
जन समुदाय का उच्चस्तरीय नेतृत्व
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संसार का सबसे बड़ा नेता है- सूर्य। वह आजीवन व्रतशील तपस्वी की तरह निरन्तर नियमित रूप से अपने कार्य में संलग्न रहता है। नव ग्रह उसी से गति और पोषण प्राप्त करते हैं। चन्द्रमा उसी की चमक से चमकता है। प्राणियों की आँखें उसी के प्रकाश से देख सकने की क्षमता उपलब्ध करती हैं। बादल वही बनाता है। वर्षा उसी के कारण होती है। पौधों के उगने उगाने से लेकर फूलने और फलने तक की व्यवस्था उसी के कारण बनती है। पदार्थों को गति और प्राणियों को जीवन वही प्रदान करता है। दिन ही क्रिया है। रात आते ही निष्क्रियता छा जाती है। इसलिए उसे सूर्य भगवान भी कहते हैं और सविता देवता भी।
क्षुद्रजनों से पूछा जाय कि इसके बदले वह कितना पैसा कमाता है, कितना विलास बटोरता है?, तो उन बेचारों से जवाब देते न बन पड़े, क्योंकि उनने जो सदा सीखा, जाना और माना है। उसमें वैभव और विलास इन दो के अतिरिक्त तीसरा कोई तथ्य संसार में है नहीं। आदर्शों की, सेवा-उदारता की पाठशाला उनने पढ़ी ही नहीं, इसलिए वे यह भी नहीं जानते कि आत्म संतोष और गौरव किसे कहते हैं? श्रद्धा, प्रतिष्ठा भी उनके अनुभव में कभी आई नहीं होती। महानता से कभी पाला नहीं पड़ा। ऐसी दशा में वे सूर्य को मूर्ख बतायें तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। इनके हिसाब से संसार का हर सेवाभावी जिसे दूसरे शब्दों में नेता कहना चाहिए, कोई लाभदायक प्रयोजन नहीं पूरा करता। बुद्धिमान केवल वे हैं जिन्हें स्वार्थी, विलासी, चार-चालाक, कुचक्री एवं दंभी कहा जाता है।
नेतृत्व ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है, क्योंकि वह प्रामाणिकता, उदारता, और साहसिकता के बदले खरीदा जाता है। इन्हीं को पूजा उपकरण अथवा योगाभ्यास-तप साधन कहा जा सकता है। भक्ति वही है। स्वर्ग और मुक्ति इसी परिधि के ईद-गिर्द चक्कर काटते हैं। यह कितना मूल्यवान अनुदान है, इसका मूल्यांकन हजार कुबेर मिलकर भी नहीं कर सकते। जिन्हें सच्चे अर्थों में नेता बनने का अवसर मिला, समझना चाहिए कि चक्रवर्ती शासन और जगद्गुरु स्तर का ज्ञान, दिग्गजों जैसा कार्य उस पर निछावर हो सकता है, पर उस भीलनी को क्या कहा जाय जो रास्ते में पड़े रत्न को चमकीला पत्थर बताती है और भेड़ के गले में उपेक्षापूर्वक बाँधती है। जौहरी जानते हैं कि नेतृत्व का अलंकार, कोहनूर हीरे की तुलना में कोटि गुना अधिक मूल्यवान है। जिसे वह हस्तगत हुआ, समझना चाहिए कि कृतकृत्य हो गया।
शाहजहाँ को उसके बेटे ने कैद कर लिया। समय काटने के लिए कुछ काम करने की इच्छा पूछी गई तो उसने बच्चों को पढ़ाने का काम माँगा। उसमें नेतृत्व की क्षमता भी थी, अध्ययन सम्पदा भी। पुण्य के साथ-साथ निज प्रतिभा को अक्षुण्ण बनाये रखने का सुयोग भी। कैदी को उसका इच्छित कार्य दे दिया गया। वह इतने भर से संतुष्ट हो गया। जिन्हें अनगढ़ जन समुदाय को मानवी गरिमा के अनुरूप ढलने और ढालने का सुयोग मिलता है, उन्हें भाग्यशाली ही कहा जा सकता है, भले ही इसके बदले उन्हें नोटों का बण्डल या विलास वैभव का अम्बार न मिलता हो।
