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Magazine - Year 1988 - Version 2

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Language: HINDI
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आत्म शक्ति का संवर्धन एवं प्राण योग

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अध्यात्म क्षेत्र के वैज्ञानिकों ने, तपस्वी ऋषियों ने प्राण तत्व की अति महत्वपूर्ण शोध किसी समय की थी और उससे लाभ उठाने की साँगोपाँग किया पद्धति-”प्राणायाम” को सर्वसाधारण के सामने प्रस्तुत किया था। यह एक सुविस्तृत विज्ञान है जिसे छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। फेफड़ों को मजबूत बनाने और वायु विकारों के समाधान करने के लिए गहरी श्वास लेना डीप ब्रीदिंग प्राणायाम की हलकी किस्म है। इसे स्वास्थ्य संरक्षण के लिए काम में लाया जाता है। संध्यावंदन में इसी किस्म के प्राणायाम का प्रयोग किया जाता है, ताकि वायु संचारक अंगों का हल्का-सा व्यायाम होता रहे और उन अंगों से संबंधित रोगों से ग्रस्त होने का अवसर न आये।

किन्तु प्राणशक्ति का वह एक छोटा सा चमत्कार है। यदि इस जीवनी शक्ति की प्राण प्रवाह की अतिरिक्त मात्रा को किसी प्रकार बढ़ाया, कमाया जा सके, उसे विकसित और व्यवस्थित किया जा सके तो न केवल रुग्णता पर विजय प्राप्त करके स्वास्थ्य और परिपुष्टता का लाभ उठाया जा सकता है वरन् उस आधार पर व्यक्तित्व को प्रखर तेजस्वी एवं दिव्य क्षमता सम्पन्न भी बनाया जा सकता है।

प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं। विविध प्रयोगों के लिए उसकी विभिन्न प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई हैं। उन सबके अपने-अपने विद्यान और अपने-अपने लाभ हैं। उन सबका उल्लेख यहाँ न करके केवल तीन निर्धारणों का उल्लेख किया जा रहा है। वह सरल भी है, बेजोखिम भी और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी भी।

रक्त नाड़ियों के साथ-साथ प्राण प्रवाह भी जलता है। जिस प्रकार नालियों में कीचड़ जम जाती है, उसी प्रकार इन प्राण नाड़ियों में भी अवरोध उत्पन्न हो जाते हैं। इन्हें साफ न किया जाय तो प्राण संचार प्रक्रिया अवरुद्ध होती है। इसलिए सर्वप्रथम नाड़ी शोधन प्राणायाम करने का विद्यान है। इस अभ्यास के साथ-साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम भी चलाया जा सकता है और तीसरा सूर्यवेधन प्राणायाम भी। सूर्य से प्राणशक्ति आकर्षित करने और अपने में धारण करने की यह विधियाँ एक-एक करके या समन्वित रूप से भी की जा सकती है।

प्राणायाम के लिए सर्वोत्तम समय प्रातःकाल का-ब्रह्ममुहूर्त का है। कारण यह है कि उस समय अन्तरिक्ष में प्राण तत्व का प्रवाह अत्यन्त तीव्र होता है तथा विशिष्ट प्रकार की चैतन्य धाराएँ सूक्ष्म केन्द्रों से समूचे ब्रह्मांड में प्रवाहित होती है। करने को तो कभी भी प्राणायाम किया जा सकता है, उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, पर प्रातःकाल जैसा लाभ अन्य समय में नहीं मिल पाता। अस्तु प्राणायाम के लिए सबसे श्रेष्ठ समय प्रातःकाल को ही माना गया है। तीनों प्राणायामों की प्रक्रियाएँ क्रमशः निम्न प्रकार हैं-

(1) नाड़ी शोधन प्राणायाम

इस प्राणायाम की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है-

प्रातःकाल पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठे। पालथी मारकर सुखासन के अनुरूप बैठा जा सकता है। कमर सीधी हो तथा नेत्र अधखुले।

दाहिने नासिका छिद्र को बन्द रखें। बाएँ से श्वास खींचें और उसे धीरे-धीरे नाभिचक्र तक ले जायें। ध्यान करें कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ साँस उसे स्पर्श कर रहा है।

जितने समय में साँस खींचा गया था। उतने ही समय तक भीतर रोकें और ध्यान करते रहें कि नाभिचक्र में स्थित पूर्ण चन्द्र के प्रकाश को खींचा हुआ श्वास स्पर्श करके शीतल और प्रकाशवान बना रहा है।

जिस नथुने से साँस खींचा था उसी बाएँ छिद्र से ही बाहर निकालें और ध्यान करें कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापस लौटने वाली प्रकाशवान एवं शीतल वायु इड़ा नाड़ी की छिद्र नलिका को शीतल एवं प्रकाशवान बनाती हुई वापस लौट रही है। साँस छोड़ने की गति अत्यन्त धीमी हो। कुछ देर साँस बाहर रोकिए-बिना श्वास के रहें। बाएँ से ही इस क्रिया को तीन बार दोहराएं।

जिस प्रकार बाएँ नथुने से पूरक, कुँभक, रेचक एवं बाह्य कुँभक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी करें। नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर इस बार सूर्य का ध्यान कीजिए तथा साँस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य की छूकर वापस लौटने वाली वायु पिंगला नाड़ी के भीतर उष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है। बाएँ नासिका के छिद्र को बन्द रखकर दाहिने से भी इस क्रिया को तीन बार करें।

अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए। दोनों से सहज क्रम में लम्बा श्वास खींचिए और थोड़ी देर भीतर रोककर तथा मुँह खोलकर साँस बाहर निकाल दीजिए। यह क्रिया मात्र एक बार ही करना चाहिए।

इस तरह तीन बार बाएँ नासिका से साँस खींचते और छोड़ते हुए नाभिचक्र का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से श्वास खींचते और छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश का ध्यान एक बाद दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से साँस निकालने की प्रक्रिया, इन सबसे मिलकर एक पूर्ण नाड़ी शोधन प्राणायाम बनता है। आरम्भ तीन प्राणायाम से करना चाहिए। हर माह एक-एक क्रमशः बढ़ाते हुए सात माह में दस तक इसकी संख्या पहुँचायी जा सकती है।

(2) प्राणाकर्षण प्राणायामः

इस प्राणायाम की सफलता पूरी तरह इच्छा, भावना एवं संकल्पशक्ति की दृढ़ता के ऊपर निर्भर करती हैं। प्रक्रिया इस प्रकार है-

प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके सहज आसन में ध्यान मुद्रा की स्थिति में बैठें। आंखें बन्द करके ध्यान करें कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राण तत्व हिलोरें ले रहा है। गरम भाप के सूर्य के प्रकाश में चमकती हुई बादलों जैसी शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों और उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चिन्त, शान्त चित्त, निर्विकार एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए है।

नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरंभ करे तथा भावना करें कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींचे रहे हैं। अपने चारों ओर बिखरा हुआ प्राण प्रवाह नासिका द्वारा श्वास के साथ शरीर के भीतर प्रविष्ट हो रहा है और मस्तिष्क, हृदय, पेट, आँतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है। जब साँस पूरी खींच लें तो उसे भीतर रोकें और भावना करें कि-जो प्राण तत्व खींचा गया है, उसे हमारे भीतरी अंग-प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख लेती है, उसी प्रकार हमारे अंग सुखी मिट्टी के समान हैं और जल रूपी इस खींचे हुए प्राण को सोखकर अपने अंदर सदा के लिए धारण कर रहे हैं। साथ ही प्राण तत्व में सम्मिलित चेतना, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम जैसे अनेकों तत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों में स्थिर हो रहे हैं।

जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे उसे बाहर निकाल दें। साथ में यह भावना करें कि प्राण वायु का सारतत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों द्वारा सोख लिए जाने के बाद अब विकारयुक्त वायु साँस के माध्यम से बाहर निकाला जा रहा है। शरीर, मन और मस्तिष्क में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गये हैं और काले हुएँ के समान अनेक दूषणों को लेकर बाहर निकल रहे हैं।

पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर बाहर साँस रोके रहें और भावना करें कि अन्दर के जो दोष बाहर निकल गये थे उनकी वापस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहें है।

यह प्राणाकर्षण की पूरी प्रक्रिया हुई जिसे आरंभिक चरण में पाँच की संख्या में आरंभ करना चाहिए अर्थात् उपरोक्त प्रक्रिया पाँच बार दोहराई जाय। हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया क्रमशः बढ़ाते हुए एक वर्ष की अवधि में आधे घण्टे समय तक पहुंचायी जा सकती है।

(3) सूर्यवेधन प्राणायामः

सूर्यवेधन प्राणायाम का प्रमुख लक्ष्य मूलाधार स्थित कुण्डलिनी महाशक्ति का उद्दीपन है। इस प्राणायाम की प्रक्रिया इस प्रकार है-

किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातःकाल अथवा सायंकाल की बेला में स्थिर चित्त होकर बैठना चाहिए। आसन सहज हो, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटने पर दोनों हाथ, यह प्राण मुद्रा कहलाती है। सूर्यवेधन प्राणायाम के लिए इसी मुद्रा में बैठना चाहिए।

दाएँ नासिका का छिद्र बन्द करके बाएँ से धीरे-धीरे श्वास खींचना चाहिए। भावना यह हो कि वायु के साथ प्राण ऊर्जा की प्रचुर मात्रा मिली हुई है। उस प्राण ऊर्जा को सुषुम्ना मार्ग में वाम मार्ग के ऋण विद्युत प्रवाह इड़ा धारा द्वारा मूलाधार तक पहुँचाना-वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरना, थपथपाना, जागृत करना-यह सूर्यवेधन प्राणायाम का पूर्वार्द्ध है। उत्तरार्द्ध में प्राण को पिंगला(मेरुदण्ड के दक्षिण मार्ग के धन विद्युत प्रवाह) में से होकर वापस लाया जाता है। जाते समय अंतरिक्ष स्थित प्राण शीतल होता है- ऋणधारा भी शीतल मानी जाती है। इसीलिए इड़ा को-पूरक को चन्द्रवत् कहा जाता है। इड़ा को चन्द्र नाड़ी कहने से यही प्रयोजन है। लौटते समय अग्नि उद्दीपन-प्राण, प्रहार की संघर्ष प्रक्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है। लौटने के पिंगला मार्ग धन विद्युत का क्षेत्र होने से उष्ण माना गया है। दोनों ही कारणों से प्राण उष्ण रहता है, इसलिए उसे सूर्य की उपमा दी गई है। इड़ा चन्द्र और पिंगला सूर्य है। पूरक चन्द्र और रोचक सूर्य है, योग ग्रन्थों में ऐसा ही वर्णन मिलता है।

साधना में क्रिया-कृत्यों की तुलना में भावना एवं संकल्प का महत्व अधिक है। साधक को इसके अनुरूप ही लाभ मिलता है। श्वास द्वारा खींचें हुए प्राण को मेरुदण्ड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुँचाने का संकल्प दृढ़ता पूर्वक करना पड़ता है। यह मान्यता परिपक्व करनी पड़ती है कि निश्चित रूप से अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वास द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्ति को-प्राणाग्नि को अपने प्रचण्ड आघातों से जगा रहा है। प्रहार के उपरान्त प्राण को सूर्य नाड़ी पिंगला द्वारा वापस लाने तथा समूची सूक्ष्म सत्ता को प्रकाशित, अलोकित करने की भावना परिपक्व करनी पड़ती है।

दूसरी बार इससे उलटे क्रम में अभ्यास करना पड़ता है अर्थात् दाहिने नासिका छिद्र से प्राण को खींचना और बाई ओर लौटाना होता है। इस बार पिंगला से प्राण का प्रवेश कराना तथा इड़ा से लौटाना पड़ता है। मूलाधार पर प्राण प्रहार तथा प्राणोद्दीपन की भावना पूर्ववत् करनी पड़ती है। एक बार इड़ा से जाना-पिंगला से लौटना। दूसरी बार पिंगला से जाना इड़ा से लौटना, यही है सूर्यवेधन प्राणायाम का संक्षिप्त विधि-विद्यान। कहीं-कहीं यौगिक ग्रन्थों में सूर्यवेधन प्राणायाम को ही अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी कहा गया है। लोम कहते है सीधे को, विलोम उलटे को। एक बार सीधा, एक बार उलटा। फिर उलटा, फिर सीधा। यह सीधा उलटा चक्र ही लोम-विलोम कहलाता है। लोम-विलोम की पूरी प्रक्रिया से एक पूरा सूर्यवेधन प्राणायाम होता है।

कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्राण ऊर्जा की प्रचुर परिणाम में आवश्यकता पड़ती है। यह प्रयोजन सूर्यवेधन द्वारा होता है। प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन साधक की भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है। सूर्यवेधन की प्रक्रिया सामान्य दीखते हुए भी असामान्य परिणाम प्रस्तुत करने वाली है।

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