
उनने खोने से अधिक पाया
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सरदार पटेल को सर्व सामान्य जन काँग्रेस नेता और सरकार के गृहमन्त्री मानते हैं। काम भी उतने ही याद रखते हैं जितने उन दोनों उत्तरदायित्वों के साथ जुड़े रहे और व्यवस्थापूर्वक सम्पन्न होते रहे। इतना तो हर आँख वाला देख सकता है और हर कान वाला सुन सकता है, किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि हम कामों के गिनने की अपेक्षा उन गुणों और स्वभावों को ढूंढ़े, जिनके कारण सामान्य स्तर के मनुष्य पर्वत की ऊँचाई तक उठते हैं, एवं सभी के लिए आश्चर्य बन जाते हैं।
सरदार पटेल गुजरात के खेड़ा जिले के एक छोटे से गाँव में पैदा हुए। खेती मजे में गुजारा देती थी। परिवार के दूसरे सदस्य उसी में व्यस्त रहते थे। यदि प्रवाह के साथ बहा गया होता तो वल्लभ भाई भी उसी में बह रहे होते और जुताई, सिंचाई, बुआई, कटाई का पुश्तैनी धन्धा चलाते हुए निर्वाह कर रहे होते। चिन्तन को यदि विशेष रूप से उभारा न जाय तो वह परम्परागत रीति-नीति अपनाता है और कोल्हू के बैल की तरह ऊपरी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। सामान्य-जन इसी प्रकार मौत के दिन पूरा करते हैं। उन्हें न नया सोचने का कष्ट उठाना पड़ता है और न नया करने के लिए मार्ग ढूँढ़ना और नया सरंजाम जुटाने के झंझट में बिखरना पड़ता है।
उन दिनों स्कूली पढ़ाई का शौक शहरों से बढ़कर देहातों तक भी पहुँचने लगा था। पड़ौस के गाँव में स्कूल कालेज भी था। इच्छा व्यक्त की तो घर वालों ने रोका भी नहीं। उनके श्रम बिना कोई काम रुका भी न था और इतनी आर्थिक तंगी भी नहीं थी कि पढ़ाई का खर्च पूरा न किया जा सके। वे पढ़ते रहे और अन्ततः पड़ौस की तहसील में ही वकालत करने लगे। प्रतिष्ठित परिवार, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, हाथ में लिए काम के लिए पूरी दिलचस्पी और मेहनत, इतना होना इस बात के लिए पर्याप्त है कि कोई व्यक्ति महान बने और महानता की हर शोभा सज्जा से अपने आपको सुशोभित करे।
गाँधी का सत्याग्रह संग्राम आरम्भ हुआ। देश का हर स्वाभिमानी युवक तिलमिला उठा। मातृभूमि की पराधीनता और सारे समाज पर लगी हुई पराधीनता की कलंक कालिमा का जब तक अहसास नहीं हुआ था, तब तक लोग उनींदे बैठे रहे पर जब जागृति की लहर आई तो जो जीवित थे, वे सभी तनकर खड़े हो गये। काँग्रेस में भर्ती होने का उन दिनों तात्पर्य था सरकार से दुश्मनी मोल लेना, जेल जाना, जुर्माना वसूल किया जाना और किसी शासकीय संदर्भ में अयोग्य ठहराया जाना। इन कठिनाइयों को वे स्वयं भी जानते थे। विशेष रूप से उनके प्रायः सभी साथी वकीलों ने यह समझाया कि चैन की जिन्दगी और अच्छी कमाई को ठुकराकर अपने को परेशानी में डालना अच्छा नहीं। घर वाले भी विरुद्ध थे। उन दिनों किसी को स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि स्वराज्य मिलेगा और उसमें जेल जाने वालों को कोई सम्मानित पद भी मिल सकते हैं। किन्तु इन स्वप्नों से सर्वथा दूर रहते मातृभूमि की स्वाधीनता का प्रश्न ऐसा था, जिसके निमित्त गैरतमन्दों को कुछ कर गुजरने की अदम्य उमंग उठी।
पटेल ने आत्मा की पुकार सुनी और सब समझाने वालों को नमस्कार कर लिया। वे काँग्रेस के कार्यकर्ता बने और सत्याग्रह में सम्मिलित हो जेल गये। लड़ाई लम्बी चली और वह दावानल की तरह देश के कोने-कोने में फैली। पटेल ने अपने प्रभाव क्षेत्र बारदोली इलाके को व्यापक लगान बंदी के लिए तैयार कर लिया। इस मार्ग में उन्हें क्या कठिनाई उठानी पड़ेगी, यह भली भाँति समझा दिया। किसान चट्टान की तरह प्रतिज्ञा पर दृढ़ हो गये और उसे समूचे क्षेत्र में किसानों ने सरकार से सीधी टक्कर ली। एक भी पैसा लगान के नाम पर देने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप जब्तियाँ, कुर्कियाँ और गिरफ्तारियाँ हुईं। पर पटेल के नेतृत्व में वह समूचा समुदाय इतना दृढ़ निश्चयी निकला कि सरकार को किसानों की शर्तें मानने और समझौता करने पर विवश कर दिया।
स्वतन्त्रता मिली। सरदार पटेल पार्लियामेण्ट मेम्बर चुने गये और गृहमन्त्री नियुक्त हुए। उनके सामने एक से एक बड़ी समस्यायें आईं। सबसे बड़ी समस्या थी देश की लगभग 600 रियासतों को केन्द्र शासन में सम्मिलित करना। अधिकाँश राजा अपनी सम्पत्तियाँ और अधिकार छोड़ने को तैयार न थे, पर पटेल ही थे जिनने साम, दाम, दंड, भेद की नीति से सभी राजाओं को केन्द्र में सम्मिलित होने के लिए बाधित कर दिया। हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासतों के साथ सख्ती बरतनी पड़ी और गोवा, पाँडिचेरी आदि को राजनैतिक दाव पेचों से काबू में लाया गया। पटेल की इस साहसिकता को संसार भर में अद्भुत माना गया।
मध्यकालीन विदेशी आक्रमणकारियों ने यों मंदिर तो अनेक तोड़े और लूटे थे, पर उन सबमें सोमनाथ मंदिर मूर्धन्य था। उसके विनष्ट कर दिये जाने से सारे हिन्दू समाज में भारी क्षोभ और निराशा फैली। उस घाव को भरने के लिए सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का काम हाथ में लिया और उस ध्वंसावशेष को नये सिरे से इस प्रकार बनाया कि पुराने की तुलना में उसे दसियों गुना शानदार माना जाने लगा। इस निर्माण से सारे समाज में एक उल्लास और सन्तोष की लहर उभरी।
सरकारी स्कूल, कालेजों, का जिन दिनों बहिष्कार हुआ था, उन दिनों निकले हुए छात्रों की शिक्षा का नया प्रबन्ध करना आवश्यक प्रतीत हुआ। इसके लिये गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई। उसने हजारों सुयोग्य व्यक्ति ऐसे विनिर्मित करके दिये जो गुजरात के ही नहीं, सारे देश के पुनरुत्थान में भारी योगदान देते रहे। तब की गुजरात विद्यापीठ अब विकसित होकर शानदार युनिवर्सिटी में परिणित हो गई है। इसे सरदार पटेल के कर्त्तृत्व का एक शानदार स्मारक कह सकते हैं।
पटेल का व्यक्तित्व इतना सरल, सौम्य, कर्मठ और खरा था कि उनका लोहा पक्षधर और विपक्षी समान रूप से मानते रहे। काँग्रेस आन्दोलन को “करो या मरो” का नारा उन्होंने ही दिया था और परिस्थितियाँ इतनी विकट पैदा करदी थीं, जिन्हें पार करना ब्रिटिश सरकार के लिए संभव न रह गया। उन्हें देश का दूसरा चाणक्य समझा जाता था। वस्तुतः पटेल ऐसे हीरक बने जिनकी कीर्ति ने भारत माता के मुकुट को बहुमूल्य रत्न बनकर जगमगाया।
उनके जीवन का मोड़ वहाँ से शुरू होता है, जहाँ एक ओर पुरातन प्रवाह एवं वकालत का वैभव था और दूसरी ओर देश, धर्म, समाज, संस्कृति का पुनरुत्थान। उनने दूसरा मार्ग चुना। क्या वे घाटे में रहे? एक नया मार्ग चुनकर उनने तात्कालिक प्रलोभनों को कुचला तो जरूर, पर यश, पद, गौरव और आदर्श के क्षेत्र में वे इतने ऊँचे उठे जिसकी प्रशंसा हजारों वर्षों तक मुक्त कंठ से होती रहेगी।