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सहज जीवन नितान्त सरल है, पर लोगों ने जान बूझकर उसे जटिल बना लिया है।
दूसरा क्रान्तिकारी लेखक है- कार्लमार्क्स। उसने साम्यवाद के सभी पक्षों पर गहनतम विचार किया। इसके पक्ष विपक्ष में कहे जा सकने वाले तथ्यों को उसने न केवल सोचा वरन् इतिहास के घटनाक्रमों से भी उन्हें निचोड़ निकाला। साम्यवादी विचार धारा का ढाँचा और खाका सुनिश्चित हो गया। वह अपने आप में इतना सर्वांगपूर्ण था कि उससे शासकीय परिवर्तनों में महती भूमिका सम्पन्न हुई। मात्र विवाद ही नहीं वरन् संघर्ष फूट पड़े और वे तथ्यों के आधार पर इतने समर्थ थे कि साधन हीन लोगों द्वारा खड़े किये गये संघर्ष भी सफल होकर रहे।
इस सिद्धान्त का जन्म हुए, प्रकटीकरण ही स्थिति में आय प्रायः एक शताब्दी गुजरी है कि आधी से अधिक दुनिया उसके प्रभाव क्षेत्र में आ गयी है। रूस इनमें अग्रणी है। उसके समीपवर्ती सहयोगियों का एक बड़ा मंडल है। इससे लेनिन, स्टालिन से लेकर ख्रुश्चैव, गोर्बाचौफ तक अनेकों प्रतापी शासक न केवल रूस में वरन् उस क्षेत्र अन्यान्य देशों में भी हो चुके हैं। यह कार्लमार्क्स की लौह लेखनी का चमत्कार है। उस लेखन प्रतिपादन में भी अनेक मूर्धन्य विचारक सम्मिलित हुये। प्रेस ने उसे सर्व साधारण के लिए उपलब्ध किया और यथार्थवाद पर अवलम्बित विचार धारा देखते देखते गगनचुम्बी बनने लगी।
चीन की एक करोड़ जनता भी इसी आन्दोलन के उभार से उभरी है। दीख पड़ता है कि व्यक्तिगत रूप से साम्यवाद पर विश्वास करने वाले संसार के अधिकाँश लोग हैं। उस शासन के अंतर्गत भी आधी से अधिक जनसंख्या आ गई है।
दास प्रथा के उन्मूलन की प्रतिज्ञा तो अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन ने ली थी। पर उस हेतु जन साधारण की भावनायें उभारने और न्याय के पक्ष में जनमानस को कार्य-बद्ध करने का काम श्रीमती हैरियट स्टो की कलम ने किया। उनने “टाम काका की कुटिया” रची और पत्थर जैसे कठोर हृदयों को फूट-फूट कर रोने और प्रचलन को उखाड़ फेंकने के लिए विवश कर दिया।
आदर्शवादिता की हिम्मत करने वाले लौह लेखनी के धनी संसार में किन्हीं महान सेनापतियों से कम नहीं गिने जाते। प्रिंस क्रौपाट्किन, बिस्मार्क, रस्किन, टॉलस्टाय, गोर्की, तुगनेव आदि ने जो लिखा है उसने कोटि-कोटि मानवों को सड़ी गली मान्यताओं से विरत होने, तथ्यपूर्ण सिद्धान्त अपनाने के लिए स्वेच्छा या सहमत कर दिया। आर्य समाज की हवा स्वामी दयानंद ने लेखनी और वाणी दोनों से ही भर दी। यही कार्य विवेकानंद व बाद में अभेदानन्द ने भी किया।
गीता बड़ा पुराना ग्रंथ है। लोग उसे पूजा पाठ के लिए रखते थे। पर बाल गंगाधर तिलक और पंडित सातवलेकर ने जो गीता की व्याख्यायें की, युग की आवश्यकता के अनुरूप पूरी तरह फिट बैठीं। उनने विचारशील पीढ़ी को नया जीवन दर्शन दिया और अनेकों कर्मयोगी कार्य क्षेत्र में उतरे।
यहाँ हम ऐसे बुद्धिजीवियों को भी नहीं भूल सकते जिनने विचारणा और श्रमशीलता का समन्वय कर संसार के लिए अनेक सुविधाओं का द्वार खोला। अंधों के लिए छेदों वाली ब्रेल लिपि बनाने वाले को भुलाया नहीं जा सकता, जिसने बिना नेत्र वालों के लिए पढ़ना लिखना संभव कर दिया।
शिक्षा के क्षेत्र में मान्टेसरी की कल्पनायें और स्थापनायें अपना महत्व रखती हैं। नाइटिंगेल ने लड़कियों की नर्स स्तर की सेवा अपनाने के लिए ऐसा प्रवाह बहाया जिसे रूढ़िवादी मान्यताओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की प्रतिष्ठा दी जा सकती है। हेलेन कीलर ने अंधी, गूँगी, बहरी होते हुये भी अठारह विश्व विद्यालयों में डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त करके यह सिद्ध किया कि मनुष्य के लिए साधन और परिस्थितियाँ ही सब कुछ नहीं हैं। उसकी लगन, निष्ठा और तत्परता यदि जीवित हो गई- तो गई गुजरी स्थिति को चीरते हुये आसमान छूने जैसे उदाहरण वह प्रस्तुत कर सकता है। यह बुद्धिजीवियों का कर्तृत्व है जो वक्ताओं, लेखकों की तरह अपने ढँग से जनमानस को बदलते रहे हैं।