नेतृत्व इसलिए आवश्यक है कि उसमें अनेक को साथ लेकर उन सब के सहयोग से महानतम कार्य कर गुजरने का अवसर मिलता है। सदाचारी-ब्रह्मचारी तो अपना ही भला करता है। दानी, पुण्यात्मा गरीबों की दुआएँ लेते हैं। पर सामूहिक प्रयास से कोई बड़ा काम हो सके यह प्रक्रिया अनेक को, आदर्शवादी-श्रमशीलों को संगठित किये बिना नहीं बन पड़ती। अकेला चना भाड़ कहाँ फोड़ता है? अकेले दूल्हे की बरात कहाँ सजती है? संसार के अधिकाँश महत्वपूर्ण कार्य मिल-जुलकर ही संभव हुए हैं। इस एकत्रीकरण के लिए विश्वस्त और खरा परखा नेतृत्व चाहिए। मधुमक्खियाँ मिल जुलकर ही छत्ता बनाती और मधु संचय करती हैं। अकेली मक्खी चाहे कितनी ही श्रमशील क्यों न हो तितली की तरह यहाँ-वहाँ उड़ती और ध्यान बँटाने में ही समर्थ होती है।
चीन की प्राचीन प्रख्यात दीवार के सहारे अभी कुछ ही समय पूर्व दस मील चौड़ी और 1500 मील लम्बी सघन वृक्षों की दीवार खड़ी की गई है। इस दूरदर्शी कदम के पीछे वर्षा, प्रदूषण, हवाओं की रोकथाम, कटाव, ईंधन, लकड़ी आदि के अनेक लाभ सोचे गये हैं। जिनका प्रतिफल सामने भी आ रहा है। यह उत्पादन एक स्थान या गाँव के लोगों ने नहीं किया वरन् समूचे चीन के बिखरे हुये लोगों को एकत्रित करके यह संसार का अनोखा आश्चर्य खड़ा किया गया। काम तो हुआ। श्रमिकों ने किया। योजनाकारों ने निर्धारण किया, सरकार ने खर्च जुटाया, पर इन सबसे बड़ा काम उनका रहा जिनने घर में मौज उड़ाते लोगों को देश की प्रगति का माहात्म्य और उपयोगिता बताकर उन्हें बीहड़ में रहने, कठोर श्रम करने और सुविधायें छोड़ने के लिए प्रोत्साहित एवं सहमत किया। इस स्तर के नेतृत्व को जितना सराहा जाय, उतना ही कम है।
ठीक इसी से मिलती जुलती योजनाएँ स्वेज और पनामा नहर बनाने के संबंध में भी हैं। छोटे-छोटे भूमि खण्ड दो-दो समुद्रों को अलग-अलग किये हुये थे। उस प्रदेश से गुजरने वाले जहाजों को हजारों मील का चक्कर काटना और विपुल धन खर्च करना पड़ता था। इस असुविधा को मिटाने के लिए उपरोक्त दो नहरें विभिन्न समयों पर बनीं। उनमें सबसे बड़ी प्रमुखता विशाल परिमाण में मानवी श्रम जुटाने की थी। जहाँ यह भूखण्ड थे, वहाँ की स्थानीय जनसंख्या नगण्य थी। वह अपने निर्वाह कार्य ही किसी प्रकार निपटा पाती थी। फिर इतनी बड़ी श्रम सेना कहाँ से जुटे? मात्र पैसे के प्रलोभन से ऐसे सीलन भरे क्षेत्र में रहने और जानलेवा श्रम करने के लिए इतने श्रमिकों को सहज ही सहमत नहीं किया जा सकता। इसके लिए भावनायें जगानी और उभारनी चाहिए, त्याग और शौर्य उछलना चाहिए। यह कार्य लेखों से, भाषणों से प्रसारणों से नहीं हो गया, वरन् उनने किया जो स्वयं लोक सेवा के लिए अनेक बार दुस्साहस कर चुके थे। सोचा जा रहा था इतने श्रमिक कहाँ मिलेंगे? फिर वे प्रसन्नतापूर्वक इतनी तेजी से काम क्यों करेंगे, जिसके लिये जानें की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। यह कार्य उनने जन मानस का अन्तराल झकझोर कर वह आवश्यकता पूरी की, जिसके लिए संसार की अनेक पीढ़ियाँ उस दुस्साहस के लिए कृतज्ञता व्यक्त करती रहेंगी।
युद्ध भूमि में सैनिक प्राण हथेली पर रख कर लड़ने जाते हैं। इस प्रयास में सम्मिलित होने वालों के मनों में देश भक्ति का, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा गरिमा का बोध कराया जाता है। अन्यथा पैसे के लिए जान कौन बेचेगा? इन भावनाओं को भरने और उन्हें परिपक्व करने में सैनिक विद्यालयों से लेकर प्रशिक्षकों और व्यवस्थापकों की गहरी भूमिका रहती है। अन्यथा लड़ाई के दिनों में जुझारू सैनिकों का मिलना कठिन हो जाय।