
“अप्प दीपो भव”
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अध्यापक और मार्ग दर्शक में मौलिक अन्तर यह है कि अध्यापक बिखरी दुनिया से संबंधित जानकारियाँ कराते और छात्रों को बहुज्ञ बनाते हैं। बहुज्ञता कुशलता में गिनी जाती है और वह अर्थ उपार्जन से लेकर बड़प्पन की पंक्ति में बिठाती है। परिवार एक प्रकार से अध्यापन कार्य ही करता है। भाषा, ज्ञान, शिष्टाचार, श्रृंगार, विनोद, स्वभाव आदि की विशेषताएँ परिवार के लोगों से ही सीखी जाती हैं। यह सब वह सब सहज रूप से सिखा देते हैं। नकल उतारते हुए, छोटे बालक भी यह सब सीख लेते हैं। इसके बाद स्कूली अध्यापकों का कार्य शुरू होता है। अक्षर ज्ञान, शब्द कोष, व्याकरण, गणित, इतिहास, भूगोल, ज्यामिती, शिल्प आदि सिखाने का उनका काम है। यों कहने को तो नैतिकशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान, जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, भौतिकी आदि विषय भी पढ़ाये जाते हैं, पर वे सभी विषय ऐसे होते हैं जो संग्रहित जानकारियों एवं प्रचलनों का ही बोध कराते हैं। उस आधार पर विद्यार्थी को बहुज्ञ कहा जा सकता है। किन्तु उस सबका व्यक्तित्व से कोई सीधा संबंध नहीं होता। भावना, आस्था, आकाँक्षा, प्रेरणा, विचारणा, दूरदर्शिता, विवेकशीलता के ऐसे तत्व उसमें सम्मिलित नहीं होते जिनसे व्यक्तित्व का स्तर उभरे, प्रतिभा निखरे और चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में उत्कृष्टता, आदर्शवादिता का समावेश हो। यह विषय ऐसे हैं भी नहीं जिन्हें किसी पुस्तक या पाठ को याद कर रटाने के साथ-साथ हृदयंगम भी कराया जा सके, व्यक्ति को किसी उच्चस्तरीय ढाँचे में ढाला जा सके। अतएव वर्तमान शिक्षा संस्थाओं तथा शिक्षकों से भी आशा नहीं की जाती कि वे अपने छात्रों को महापुरुष या देवपुरुष की पंक्ति में बिठा सकने की योग्यता प्रदर्शित कर सकेंगे। अधिक से अधिक इस प्रकार की आशा की जा सकती है कि यह पुस्तकी पढ़ाई अपने प्रमाण पत्रों के आधार पर कहीं नौकरी लगवा सके अथवा शार्टहैण्ड, टाइप, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, व्यवस्था, बावर्ची आदि के जो शिल्प सीखे हैं उन्हें व्यवसाय रूप में अपनाते हुए रोजी रोटी का साधन जुटा सके। हमारी आज की स्कूली शिक्षा का आदि अंत यही हो जाता है।
हँसी मन की गांठें खोलती है। अपनी ही नहीं, दूसरों की भी।
जो मन की लालसाओं का गुलाम है वह न कभी प्रतिभावान बन सकता है, और न दूसरों का नेतृत्व करने योग्य।
मनुष्य का व्यवहार ही वह दर्पण है, जिसमें उसका व्यक्तित्व भली भाँति देखा जा सकता है।
मूर्खता का सबसे अच्छा प्रतिकार उसकी उपेक्षा है। अहंकारी के नटखटपन पर ध्यान न देना ही समझदारी है।
मार्गदर्शन का तात्पर्य उस दिशा-धारा के– रीति नीति के– अपनाये जाने से है जिसके आधार पर क्या करना? क्यों करना? किसलिए करना? जैसे प्रश्नों का समावेश होता है। दूरगामी हित-अनहित का पर्यवेक्षण करते हुए ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है जिससे अपना आत्मिक-आत्यन्तिक हित साधन हो। परिस्थितियाँ ऐसी बनें जिनमें आत्मसंतोष, लोक सम्मान एवं दैवी अनुग्रह की कमी न रहे। ऐसा राजमार्ग लोक व्यवहार का कोई पक्ष नहीं सिखाता वरन् तत्वदर्शन के गहन मंथन से ही उपयोगी निष्कर्ष निकालता है। इसे अपनाने पर सर्वप्रथम निजी जीवन में कुछ हेर फेर