात्मा हिमालय की खोज अभी बाकी है।
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दिव्य-दर्शियों का मत है कि ब्राह्मी चेतना की सघन मात्रा का धरती पर विशिष्ट अवतरण देवात्मा हिमालय के हृदय केन्द्र से ही होता है। भौतिक दृष्टि से वैज्ञानिकों के लिए शक्ति के आवागमन केन्द्र उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव हो सकते हैं। किंतु अध्यात्म क्षेत्र का ध्रुव केन्द्र यही है। इस क्षेत्र में भ्रमण करते, निवास करते अथवा साधना तपश्चर्या करते हुए यह अनुभूति सहज ही की जा सकती है। जहाँ थियोसाफी मान्यतानुसार इसे योगियों की पार्लियामेण्ट कहा गया है। वहाँ श्रीमद् भागवत के बारहवें एवं दसवें स्कन्द में हिमालय में दिव्य पुरुषों के निवास होने की बात विशिष्ट माहात्म्य सहित लिखी है।
अभी भी इसके बारे में जन-सामान्य की जानकारी अत्यल्प है। मात्र पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों की प्रसिद्धि है और इनमें भी वे जो मोटर यात्रा द्वारा सीधी पहुँच में हैं। हिमालय की शोध में अभी बहुत कुछ ढूंढ़ा जाना बाकी है। तीर्थयात्री और स्थानीय निवासी भी वहीं तक पहुँच पाए हैं, जहाँ आवागमन सुगम है, पानी तथा खाद्य उपलब्ध करने के साधन हैं। वस्तुओं के आदान-प्रदान के लिए भी एक स्थान से दूसरे को जाना पड़ता है। मात्र प्रसिद्ध मठ-मन्दिर, जो धार्मिक आकर्षण के केन्द्र हैं, में पहुँचने पर आजीविका के कुछ स्त्रोत मिल पाते हैं।
आज से लगभग 1 सहस्र वर्ष पूर्व केवल 30 वर्ष की आयु में आद्य शंकराचार्य ने हिमालय यात्रा कर ज्योतिर्मठ की स्थापना की थी। समीपस्थ बद्रिकाश्रम एवं केदारनाथ के बीच का मार्ग अभी भी यात्रियों के लिए उसी प्रकार अनजाना एवं अगम्य है जैसा कि उस समय रहा होगा।
आज भी चारों धाम, पंचकेदार और पंचबद्री की समग्र उत्तराखण्ड यात्रा मोटर यातायात उपलब्ध होने पर भी एक माह में नहीं की जा सकती। क्योंकि ये स्थान ऊँचाई पर होने व कई स्थानों पर पैदल मार्ग होने के कारण समुचित समय माँगते हैं।
सर सिडनी बर्नार्ड पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बद्री केदार की गहन चोटियों में पहुँच की। उनका कहना है कि इतिहास के प्रारम्भ से ही शिवलिंग स्थित मानसरोवर एक पवित्र तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि ‘बद्रीनाथ शंकराचार्य के पूर्व भी वहाँ बौद्ध तीर्थ स्थल था। वहाँ बौद्धकालीन अवशेष पाए गए हैं।
पाण्डवों ने भी हिमालय आरोहण किया था। ब्राह्मण इतिहास हिमालय के इस क्षेत्र पर एक नया प्रकाश डालता है। इससे ज्ञात होता है कि यह समग्र क्षेत्र तब तान्त्रिक सिद्धियों के लिए प्रसिद्ध था। कुछ ऐसे प्रमाण हैं कि केदारनाथ, नाथ पंथी साधनाओं का भी पीठ रहा है। विशेषतः बगुला मुखी शक्ति साधना का। इसके साथ ही सौम्य आरण्यक साधनाएँ भी इस क्षेत्र में होती थीं।
“कनफटिया सम्प्रदाय” का यहाँ धार्मिक एवं राजनैतिक प्रभुत्व कभी था। अब तो मुश्किल से भी इस गुह्य साधना का ओर-छोर मिल पाता हो। पहाड़ की चोटियों पर बने मठ गुरु गोरखनाथ के पन्थ के हैं और देवियों के मठ कुछ विचित्रता लिए हुए हैं। लगता यह है कि प्रारम्भ में सात्विक साधना स्थली रहने के बाद वे मध्यकाल में वामाचारी तन्त्र साधना के विशेषज्ञों के हाथ आ गए। तान्त्रिक मत में तीर्थयात्रा साधना का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है इसी कारण इस क्षेत्र की तीर्थयात्रा का प्रचलन आदि काल से है।
