
नारी– प्रगति-पथ पर बढ़ चलें
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नारी को देवी की उपमा दी गई है। गायत्री, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी, काली, गंगा आदि के रूप में उसे पूजा जाता है। साथ ही माता, धर्मपत्नी, भगिनी, पुत्री के रूप में भी उसकी वरिष्ठता और पवित्रता है। क्षमता की दृष्टि से उसे भौतिक विज्ञानियों ने भी अपेक्षाकृत अधिक बलिष्ठ माना है। वे अपेक्षाकृत दीर्घजीवी, कष्ट-सहिष्णु, उदार और बुद्धिमान-भावनाशील भी होती हैं। उन्हें गृहलक्ष्मी के रूप में असाधारण सम्मान दिया गया है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि मानवीय समता-एकता पर व्याघात करते हुए लोगों ने अछूतों और स्त्रियों को जन्मजात शोषित वर्ग में गिना और उनकी क्षमता को कुँठित रखते हुए अपंग, असमर्थ, अनगढ़-सी स्थिति में पड़े रहने के लिए बाधित कर दिया।
मनुष्य जाति भी अन्य प्राणियों की तरह नर-मादा में विभक्त है। यह प्रकृति का प्रजनन संबंधी अपना कौतुक है, पर इससे न्याय और समता की तराजू उलटी नहीं जा सकती। आधी जनसंख्या नारी है। उसे यदि प्रतिबंधित, सीमित, संकुचित रखा रहने दिया गया, तो वह चरणदासी से बढ़कर और कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सकेगी, मानवीय प्रगति में कोई कहने लायक योगदान न दे सकेगी। परिणाम यह होगा कि आधे पुरुष वर्ग का, दूसरा अर्धांग गले में पत्थर की तरह बाँधना और ढोना पड़ेगा। मध्यकालीन सामन्तवादी युग में बाल विवाह, पर्दा, बहुपत्नीत्व आदि कुरीतियों के कुचक्र में नारी को अभी तक पिसना पड़ रहा है। प्रगति के लिए शिक्षा आवश्यक है। वह नर और नारी दोनों को ही मिलनी चाहिए, पर स्थिति यह है कि 30 प्रतिशत शिक्षितों में नारी के हिस्से में 10 प्रतिशत भी नहीं आती। वह भी शहरों में सवर्णों और सम्पन्नों की लड़कियाँ कुछ पढ़-लिख लेती हैं। देहातों में गरीब परिवार स्त्री-शिक्षा का न तो महत्व समझते हैं और न उसके लिए प्रयत्न करते हैं।
समाज के सर्वतोमुखी पुनरुत्थान में अगले दिनों नारी को दूनी गति से बढ़ना होगा, ताकि पिछले दिनों जो खाई खुद गयी है, उसे पाटा जा सके। नारी को न केवल स्वावलम्बी-सुसंस्कारी होना चाहिए, वरन् समग्र नेतृत्व के क्षेत्र में भी उसे अपनी प्रतिभा का परिचय देना चाहिए। पुरुषों का कर्त्तव्य है कि जिस प्रकार उसने नारी पर पिछड़ापन लादा है, उसी प्रकार उस पाप का प्रायश्चित करें और नारी को आगे बढ़ने में, बढ़ाने में विशेष उत्साहपूर्वक काम करें। उसके प्रति जो हीनता के भाव जम गये हैं, उनका अब अन्त होना चाहिए। उसे प्रगतिशीलता अपनाने के लिए समुचित अवसर और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
भूतकाल में नारी को जब भी अवसर मिला है, पुरुष की तुलना में कभी पीछे नहीं रही। पुरातन काल में मनु की पुत्री इला ने अपने पिता की पुरोहित बनकर धर्म क्षेत्र में प्रवेश कर उसे आगे बढ़ाया था। वेद ऋचाओं की दृष्टा नारियाँ भी कम नहीं। अपाला, घोषा आदि कितने ही नाम ऐसे हैं, जिन्हें ब्रह्मवेत्ताओं की तरह ब्रह्मवादिनी की संज्ञा मिली है।
प्राचीन काल में विवाहित या अविवाहित रहना नर और नारी के लिए समान रूप से ऐच्छिक विषय था। जिसको जिसमें सुविधा पड़ती थी, वह उस मार्ग को अपना लेता था। विरक्त ब्रह्मचारियों की तरह ऐसी महिलाओं की कमी नहीं रही, जिन्होंने मानवीय प्रगति के लिए अपने को समर्पित किया और विवाह के बन्धन में बँधने से कतराती रहीं। कितनी ही ऐसी भी हुई हैं, जिन्होंने सहयोग की सुविधा देखते हुए विवाह तो किया, पर सन्तानोत्पादन से कोसों दूर रहीं। ऋषि याज्ञवल्क्य की दोनों पत्नियाँ उनकी सहयोगिनी भर थीं। उन्हें गृहिणी के रूप में अपना कार्यक्षेत्र सीमित नहीं करना पड़ा।
देश के नवीन नारी इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, कमला चट्टोपाध्याय, सुमित्रा चौहान, दुर्गाभाभी आदि के नाम जन-जन की जुबान पर हैं। क्रान्तिकारी, सत्याग्रही और साहित्य सृजेताओं में उनकी बड़ी संख्या रही है। उनकी कथा-गाथा इतनी विस्तृत है कि पुरुषों की तुलना में उनके पिछड़े होने की बात पूरी तरह कट जाती है। जहाँ दबाया-दबोचा गया है, वहाँ तो उत्पीड़न-शोषण की स्थिति रहती ही थी, पर जहाँ उन्हें खुली हवा में साँस लेने का अवसर मिला है, वहाँ उनने अपनी वरिष्ठता में चार चाँद लगा कर दिखाये हैं।
शासकों में भारत की इन्दिरा गाँधी, इजराइल की गोल्डा मेयर, इंग्लैण्ड की मार्गरेट थ्रेचर, श्रीलंका की सिरिमाओ भण्डारनायके, फिलीपीन्स की एक्विनों आदि के नाम प्रख्यात हैं। रूस, यूगोस्लाविया में शिक्षा विभाग, स्वास्थ्य विभाग, शिशु कल्याण जैसे अनेक विभागों में 90 प्रतिशत महिलाएँ काम संभालती हैं। न्यायालय में जजों में उनकी संख्या का अनुपात निरन्तर बढ़ता जाता है। कभी मैडम क्यूरी जैसी महिला विज्ञान क्षेत्र में कुछ ही थीं, पर वे अब विज्ञान, इंजीनियरिंग एवं कम्प्यूटर विभागों में तेजी से प्रवेश पा रही हैं।
विदेशी महिलाओं ने अपने-अपने देशों में कितने ही सार्वजनिक आन्दोलन चलाये हैं। दास प्रथा के विरुद्ध आग उगलने वाली हैरियटस्ट्रो से लेकर परिवार नियोजन को गति देने वाली मार्गरेट मेरी स्टोप्स के नाम प्रख्यात हैं। महिला मुक्ति आन्दोलन की जन्मदात्री उसी वर्ग में है। ईसाई धर्म प्रचारकों में पादरियों की तरह महिला “नन्स” भी अच्छी खासी दिलचस्पी ले रही हैं। नर्सों में उन्हीं की प्रमुखता है। मर्द नर्स तो जहाँ कहीं ही दीखते हैं वे महिला नर्सों की तुलना में सेवा की दृष्टि से कहीं नहीं ठहरते।
विदेशी महिलाओं ने भारत के साँस्कृतिक एवं समाज सुधार क्षेत्र में उत्साहवर्धक काम किया है। अरविंद आश्रम की माताजी, मदर टेरेसा, गाँधी आश्रम की मीरा बेन, सरला बेन ने जितना काम किया, उसका मूल्याँकन असामान्य समझा गया है। स्वामी विवेकानन्द की पुकार पर सिस्टर निवेदिता भारत आयी थीं और वे विशेष रूप से महिला उत्थान के काम में लगी रहीं। थियोसॉफी की एनीबीसेण्ट ने तो भारत और हिन्दू धर्म को अपना प्राणप्रिय बना लिया था। सरदार पटेल की पुत्री मनु बेन अविवाहित रहकर सतत् रचनात्मक कार्यों में जुटी रहीं।
यह सभी बीते समय की बातें हैं। अगला समय नारी प्रधान युग के रूप में मान्यता प्राप्त करेगा। इसलिए उसकी भूमिका अभी से बनानी चाहिए। परिवार निर्माण से संबंधित अनेक पक्षों को उन्हें ही संभालना चाहिए। सामाजिक कुरीतियों से जकड़े रहने में नारी को अधिक अनुदार और रूढ़िवादी समझा जाता है। इस क्षेत्र में सुधार होना चाहिए और प्रगतिशीलता पनपनी चाहिए। स्त्री शिक्षा के लिए स्कूली क्षेत्र से भी अधिक बड़ा क्षेत्र “प्रौढ़ नारी शिक्षा” का है। इसके लिए अपरान्हशालाएँ गली-गली मुहल्ले-मुहल्ले में होनी चाहिए।