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शरीर के रोगी होने पर भूख, प्यास, नींद सभी चली जाती है। मन के रोगी होने पर साहस, विवेक, धन और मित्र साथ छोड़ देते हैं।
योद्धा वह है जो बुराई को भलाई से जीते।
उसके चेहरे पर सदा बसन्त ऋतु बनी रहती है जो हँसना और हँसाना जानता है।
अपने स्वभाव में आलस्य, प्रमाद, अपव्यय, दर्प, कटु, भाषण, व्यसन विलास आदि दुर्गुण भरे होते हैं। मोर्चा इनके विरुद्ध लगना चाहिए और संकल्प उठना चाहिए कि गरिमा को गिराने वाली इन दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ने के लिए निरन्तर प्रयत्न जारी रखा जायेगा और लिपटी हुई मलीनता को साफ करके ही रहा जायेगा। अपने दुर्गुण, कुविचारों एवं हेय कार्यों पर कड़ी नजर रखी जाय, उनका विरोध-असहयोग जारी रखा जाय तो कोई कारण नहीं कि जीवन को उच्चस्तरीय बनाने वाली सत्प्रवृत्ति अपने अभ्यास में न उतर सके। यह बहुत बड़ी बात है। नम्रता, सज्जनता, शिष्टता, उदारता, सेवा भावना के बलबूते कोई भी व्यक्ति लोकप्रिय एवं श्रद्धास्पद बन सकता है। साथ ही उस समर्थन के कारण हर क्षेत्र में प्रगति के लिए अवसर मिलते रहने का सिलसिला अनायास ही चल पड़ता है।
वरिष्ठ व्यक्तियों को समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को अपने व्यक्तित्व में समाविष्ट करना पड़ा है। इससे कम में सस्ते मोल खरीदी गई नेतागिरी एक धूर्त्तता है। जिसकी कलई खुले बिना रह नहीं सकती। चापलूसों को प्रलोभन देकर खरीदा जा सकता है। पर उनके द्वारा की गई प्रशंसा या दी गई पदवी बालू की भीति की तरह बेसिरपैर की होती है। उससे तात्कालिक वाहवाही लूटी जा सकती है। किसी संस्था का पदाधिकारी बना जा सकता है। अखबारों में नाम फोटो छप सकता है। जय-जयकार सुनाई दे सकता है। पर उस विडम्बना के पीछे स्थायित्व जैसा कुछ नहीं होता। बिना जड़ का खोखला पेड़ कब तक खड़ा रह सकता है। वाणी की वाचालता और शेखीखोरी किसी को क्षण भर के लिए प्रभावित कर सकती है किन्तु उसे जन साधारण के अन्तराल में श्रद्धा भरा स्थान नहीं दिला सकती और इसके बिना नेतृत्व गहरा एवं चिरस्थाई नहीं हो सकता।
अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को संभालने सुधारने के साथ ही उस समुदाय को संभालने का कदम बढ़ता है जिसके साथ हम बंधे हुए हैं। परिवार अपना निकटवर्ती समुदाय है। इसकी इच्छानुकूल विलास सुविधा जुटाने का कार्य तो कठिन है क्योंकि एक की देखा देखी दूसरों का मन चलता है और घर में उपलब्ध सुविधाओं की तुलना में उनकी माँगे बढ़ती ही जाती हैं। जिसे रोका-टोका जाय, वही विरोधी बनता है और सहयोग के स्थान पर बिगाड़ने वाले कदम उठाता है इसलिए नीति पहले से ही निश्चित रखनी चाहिए कि उत्तराधिकारी में सम्पदा पाने की कोई भी परिजन आशा न करे। गरिमा बढ़ाने और भविष्य चमकाने वाले सद्गुणों का परिवार संस्था की छत्र छाया में अभ्यास करे।
श्रमशीलता, मितव्ययिता, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सज्जनता, शिष्टता, सहकारिता, उदारता, संयमशीलता, मिलनसारी जैसे गुणों को परिजनों के स्वभाव में उतारने के लिए उनका कार्यक्रम ऐसा बनाना चाहिए जिसके सहारे इन प्रवृत्तियों को दैनिक क्रिया कलापों में सम्मिलित रख कर चलना पड़े। यह वस्तुतः बहुत बड़ा उपार्जन या अनुदान है। सद्गुणी व्यक्ति अपनी योग्यता भी बढ़ाते चलते हैं, प्रामाणिकता भी विकसित करते चलते हैं और सेवा प्रयोजनों में दूसरों का सहयोग भी करते रहते हैं। आन्तरिक प्रगति की गरिमा और व्यवस्था लोगों के गले उतारते रहा जाय तो भावी जीवन में वह अपनाये गये हर काम में प्रगति करता और सफलता उपलब्ध करता चलता है।