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Magazine - Year 1986 - Version 2

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श्रम साधनों का उपयोग सत्प्रयोजनों के लिए

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विज्ञजनों को यह आवश्यकता सदा टोंचती, कचोटती रही है कि विश्व में उपयोगी परिवर्तन लाने के लिए कर्मठ लोग सेवियों की आवश्यकता पूरी होती रहनी चाहिए। परमार्थ के लिए उदार साहसिकता की तो प्रधान आवश्यकता है ही, पर उनका शिक्षण और निर्वाह भी ऐसे पक्ष हैं जिनकी ओर से आँख मूँद कर नहीं रहा जा सकता।

कोई समय था जब भिक्षा और दान दक्षिणा के आधार पर समाज सेवी अपनी व्यवस्था स्वयं कर लेते थे। जन मानस भी ऐसा था कि जन जीवन में प्राण फूँकने वालों की उपयोगिता अनुभव करते हुए उनकी निर्वाह आवश्यकता सहज ही जुट जाती थी। पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। हट्टे-कट्टे भिखमंगे चित्र-विचित्र आडम्बर बनाकर जब जनता को बुरी तरह लूटने खाने लगे हैं, तो विवेकवानों की मुट्ठी उनका पोषण करने के लिए नहीं खुलती। इसका परिणाम यह होता है कि गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। स्थिति को देखते हुए स्वाभिमानी लोक सेवी अपने निर्वाह की व्यवस्था के लिए मित्र साथियों से भी नहीं कहते। भूखे भजन होता नहीं। इस कुचक्र में लोक सेवियों का एक बड़ा दल मन मसोस कर बैठा रहता है। जो निर्वाह की सुविधा होने पर अपना जीवन समर्पित कर सकता था और ऐसा कुछ कर दिखा सकता था जिससे समय की महती आवश्यकताएँ पूरी हो सकतीं।

इस दिशा में सर्वप्रथम ध्यान बौद्ध संघारामों का गया था। उनने भिक्षुओं को दीक्षा ही नहीं दी, उनके निर्वाह, प्रशिक्षण और मार्ग व्यय की व्यवस्था के लिए स्थायी कोष बनाये। हर्षवर्धन, बिम्बसार, अशोक, चन्द्रगुप्त ने अपने राज्यकोष इस निमित्त खाली कर दिये थे कि लोक सेवी अपनी उमंगों पर तुषारापात हुआ अनुभव न करें। अम्बपाली और अंगुलिमाल ने अपना करोड़ों का उपार्जन तथागत के चरणों में इसी प्रयोजन के निमित्त सौंपा था। इससे बढ़कर अनीति उपार्जन का और कोई प्रायश्चित हो भी नहीं सकता। दान की श्रेष्ठता तभी है, जब उसके सत्परिणाम प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर हों।

ईसाई मिशन ने उसी परम्परा का अनुकरण किया। उनके पास स्थिर सम्पदाएँ जमा हैं, पर उसका उपयोग विश्व के कोने-कोने में फैले हुए पादरियों के निर्वाह हेतु तथा लोकसेवा के प्रभावोत्पादक कार्यों में ही होता है। ईसाई मिशनों ने 600 भाषाओं में बाइबिल तथा अरबों की संख्या में धर्म पुस्तकें छाप कर सस्ते मोल में उन्हें शिक्षित वर्ग तक पहुँचाया तथा अशिक्षितों को सुनाने का प्रबंध किया है। हर छोटे बड़े चर्च में एक पाठशाला और एक डिस्पेन्सरी काम करती हुई देखी जा सकती है।

राजपूत परिवारों में परम्परा थी कि घर का एक व्यक्ति देश रक्षा के लिए सेना में भर्ती होता था। जिन दिनों सिख धर्म का उदय हुआ था, उन दिनों भी यह प्रथा चली थी कि दीक्षित परिवारों में से एक सदस्य ‘सिख’ वर्ग में सम्मिलित हो और उसका खर्च परिवार के अन्य सदस्य मिल जुलकर उठायें। मुस्लिम धर्म में हर ईमान वाले को जकात देने के लिए बाधित किया गया है, ताकि धर्म कार्यों के लिए आवश्यकताएँ रुकने न पायें।

इस दिशा में राष्ट्रीय आन्दोलनों के दिनों दो प्रयास ऐसे ही ठोस स्तर के हुए। गोखले ने “सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी” के नाम से तथा लाला लाजपतराय ने “पीपुल्स आफ इंडिया सोसाइटी” के नाम से कोष जमा किये। इनकी ब्याज से उन कार्यकर्त्ताओं की निर्वाह व्यवस्था होती थी जो समर्पित भाव से देश सेवा के कामों में निरन्तर लगे रहते थे। इन छोटे-छोटे आधारों ने देश को इतने महत्वपूर्ण एवं उच्चस्तरीय नेता प्रदान किये कि आन्दोलन प्राणवान हो उठा।