केदारनाथ से भृगु श्रृंग का दर्शन होता है। यहीं से गंगा का उद्भव माना जाता है। गंगा की मूलधारा भागीरथी का ग्लेशियर (गंगोत्री ग्लेशियर), जो विश्व में सबसे बड़ा माना गया है, यहाँ से आरम्भ होकर उत्तर पश्चिम की ओर स्वर्ग रोहिणी चतुरंगी श्रृंखलाओं से होता हुआ शिवलिंग-सुमेरु के समीप गोमुख में प्रकट होता है। भागीरथी के अतिरिक्त अलकनन्दा व मन्दाकिनी का मूल स्त्रोत भी केदारनाथ के दाँये-बाँये हैं। इस तरह यह क्षेत्र पवित्र पुण्य तोया गंगा का आदि स्त्रोत है जहाँ कभी उसका अवतरण भागीरथी की साधना की परिणति रूप हुआ था। केदारनाथ से दिखाई देने वाले ऊँचे पर्वत श्रृंग को कैलाश नाम से सभी पहाड़ी लोग पुकारते हैं। उनका तात्पर्य यहाँ समग्र अगम्य दुर्गम हिमालय से होता है। आध्यात्मिक मान्यतानुसार शिवलिंग ही कैलाश व नन्दन वन के समीपस्थ झील ही मानसरोवर है। तिब्बत वाले कैलाश की संगति इतिहास व स्थलों से कुछ मिलती नहीं।
पशुपति और केदारनाथ दोनों ही स्थानों पर शिव-शक्ति का पूजन होता है। यहाँ ताँत्रिक विधि से शिवार्चन होता पाया जाता है। जागेश्वर, आदिबद्री, ऊखीमठ, मठमहेश्वर, तुँगनाथ, गोपेश्वर, त्रियुगी नारायण आदि स्थानों पर भी शैव मतानुसार उपासना की जाती है।
इसी के साथ-साथ यहाँ वैष्णव मत को भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर देखा जा सकता है। यमुनोत्री से गंगोत्री एवं केदार से बद्री तक जो उपासना स्थलों की श्रृंखलाएं हैं, वे विविधता की परिचायक है। अपनी स्थिति, प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण तो वे देखने योग्य हैं ही, सिद्ध पीठ शक्ति स्थल होने के नाते भी वे जाने योग्य हैं। वहाँ समय निकालकर पैदल जाने एवं साधना करने का अपना अलग आनन्द है। फिर भी अभी इस क्षेत्र की जनसाधारण में चार धामों के अतिरिक्त जानकारी का अभाव ही है।
हिमालय के हृदय का बहुत-सा क्षेत्र अनजाना पड़ा है और वहीं दिव्य जड़ी-बूटियों का तथा सूक्ष्म शरीर में तपश्चर्या करने वालों दिव्यदर्शी साधकों का निवास है।
गंगोत्री से बद्रीनाथ सीधे पर्वत मार्ग से मात्र 40 मील है पर गम्य मार्ग पर चलने से 200 मील से अधिक की यात्रा करनी पड़ती है क्योंकि इस मध्य बहुत ऊँचे और दुर्गम पर्वत श्रृंग हैं। इसी प्रकार बद्रीनाथ और केदारनाथ का मध्यवर्ती क्षेत्र भी ऐसा है जिसे सच्चे अर्थों में फूलों की घाटी कहते हैं। अब हेम कुण्ड और तपोवन क्षेत्र मनुष्यों के आवागमन से भरने लगा है। इसलिए उनकी भव्यता तो बढ़ी है पर दिव्यता घटी है। साधक स्तर के व्यक्तियों के स्थान पर पिकनिक पर्यटन प्रधान रुचि वाले जमघट अधिक हैं।
कैलाश-मानसरोवर यात्रा का शास्त्रों में बहुत माहात्म्य वर्णन है। ऐतिहासिक तथा भौगोलिक दृष्टि से भी केदारनाथ के निकटवर्ती श्रृंग कैलाश कहे जाने के उपयुक्त माने जा सकते हैं और गान्धी सरोवर को मानसरोवर माना जा सकता है- जो मंदाकिनी के स्त्रोत के समीपस्थ है, शिवलिंग व इस पर्वत श्रृंग में से किसी को भी मान्यता दी जा सकती है। इस मान्यता को उभारना इसलिए भी आवश्यक हो गया कि पिछले दिनों जो कैलाश माना जाता रहा है वह चीन के चंगुल में चला गया और मार्ग में डाकुओं का खतरा पहले से भी अधिक बढ़ गया है। वह स्थान वस्तुतः वातावरण की दृष्टि से भी अब साधना स्थल नहीं रहा।
परिचित जड़ी-बूटियों को उस क्षेत्र के निवासी खोदकर बाजार में बेचते और गुजारा चलाते हैं। उनके उत्पादन की सुव्यवस्थित योजना न होने तथा काटने पर नियन्त्रण न रहने से वे अब दिनों-दिन घटती जाती है। भेड़-बकरी चराने वाले उस क्षेत्र में जा निकलते हैं तो घास और जड़ी-बूटियों सभी का सफाया कर देते हैं।
यदि ब्रह्म कमल जिसकी सुगन्ध से अनायास ही समाधि लग जाती है, संजीवनी जिसमें मृत को जीवित करने जैसा गुण है- जिसे हनुमान जी लक्ष्मण जी के लिए ले गये थे, ज्योति बूटी जो रात्रि में दीपक की तरह प्रकाशवान कही जा रही है, को पुनः खोजा जाए तो साधना एवं चिकित्सा दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हस्तगत हो सकती हैं। हिमालय जितना विशाल है, उतना ही रहस्यमय भी है। अभी इसमें और गहरी पैठ लगाने की आवश्यकता है।