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एक चिकित्सक कन्फ्यूशियस के पास पहुँचा और बोला- “मुझे अनेक रोगों ने घेर रखा है। अपना और दूसरों का इलाज करते-करते थक गया। कोई ऐसा उपाय बतायें जिससे निरोग हो सकूँ।”
कन्फ्यूशियस ने कहा- रोगों की जड़ मन में है। अपने चिन्तन में शालीनता और व्यवहार में उदारता बढ़ाओ। जड़ कटने पर शरीर में बीमारियों की पौदें सहज ही सूख जायेंगी।
सज्जनता और निरोगता दोनों अन्योन्याश्रित हैं।
उस देश में एक प्रशिक्षकों का विश्वविद्यालय बन रहा था। उसके लिए चंदा इकट्ठा किया जा रहा था। धन कमेटी ने अनुत्साह पूर्वक उस कृपण के यहाँ चलने का भी निश्चय किया। घुसते ही एक को छोड़कर सब बत्तियाँ बुझ गईं, तो उनने समझ लिया कि इस कृपण के यहाँ से कुछ मिलना-जाना नहीं है। संकोच पूर्वक समिति ने पाँच हजार डालर की प्रार्थना की। चूँकि योजना धनाढ्य के मन की थी और वह उसी निमित्त एक-एक कौड़ी करके धन जमा करता रहा था, ऐसी यूनिवर्सिटी खुलने की उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई। उसने पाँच हजार के स्थान पर पचास हजार डालर का चैक दिया। जब समिति आश्चर्य व्यक्त करने लगी, तो उसने कहा- “चूँकि काम मेरे मन का है, इसलिए मैं अपनी पचास करोड़ डालर की पूरी सम्पदा दूँगा, पर पच्चीस पच्चीस लाख की किश्तों में, ताकि यह देखता चलूँ कि काम उसी स्तर का उसी प्रकार हो रहा है या नहीं, जैसा कि मैं चाहता हूँ।” अन्ततः उसकी सारी पूँजी उस विश्वविद्यालय में ही लगी।
यह सम्पन्न लोगों की एकाकी साहसिकता के उदाहरण हैं, पर यह आवश्यक नहीं कि अधिक लोग ऐसी स्थिति में हों और ऐसा बड़ा साहस कर सकें, किन्तु जिसकी जितनी क्षमता और उदार साहसिकता है, वह उस अनुपात में कुछ तो दे ही सकता है, उन कामों के लिए जिनकी परिणति असंदिग्ध हो, जिनसे वस्तुतः लोक कल्याण सधता हो।
ऐसे उदाहरणों में मथुरा जिले की एक बाल विधवा का प्रसंग है, जो दिन भर आटा पीसती और दो आने रोज कमाती थी। उसने सोचा कि कमाई में पुण्य का भी एक अंश होना चाहिए, वह दो पैसे रोज बचाती रही। बूढ़ी हुई तब उसने एक पक्का कुँआ बनवा दिया। उसका पानी असाधारण रूप से मीठा, ठंडा और गुणकारी निकला। पिसनहारी का कुँआ अब भी विद्यमान है और उससे लाभ उठाने वाले निर्माणकर्ता की उदारता को भूरि-भूरि सराहा करते हैं।
भगवान बुद्ध ने एक विशाल संघाराम निर्माण के लिए धनिकों की गोष्ठी बुलाई। सभी ने उदारतापूर्वक दान दिया। पीछे यह पूछा गया कि सबसे बड़ी राशि कितनी थी, तो एक घसियारे के पचास पैसे की घोषणा की गई। यह उसकी शत-प्रतिशत पूँजी थी और उसे दे चुकने के बाद उस दिन उसे भूखा सोना पड़ा था। पुण्य, धन की मात्रा पर निर्भर नहीं, वरन् इस तथ्य पर अवलम्बित है कि किसने अपने साधनों का कितना बड़ा अंश पुण्य कार्य के निमित्त भावपूर्वक समर्पित किया।