यो गाँधी स्मारक निधि, कस्तूरबा स्मृति निधि, तिलक स्वराज्य फण्ड आदि भी ऐसे ही उद्देश्यों के लिए एकत्रित किये गये थे, पर उनकी कार्य पद्धति बहुमुखी तथा बिखरी रहने के कारण ऐसा परिणाम दृष्टिगोचर न हुआ जैसा कि प्राचीन धर्म ट्रस्टों का हुआ करता था। बुद्ध संघाराम इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे।

श्राद्ध प्रथा का एकमात्र यही उद्देश्य था कि यदि पूर्वजों की छोड़ी पूँजी में से आश्रितों का निर्वाह काटकर यदि कुछ बचता है तो उसे धर्म चेतना के अभिवर्धन में लगा दिया जाय। धर्मशालाएँ ऐसे ही कार्यक्रमों के केन्द्र रूप में बनती थीं। उनका लाभ सैलानी नहीं उठाते थे। उठाते थे तो तत्काल किराये से अधिक राशि उन धर्म संस्थानों में अभीष्ट प्रयोजनों के लिए जमा कर देते थे।

रासबिहारी बसु एवं सुभाषचन्द्र बोस ने भी अपनी सम्पदा का ट्रस्ट बनाया था ताकि उससे विदेशों में देश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चलता रहे। इसी प्रयोजन से एक फण्ड राजा महेन्द्रप्रताप ने भी बनाया था।

इन्हें सदुपयोग कहा जा सकता है। दुरुपयोग की तो चर्चा ही क्या करनी। सिनेमा आज का सबसे प्रबल प्रचार माध्यम है। उसके उत्पादनों में कामुकता भड़काने वाले तत्व ही अधिक भरे रहते हैं। अखबार भी बहुत कुछ कर सकते हैं, पर उनकी अपनाई गई रीति-नीति में भी विचित्रता और विडम्बना ही भरी दीखती है। धर्मार्थ न्यासों की कमी नहीं, पर उस राशि से भी निठल्लों का ही भरण-पोषण होता रहता है। यह राशि अथवा साधन सामग्री यदि योजनाबद्ध रूप में सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगी होती तो उसके परिणाम भी कुछ और ही दीख पड़ते।

बकिर्धम के एक व्यक्ति का वात्सल्य उमड़ा, उसने विवाह करने और बच्चे पैदा करने की अपेक्षा, गई गुजरी स्थिति में पड़े हुए बालक एकत्रित किये और उन्हें सुशिक्षित स्वावलम्बी बनाने का निश्चय किया। अपनी निज की पूँजी समाप्त करने के उपरान्त उसने दूसरों से माँगना आरम्भ किया। प्रभाव इसी प्रकार पड़ता है कि अग्रगामी पहले स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करें और बाद में दूसरों से याचना करे। उस विद्यालय में आजकल 2500 बच्चे शिक्षा प्राप्त करते और सभ्यता के क्षेत्र में साधारणों की तुलना में कहीं अधिक भारी बैठते हैं। संस्थापक ही उनका अभिभावक है। वह उनकी व्यवस्था ही नहीं करता वरन् प्यार भरी आत्मीयता की आवश्यकता भी पूरी करता है। नेपल्स (इटली) के पादरी बोरेली ने भी इसी प्रकार निराश्रित आवारा बच्चों के अभिभावक की भूमिका निभाई। प्रत्येक को स्वावलम्बी बनाया एवं वे सभी अब स्वाभिमान भरी जिन्दगी जी रहे हैं। अभी भी वहाँ प्रतिवर्ष बच्चे आते हैं व वैसा ही प्यार पाते हैं, जैसा उनके माँ-पिता उन्हें देते।

पंडित पुरोहितों को तीर्थ आश्रमों में देवताओं या कर्मकाण्डों के बहाने दान की राशि इसीलिए दी जाती थी कि उसका उपयोग मानवी गरिमा को ऊँचा उठाने वाले सत्प्रवृत्ति संवर्धन के कार्यों में हो। भिक्षा को व्यवसाय बनाकर गुलछर्रे उड़ाने का प्रचलन न कभी प्रबुद्ध धर्म में रहा है और न अगले दिनों रहने वाला है। जिन्हें ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग मुक्ति की मौज खरीदनी है, उन्हें उसका मूल्य जनसाधारण में ईश्वर या धर्म की दुहाई देकर वसूल नहीं करना चाहिए।

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