
अभिनेता नहीं नेता बनें
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नेता और अभिनेता में थोड़ा-सा ही अन्तर होता है। सच पूछा जाय तो ‘अभि’ शब्द अतिरिक्त रूप से जुड़ जाने से उसका महत्व और भी अधिक प्रतीत होता है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। नेता को अपने त्याग, पुरुषार्थ, आदर्श और साहस के बल पर जनसाधारण के अन्तःकरण में इतनी गहरी जड़ें जमानी पड़ती हैं, जिसके आधार पर उनका श्रद्धा-विश्वास सदा अक्षुण्ण बना रहे और अनुकरण की, आदेश पालन की उत्कंठा स्वयमेव जग पड़े, वह समर्थन-सहयोग देने में आनाकानी न करे, अनुकरण की उत्कंठा रोक न सके और कदम मिलाते हुए हाथ बँटाते हुए साथ चल पड़े।
अभिनेता भीतर से पोला और बनाव-श्रृंगार में चतुर होता है। वाणी को आकाश-पाताल तक उछाल कर अपनी धाक जमाता है। वेष-विन्यास, हाव-भाव का आकर्षण-प्रदर्शन करता है और बीच-बीच में आत्म प्रशंसा का ऐसा पुट लगाता रहता है, जिससे अजनबी लोगों को निरीक्षण-परीक्षण के अभाव में उसकी संरचित प्रवंचना के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने लगे और वे उस पर विश्वास न करें तो प्रशंसा तो करने ही लगें। उसके साथी भी बढ़ा-चढ़ा कर परिचय देते हैं, इससे भी कुछ सम्मोहन जैसा बन जाता है। इतने से कला-कौशल के आधार पर अनेक लोग नेता बनने का प्रयत्न करते हैं, पर सेवा और चरित्र के अभाव में वे उस कलई को देर तक स्थिर नहीं रख पाते, जाँच-पड़ताल की तनिक-सी गर्मी लगते ही वह कलई उड़ जाती है। ढोल की पोल नंगी करने में एक छोटी-सी लकड़ी की नोक भर काफी होती है। कागज के फूलों से सुगन्ध कहाँ आती है। वे गर्मी-नमी भी नहीं सह पाते।
प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत इन दिनों सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया जा रहा है कि जनसमुदाय का सर्वतोमुखी नेतृत्व कर सकने वाले एक लाख की संख्या में वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र तैयार किये जा रहे हैं। दिग्भ्रान्त, पतनोन्मुख और शौर्य-साहस से विहीन बहुसंख्यक जनसमुदाय को हर दृष्टि से समर्थ, समुन्नत बनाने का काम बड़ा है। इसके लिए समर्थ नेतृत्व की अनिवार्य आवश्यकता है। इसे ढीले पोले लोग नहीं कर सकते हैं। जिनमें जीवट नहीं, क्षमता नहीं, प्राण भरी उमंग नहीं, वे अपनी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं कर पाते, फलतः उनकी वाणी भर लोग सुनते और मनोरंजन करते हैं, पर उनका आदेश पालने, अनुकरण करने के लिए ऐसी दशा में तो किसी भी प्रकार तैयार नहीं होते, जब उनसे आदर्श अपनाने और विवेक वादी दूरदर्शिता अपनाने के लिए कहा जाए।
रंगमंचों पर अभिनेताओं को योगी, राजा, विदूषक, धनाध्यक्ष आदि कुछ भी बनाया जा सकता है। इसके लिए उपकरणों की सज्जा जुटाने से काम चल जाता है, किन्तु साथ ही यह भी होता रहता है कि दर्शकों में से प्रत्येक को यह पता चलता रहता है कि यह मुखौटे सजाये गये हैं, इनमें से योगी, राजा कोई नहीं है। ये केवल वेष-मनोरंजन भर कर रहे हैं, नाटक कम्पनी की प्रशंसा भर करा रहे हैं। उनके निज के व्यक्तित्व के बारे में कोई धारणा नहीं बनती। कारण कि बिना कसौटी पर कसे-बिना इतिहास जाने कोई किसी की उत्कृष्टता के संबंध में विश्वास नहीं कर सकता। मात्र कलाकारिता ही होती है, जो अपने उथले अस्तित्व का उस माहौल में परिचय देती रहती है, इतने में ही मदारी का खेल खत्म हो जाता है।
