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मेघ समुद्र से झपटता, खारे को मीठा बनाता, नीचे से ऊँचा उठता और बिना प्रतिफल की आशा के जी खोल कर बरसता है। इसी को कहते हैं- जीवन।
वकालत को बीच में ही छोड़कर उनने जो गतिविधियाँ अपनाई, उनकी जानकारी सभी को है। दक्षिण अफ्रीका में जाति भेद के विरुद्ध संग्राम में वे डटे। उनका साथ देने के लिए हजारों भारतीय आये और आन्दोलन की सफलता को एक बड़ी सीमा तक ले पहुँचे। आशंका यह थी कि दुनिया कायर कमजोरों से भरी पड़ी है। जिससे प्रत्यक्ष स्वार्थ सिद्ध न होता हो उसे करने के लिए कोई सहज तैयार नहीं होता, बगलें झाँकता है, बहाने बनाता है और आँखें चुराता है। आशंका अपनी जगह काम करती रही पर साथ ही यह भी होता रहा कि एक साहसी के आगे बढ़कर हुँकार जगाने पर जिनके अन्दर भावनायें जीवित थीं वे चुप न बैठ सके और दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उन विकट परिस्थितियों में भी अपनी शान के साथ चला।
गाँधी जी भारत लौटे। गोखले जैसे रत्न पारखी ने इस चरित्र, साहस और आदर्श के धनी को पहचाना, परखा और काँग्रेस आन्दोलन में घसीट लिया। गोखले ने पहला काम उनसे भारत भ्रमण का कराया ताकि देश की दयनीय स्थिति को आँखों देखते हुये निर्णय किया जा सके कि इन असहायों की सहायता करना आवश्यक है या अपने लिए वैभव-बड़प्पन जमा करना। एक वर्ष के भारत भ्रमण से उनने दृढ़ संकल्प कर लिया कि भारत माता को विपन्नता के चंगुल से छुड़ाने से बढ़कर जीवन का और कोई श्रेष्ठ सदुपयोग हो नहीं सकता। स्वतंत्रता संग्राम छेड़ने की योजना बनी और वह अनेकों मोड़-मरोड़ों, व्यतिरेक व्यवधानों को पार करती हुई गंगा की अविच्छिन्न धारा की तरह बहती रही। रुकी तब, जब उसने लक्ष्य को पूरी तरह प्राप्त कर लिया।
अहिंसात्मक स्वतंत्रता संग्राम की सफलता के रहस्यों पर जिनने गंभीरतापूर्वक विचार किया है, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारत माता को एक ऐसे सपूत का आधार अवलम्बन मिल गया जो अपने व्यक्तित्व, चरित्र, त्याग, साहस और सज्जनता का धनी था। यदि देश को गाँधी नहीं मिलते तो एक प्रश्न खड़ा होता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन को जितनी तीव्रता और सरलता से सफलता मिली, वैसा बन भी पड़ती या नहीं?
गाँधी जी ने भ्रमण किया और जनसंपर्क साधा। इस प्रयास से उन्हें गहरे समुद्र में डुबकी मार कर मणि मुक्तक बटोरने वाले पनडुब्बों जैसी सफलता मिली। लक्ष्य के प्रति दूसरे लोगों में भी व्याकुलता थी, पर नेतृत्व एवं संगठन एवं निश्चित कार्यक्रम के अभाव में वे कुछ कर नहीं पा रहे थे। मन मसोसे बैठ थे। इन सभी को उन्होंने अपने अंचल में समेट लिया। एक से एक बढ़ कर व्यक्तित्व के धनी उन्हें मिलते चले गये। इतने ऊँचे स्तर के और इतनी बड़ी संख्या में अनेक को साथ घसीट ले चलने वाले सत्याग्रही नेता मिल गये, जिसकी मिसाल इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। बिजली छूने वाले को भी करेंट पहुँचता है। गाँधी जी की लगन ने इतना जन सहयोग एकत्रित किया जिसने सारे वातावरण को हिला दिया। त्याग बलिदान के ढेर लग गये और अन्ततः उस सरकार को बोरिया बिस्तर बाँधना पड़ा जिसके साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था। इस असंभव को संभव होते हुये देखकर हर किसी को कहना पड़ा कि खरे व्यक्तित्व में हजार हाथी के बराबर बल होता है और वह औचित्य की आवाज से जमीं आसमान तक उठा सकता है, अदम्य तूफान उठा सकता है।
गाँधी जी ‘महात्मा’ कहे जाते थे पर उनने जप, तप, योगाभ्यास, ध्यान, समाधि, मुद्रा, तंत्र मंत्र आदि कुछ भी नहीं किये थे। वे तो सच्चे मन से जनता में घुल भर गये थे। उनने देश की गरीबी को देखते हुये आधी धोती पहनने और आधी ओढ़ने का रवैया अपनाया था। सदा रेल के थर्ड क्लास में सफर करते थे। एक बार वायसराय ने जरूरी परामर्श के लिए हवाई जहाज से बुलाया पर वे अपने व्रत से डिगे नहीं। रेल के थर्ड क्लास में बैठकर ही दिल्ली पहुँचे। उनकी खजूर की चटाई, सरकंडे की कलम, रस्से की बनी चप्पल अभी तक सुरक्षित हैं जो बताती हैं कि नेता को जनता के स्तर से अधिक खर्च नहीं करना चाहिए। वे उन महात्माओं में से नहीं थे जो सोने चाँदी की अम्बारी वाले हाथी पर चँवर डुलाते हुये निकलते हैं। यदि गाँधी जी ने ठाट बाट बनाया होता तो उसके लिए भी पैसा मिल जाता पर ठाट और अहंकार को देखकर जनता की श्रद्धा आधी चली जाती।