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मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। वह भले-बुरे जिस भी रास्ते को अपनाता है, उसी के अनुरूप भाग्य बना लेता है।
स्वराज्य के दिनों में उठती उमंगों वाले युवकों को प्रशिक्षित करके स्वतंत्रता संग्राम को अंगद-हनुमान की तरह उठा ले जाने की आवश्यकता अनुभव की गई। राष्ट्रीय कार्यकर्त्ताओं का उत्पादन उस समय की महती आवश्यकता थी। इसके लिए पैसा चाहिए था। अँग्रेज सरकार के डर से सम्पन्न लोग भी ऐसे कामों में कुछ धन देने से अपने ऊपर आफत आने की आशंकाएँ करते थे। छात्र और उनके अभिभावक भी कुछ अधिक देने की स्थिति में नहीं थे। पैसे के बिना काम अड़ गया। इस व्यवधान को अकेले एक आदमी ने पूरा किया। उनका नाम था- महेन्द्र प्रताप। अलीगढ़ जिले के मुड़सान कस्बे में उनके पास लगभग सौ गाँवों की जागीरदारी थी। उनमें से एक गाँव अपने गुजारे के लिए रखकर शेष 99 गाँवों को उनके अपने नवजात पुत्र के नाम हस्ताँतरित कर दिया। वे निःसंतान थे। पुत्र की चर्चा चलती रहती थी। उनने अपने संकल्पित विद्यालय को ही “मानस पुत्र” माना और उसी दिन प्रेम महाविद्यालय को जन्म देते हुए अपनी सम्पदा उसके नाम हस्तान्तरित कर दी। प्रेम महाविद्यालय बनने और चलने में देर न लगी। देश के लिए उत्सर्ग होने वाले छात्रों के ठठ लग गये। उच्चस्तरीय अध्यापक खोजे गये। डॉ. सम्पूर्णानन्द, आचार्य जुगल किशोर, प्रो. कृष्णचन्द्र जैसे देश के मूर्धन्य समझे जाने वाले नेता प्रविष्ट छात्रों को स्वयं पढ़ाते थे। फलतः पूरा विद्यालय स्वतंत्रता सैनिकों की छावनी बन गया। आन्दोलन आरम्भ होते ही सरकार ने उसे जब्त कर लिया। विद्यार्थी और अध्यापक अपनी गतिविधियों से इस प्रकार आन्दोलन चलाते रहे कि उस जमाने में उत्तर प्रदेश सत्याग्रही सैनिकों की खदान माना जाने लगा। विचारणीय यह है कि राजा महेन्द्र प्रताप की वह विपुल सम्पदा यदि आड़े समय में राष्ट्र के काम न आई होती, तो आन्दोलन में जो चार चाँद लगे, उसमें निश्चित रूप से कमी रह जाती। जमींदारी देते समय उनके परिवार वाले सहमत रहे हों या मित्रों ने उसे बुद्धिमत्तापूर्ण कदम बताया हो, ऐसी बात नहीं है। सभी कहते थे कि पहले अपने मौज-मजे का प्रबंध करना चाहिए और दान के नाम पर इतना थोड़ा-सा देना चाहिए, जिससे अखबारों में फोटो छपने लगे और चापलूस चमचे, चारणों की तरह कीर्ति ध्वजा फहराने और जय-जयकार करने की कीमत प्राप्त कर सकें। यह सब अपने स्थान पर होता रहा और महेन्द्र प्रताप का संकल्प अपने स्थान पर फलित होता रहा।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर उन दिनों 500 रुपए के लगभग वेतन पाते थे। पर उनने अपने परिवार के खर्च के लिए 50 रुपए की राशि ही निश्चित की थी। उतने में ही गुजारा चला लेते थे और शेष बचा हुआ पैसा उन निर्धन विद्यार्थियों की शिक्षा-व्यवस्था में काम आता था, जो पढ़ाई के आवश्यक साधन अपने घरों से प्राप्त नहीं कर सकते थे। ऐसे छात्रों के लिए विद्यासागर ही अभिभावक की भूमिका निभाते थे।
पोलैण्ड की शान्ति के लिए नोबुल पुरस्कार विजेता एक श्रमिक नेता लेक वालेसा ने अपने को मिली राशि में से एक पाई को भी अपने लिए नहीं छुआ, वरन् वह सारा धन श्रमिक आन्दोलन को गतिशील बनाने के लिए हाथों हाथ हस्तान्तरित कर दिया।
ठीक इस प्रकार एक नोबुल पुरस्कार विजेता उच्च शिक्षित पादरी अलबर्ट श्वाइत्जर ने अपने को अफ्रीका के कोढ़ियों के लिए समर्पित किया। यह छूत उन्हें भी लग गई थी, तो भी वे मरते दिन तक उस व्रतशीलता को निबाहते रहे। उन्हें भी नोबुल पुरस्कार मिला था। उस लाखों की रकम को उनने कोढ़ी परित्राण के लिए ही दान कर दिया। शरीर और मन तो वे पहले ही दे चुके थे।
अल्फ्रेड नोबुल स्वयं एक बड़े व्यापारी थे। युद्ध के दिनों उनका व्यापार खूब चमका और करोड़ों डालर उनके पास इकट्ठे हो गये। ओछे मनुष्य, विलास संग्रह, ठाटबाट, प्रशंसा आदि के लिए खर्च करते हैं और जो बचता है, उसे कानूनी उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ जाते हैं। आम प्रचलन यही है। पर लकीर से हटकर नोबुल ने दूसरी तरह सोचा। अपनी सारी सम्पदा बैंक में जमा कर दी और ट्रस्ट बना दिया ताकि उसकी ब्याज से विश्व में उदाहरण प्रस्तुत करने वाले विभिन्न फैकल्टीज के मूर्धन्य जनों को पुरस्कार में वह ब्याज की राशि प्रति वर्ष दी जाया करे। हर वर्ष दर्जनों लोगों को उसी राशि में से लाखों के पुरस्कार मिलते हैं और बढ़-चढ़कर काम करने के लिए अगणित-जन प्रोत्साहित होते हैं। नोबुल को भी अन्य धनाढ्यों की तरह दुर्बुद्धि ही घेरे रहती, तो उनका धन गंदी नालियों में होकर बहता और जहाँ कहीं भी पहुँचता, वहीं अनर्थ करता।
अमेरिका के एक करोड़पति पैसे को इतना प्यार करते थे कि उनने शादी तक नहीं की कि स्त्री-बच्चों पर खर्च करना पड़ेगा। उनसे कोई मिलने आता था तो सिर्फ एक बत्ती कमरे में जलने देते थे, ताकि अधिक बिजली जलने से पैसे की हानि न हो।