वास्तविक नेतृत्व रेल के इंजन जैसा होता है, जो अपने में अकूत शक्ति भरे रहता है और अपनी क्षमता के आधार पर भारी बोझ से लदे ढेरों डिब्बों को द्रुतगति से सैकड़ों-हजारों मील घसीटता चला जा सकता है। यह कार्य लकड़ी का खिलौना इंजन नहीं कर सकता। आकार बन जाने पर भी शक्ति के अभाव में वह खिलौना इंजन कौतूहल का निमित्त कारण ही बनता है।
शक्ति उनमें होती है, जिनकी कथनी और करनी एक हो, जो प्रतिपादन करें, उसके पीछे मन, वचन और कर्म का त्रिविधि समावेश हो। ऐसे ही लोग महत्वपूर्ण कार्य कर और करा सकेंगे। उदाहरण के लिए पतनोन्मुख लोगों को लिया जा सकता है। शराबी, जुआरी, व्यभिचारी आदि जिनसे संपर्क साधते हैं, उन्हें अपने जैसा बना लेने में सहज सफलता प्राप्त कर लेते हैं। जीवन में अपने जैसे अनेक गढ़कर खड़े कर लेते हैं। महापुरुषों के संबंध में भी यही बात है। बुद्ध, गाँधी, आदि को अपने साथी सहयोगियों का विशाल समुदाय मिल गया था। सामर्थ्यवान व्यक्ति भले हों या बुरे, चुम्बक की तरह अपने जैसे गुण-स्वभाव के लोगों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर एकत्रित कर लेते हैं। वे उनके सच्चे साथी और सहयोगी भी सिद्ध होते हैं। इतिहास के पृष्ठ इसके साक्षी हैं। इसके विपरीत यह भी देखा गया है कि जिनमें पोल भरा ढकोसला ही आधार है, उनका दूसरों पर स्थाई प्रभाव छोड़ना तो दूर, अपने साथियों से भी बहुत दिन तक पटरी नहीं खाती। वे तनिक सी बातों पर आपस में लड़-झगड़ बैठते हैं और हिंस्र पशुओं की तरह एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। जिस प्रकार चोर पैसे के मामले में आपस में टकराते रहते हैं, उसी प्रकार नेता लोग भी प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा बटोरने की आपाधापी में एक-दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। पुत्रेषणा, वित्तेषणा तो किसी प्रकार काबू में रखी जा सकती है, पर सस्ती कीमत में मिलने वाली लोकेषणा ऐसी है, जिसका लोभ संभाले नहीं संभलता। कारगर और प्रतिष्ठित संस्थाओं का सर्वनाश इसी एक कारण से हुआ है कि उनमें महत्वाकांक्षी लोग आपस में पटरी नहीं बिठा सके। कुछ ही वर्ष पूर्व जनता पार्टी का जो हाल हुआ था वह किसी से छिपा नहीं है। फिलहाल काँग्रेस की जो स्थिति है, उससे भी सभी अवगत हैं।
किसी की, उपहार-अनुदान में दी हुई या तिकड़म भिड़ाकर झपटी हुई, चमचों द्वारा ढोंग-ढकोसले की तरह खड़ी की गई नेतागिरी, बालू की भीत जैसी, बेपेंदी के लोटे जैसी होती है। उसे संध्या के बादलों जैसी, धूप-छाँव जैसी समझा जा सकता है। उसकी जड़ें नहीं होती। इसलिए बाजीगर द्वारा हथेली पर जमायी गयी सरसों की तरह उसका अवसान होते देर नहीं लगती। देखा गया है कि जिन अफसरों-मिनिस्टरों को लोग सौ-सौ सलाम झुकाते थे, कुर्सी छिन जाने के बाद उन्हें कोई कौड़ी मोल नहीं पूछता। साग बेचने वाले कुंजड़े तक उनसे कभी-कभी अकड़कर बात करते देखे गये हैं। यह अनुकम्पा का-अनुग्रह का उपहार तनिक-सी गड़बड़ी पर छिन भी सकता है, किन्तु जिसके पीछे ठोस आधार है, उसको कोई हिला नहीं सकता। गाँधी जी काँग्रेस के नियमित सदस्य तक नहीं थे, पर उनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता था। चौराचौरी काण्ड के बाद उनने सत्याग्रह बन्द किया था, इस पर सभी नेता रुष्ट थे, किन्तु जब नमक सत्याग्रह के लिए आवश्यकता पड़ी, तो उन्हीं को आगे लाना पड़ा। पं. नेहरू, पटेल, मालवीय, तिलक, गोखले आदि महामानवों का नेतृत्व किसी के द्वारा उपहार में दिया हुआ नहीं था। उसे उन्होंने पूरी-पूरी कीमत देकर खरीदा था।