करने पड़ते हैं। अभ्यस्त गतिविधियों में अंतर उत्पन्न करना पड़ता है। साथ ही उस मार्ग से तनिक हटकर चलना पड़ता है, जिस पर जन साधारण को अंधी भेड़ों के समूह की तरह दौड़ लगाते देखा जाता है। अपना निज का स्तर बदले बिना कोई व्यक्ति उस पदवी को प्राप्त नहीं कर सकता जिसे, मार्गदर्शक या धर्मोपदेशक नाम से जाना जाता है। वस्तुतः यह मानवी गरिमा को गौरवान्वित कार्यान्वित करने वाला स्तर है। इसके लिए कोई रहस्य भरी, कौतूहलमयी विद्या नहीं अपनानी पड़ती। सत्य और तथ्य को अपनाने भर से इस दिशा में प्रगतिक्रम चल पड़ता है। लोक शिक्षण का आरम्भ अपने आपे से होता है। जो अपने को नहीं सिखाया जा सका, जिसे अपनी जीवनचर्या में स्थान नहीं मिल सका उसे कथा, प्रवचनों के सहारे दूसरों को सहमत तत्पर किया जा सकेगा, यह आशा नहीं ही करनी चाहिए।
भौतिक सम्पदाओं का अपना महत्व और अपना स्थान है। उनके सहारे सुविधा साधन खरीदे जा सकते हैं। विलास-सामग्री का उपयोग हो सकता है। बड़प्पन का ठाट-बाट दिखाकर दर्शकों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न किया जा सकता है। अमीर कहलाने जितना वैभव भी संग्रह हो सकता है। किन्तु यह नहीं हो सकता कि ऐसा प्रभावी मार्गदर्शन बन पड़े, जिसका अभिनन्दन हो सके, अनुकरण किया जा सके। इसके लिए न्यूनतम योग्यता, आदर्शवादी चरित्र निष्ठा को अपनाया जाना है। ऐसों के प्रति ही श्रद्धा उत्पन्न होती है और उनकी कथनी को एक कोने पर रखकर करनी को अपनाने की अन्तः प्रेरणा उठती है। वही फलवती भी होती है। मार्गदर्शक ऐसे ही व्यक्ति हो सकते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के लिए कहा गया है “अप्प दीपो भव” अर्थात् तुम अपने दीपक स्वयं बनो, प्रकाशवान बनो। दूसरों को प्रकाश दिखाओ एवं स्वयं भी प्रकाशित होकर रहो। ऐसे व्यक्ति ही दूसरों को व्यक्तित्ववान, चरित्रवान, प्रतिभावान बना सकते हैं। सर्वतोमुखी प्रगति इसी तथ्य पर अवलम्बित है। दुर्भाग्य वश आज इन्हीं दीपकों की, प्रकाश स्तम्भों की कमी है। यह शून्यता समाज परिकर के विकास के लिए बड़ी हानिकारक है।
व्यक्तित्व को भारी भरकम बनाने की शिक्षा देने और उस पर चलने के लिए सहमत करने के लिए मार्गदर्शक की आर्थिक पवित्रता सर्वोपरि है। आर्थिक पवित्रता का अर्थ चोरी, बेईमानी, ठगी आदि नहीं वरन् “औसत नागरिक स्तर का जीवन” है। इसी सूत्र में समूची ईमानदारी एकत्रित हो जाती है। जो औसत नागरिक से बढ़कर आहार-विहार की शौक-मौज की, ठाटबाट-अहंकार की इच्छा नहीं करता, वह परिश्रम की कमाई से भली प्रकार पेट भर सकता है। उसे आर्थिक छल-प्रपंच करने की, शोषण, उत्पीड़न करने की आवश्यकता न पड़ेगी। इतना ही नहीं संयम की सहेली उदारता के साथ छाया की तरह साथ रहने पर यह भी बन पड़ेगा कि सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए समयदान, अंशदान के कुछ कहने योग्य अनुदान प्रस्तुत कर सकें। लीक से हट कर चल सकने का साहस अपनाते ही “सादा जीवन उच्च विचार” की परम्परा अपनानी पड़ती है। गुजारा इस स्तर का करना पड़ता है जिससे न तो किसी को विलासिता का, बेईमानी का लाँछन लगाना पड़े और न विषमताजन्य ईर्ष्या किसी का इस मार्ग में गला दबोचे। ईमानदारी का निर्वाह इससे कम में नहीं होता और उसके बिना वाणी में वह प्रभाव उत्पन्न नहीं होता, जो किसी को आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकें।