
दर्शन साध्य है तो विज्ञान साधन
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वर्तमान समय में विश्व को साँस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर दो प्रकार की संस्कृतियां¡ दृष्टिगोचर होती हैं- दार्शनिक एवं वैज्ञानिक। दार्शनिक संस्कृति के पोषक तत्सम्बन्धी चिन्तन को आज की समस्याओं के युगानुकूल समाधान के रूप में सुझाते हैं तथा विज्ञान को बाã प्रकृति में उलझे रहने वाला कहकर अस्वीकार करते हैं। इसी प्रकार प्रयोगवादी वैज्ञानिक अपने प्रयोगों के माध्यम से प्राप्त उपलब्धियों को मानव जीवन को सरल एवं सुगम बनाने में सहायक होने की बात कहते हैं। उनके अनुसार ये उपलब्धियां¡ को मानवीय जीवन को कहीं अधिक सुखपूर्ण बना सकेंगी, जबकि वैचारिक कल्पना में खोए रहने वाले दार्शनिक मात्र हवाई किले बनाते रहते है।
बाãतः ये दोनों सचमुच दो विपरीत ध्रुवों की तरह ही दिखाई देते हैं। विज्ञान पदार्थ जगत में खोज करता है, जो घटनाओं के दिखाई पड़ने तथा दिखाई न पड़ने तथा इसके दृश्यमान विविध रूपों की व्याख्या करता है। इसके विपरीत दर्शन का कार्य मनुष्य के उन क्रिया–कलापों का चिन्तन करना है, जिन्हें वह स्वयं अपने में महत्वपूर्ण मानता है साथ ही जो उसके जीवन को सुसंस्कृत बनाते है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि दर्शन का प्रमुख कार्य उन मानदंडों की खोज है, जिनके द्वारा विभिन्न साँस्कृतिक क्रियाओं की प्रामाणिकता एवं महत्व को आ¡का जा सकता है।
इसका सर्वांगीण स्वरूप को देखने पर हम मुख्यतः तीन विभागों को पाते है। (1) तर्क (2) आचार शास्त्र (3) सौंदर्य शास्त्र। किन्तु इनमें इसकी परिसमाप्ति या पूर्णता नहीं होती। जहां यह अपनी पूर्णता प्राप्त करता है वह है मोक्ष-धर्म का विवेचन। इसमें मानव द्वारा उपलब्ध की जा सकने वाली सर्वाधिक उच्च अनुभूति का निरूपण है।
कुछ विद्वानों जैसे रिकर्ट, विन्डेल वैण्ड, डिल्टार्ड एवं स्पै्रंगर ने समूची विद्याओं को दो भागों में विभाजित किया है। एक प्राकृतिक, दूसरी साँस्कृतिक। इसकी आगे व्याख्या करते हुए गार्डनर मर्फी, “ए हिस्टाँरिकल इन्टऊोडक्षन टू साइकोलॉजी” में कहते हैं कि प्रथम कोटी की विद्याएँ सामान्य अध्ययन करती है। दूसरी विशेष का। एक बहिरंग तक सीमित है जबकि दूसरी अंतरंग तक अपनी पैठ रखती है।
कुछ विचारकों के अनुसार भारत ने इनमें से प्रथम की अवहेलना कर द्वितीय पर अधिक बल दिया है। अमेरिका के सुप्रसिद्ध) विद्वान एफ.एस.सी. नाथ्राप, “द मीटिंग ऑफ ईस्ट एण्ड वेस्ट” के पृष्ठ 375 पर पूर्व एवं पश्चिम की संस्कृतियों का भेद करते हुए लिखते हैं कि पूर्व के विचारक अपना ध्यान “डिफरेन्षिएटेड एस्थेटिक कन्टीन्युअम” अर्थात् विविध साक्षात्कार सम्बन्धी अनुभवों पर केंद्रित करते रहे हैं, जबकि पश्चिम के विचारक वस्तु जगत की रचना के सम्बन्ध में अभिव्यंजनात्मक परिकल्पनाओं का निर्माण करते रहे हैं।
श्री नार्थ्राप की व्याख्या को डॉ. देवराज ने अन्य प्रकार से स्पष्ट किया है। उनके अनुसार भारतीय विचारकों का मुख्य उÌष्य मानव का दुःख निवारण रहा है। दुःख निवारण से तात्पर्य समूल दुःख के नाष से है। अधिकांश विचारकों ने दुःख के निवारण के समाधान के रूप में मोक्ष धर्म को बताकर भारत के वैज्ञानिक चिन्तन से हीन बताया है।
टाज इस पर पुनः चिन्तन करने की आवश्यकता है। भारत ही एक मात्र वह भूमि है जहां के विचारकों ने प्रारम्भ से दोनों पक्षों को जाना और समझा है। वैदिक साहित्य में चिति और अचिति सम्बन्धी विवेचन ही उपनिषदों में परा और अपरा विद्याओं के रूपों में प्राप्त होता है। यही¡ के ऋषियों ने प्रथम को मुख्य तथा दूसरे को गौण तो कहा है। किन्तु गौण की अवहेलना कर उसे इन्कारा नहीं है।
यही कारण कि यहाँ की साँस्कृतिक विरासत में जहाँ हम दार्शनिक गहराइयों को पाते हैं, वहीं वैज्ञानिक टँचाईयों को भी। गैलीलियो के पहले “पृथ्वी चला स्थिरा भाति” अर्थात् घूमती हैं किन्तु प्रतीत स्थिर होती है तथा डॉल्टन के आणविक सिद्धांत के पूर्व कणाद ने अणु की बात प्रमाणित की थी। चरक सुश्रुत का औषधि विज्ञान, नागार्जुन का रसायन शास्त्र यहाँ की वैज्ञानिक उपलब्धियों की जानकारी देने के लिए पर्याप्त है।
इस सबसे अधिक चमत्कृत कर देने वाला तथ्य यह है कि यहाँ का विज्ञान न तो दर्शन विरोधी रहा है न ही दर्शन विज्ञान विरोधी। यहाँ के वैज्ञानिक एक साथ वैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों थे। नागार्जुन ने जहाँ रसायन शास्त्र में प्रवीणता प्राप्त की, वहीं “शून्यवाद” के दार्शनिक सिद्धांतों के संस्थापक रूप में भी ख्याती अर्जित की। इसी प्रकार कणाद ने मात्र आणविक गवेषणा ही नहीं की, अपितु षड् दर्शनों में से एक स्वरचित वैशेषिक दर्शन में ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्धों का पर्याप्त विवेचन भी किया है। ठीक इसी तरह चरक एवं सुश्रुत मात्र औषधियों की खोज तथा उपयोगिता बताकर सन्तुष्ट नहीं हो गए। जन सामान्य के विकसित जीवन के लिए नीति आचार सम्बन्धी चिन्तन भी दिया। आज नीति शास्त्री इस पर चकित हो सकते हैं कि कोई भिषक उत्कृष्ट कोटि का नीति मीमांसक भी हो सकता है।
आर्यावत में वैज्ञानिक दार्शनिक होने के साथ साधना की उच्चतम अनुभूतियों को प्राप्त करने वाले कोरे रहस्यवादी मात्र नहीं रहे। उन्होंने अपने अनुभवों की तर्क सम्मत बौद्धिक व्याख्या भी प्रस्तुत की है। धर्मकीर्ति, गौड़पाद, श्रीहर्ष, कुमारिल आचार्य शंकर, श्री अरविन्द की कृतियाँ इस बात का प्रमाण है। डॉ. एस. के. मैत्र के शब्दों में यहाँ का दर्शन तथ्यों की आलोचना नहीं बल्कि मानव अनुभूतियों को भी सन्तुष्ट करता है। साथ ही यह व्याख्या पूरी तरह से वैज्ञानिक एवं युक्ति सम्मत है।
मानव के दुख निवारण के लिए यही¡ यह कहकर सन्तोष नहीं किया गया कि भगवान पर विश्वास करो उस पर श्रद्धा रखो सारे कष्टों का हरण होगा। इसके लिए एक ऐसी विशुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रणाली विकसित की गई, जिसका अनुसरण कर ईश्वर पर विश्वास करने वाले तथा विश्वास न करने वाले दोनों समाना रूप से अपने दुःखों से निवृत्ति पाकर आनंद को प्राप्त कर सकते है। यद्यपि इस प्रणाली के बीज उपनिषदों में प्राप्त होते है। फिर इन्हें सुसम्बद्ध करने का श्रेयस् महर्षि पातंजलि को है। काल गणना की दृष्टि से यह समय पश्चिमी मनोविज्ञान के उदय से सहस्रों वर्ष पूर्व ही होगा। किन्तु विवेचना, उपादेयता एवं व्यवहार की दृष्टि से आज के एडलर, एरिक Ýम, कार्त गुस्ताव जुँग सरीखे आधुनिकतम मनोवैज्ञानिकों को सन्तुष्ट ही नहीं करता अपितु भविष्य की प्रगति के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन भी सुझाता है।
विज्ञान एवं दर्शन का समन्वयात्मक स्वरूप भारतीय संस्कृति की अपनी मौलिक विशेषताओं में से एक है। यहाँ विज्ञान को दर्शन की अपेक्षा निम्न स्थान देने का तात्पर्य इसकी अवहेलना नहीं है, अपितु इनसे उच्चतर ज्ञान की निचली सीढ़ी मानना है, जिस पर चढ़कर उच्चतर ज्ञान की अनुभूति कहीं अधिक सरस है। श्री अरविन्द इसी को अपने ग्रन्थ “एवाल्यूषन” में स्पष्ट करते हुए कहते है “विज्ञान अन्ततः केवल प्रक्रियाओं का ज्ञान है। परन्तु फिर प्रक्रियाओं का ज्ञान भी सम्पूर्ण ज्ञान का अंश है और उसके पीछे छिपे गहन सत्य की ओर के रहस्योद्घाटन हेतु व्यापक एवं स्पष्ट दृष्टि हेतु अनिवार्य भी”
इसको निम्न स्थान पर बिठाने का एक अन्य कारण यह है कि विज्ञान मात्र साधन देता है साध्य नहीं। साध्य के लिए साधनों का उपयोग है न कि साधनों के लिए साध्य का उपयोग। अतएव प्रधानता साध्य की ही होगी न कि साधनों की। स्वयं को समझने पर ही वस्तु जगत को कहीं अधिक समझा तथा अच्छी तरह उपयोग में लाया जा सकता है। यहाँ की इसी साँस्कृतिक विचारधारा को योगीराज श्री अरविन्द “सुमन साइकिल” ग्रन्थ में (पृष्ठ 82) स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - “अतिभौतिक प्रकृति के नियम और सम्भावनाओं को जाने बिना सही ढंग से न तो भौतिक प्रकृति के नियम जाने
जा सकते है, न ही संभावनाएं।”
भारत के मनीषियों ने इसलिए इनके सम्बन्ध को अन्योन्याश्रित माना है तथा समन्वयन पर बल दिया है। इसी समन्वयन के कारण ही यही¡ के अन्वेषकों ने विज्ञान को रचनात्मक क्षेत्र में प्रायोगिक बुद्धि को विवेक से अलग कर बैठे है, वहीं दार्शनिक बुद्धि एवं विवेक को प्रयोग तथा अनुभूतियों से पृथक् कर दिया गया है। दोनों को आपसी तालमेल बिठाने, समन्वय स्थापित करने के लिए भारतीय संस्कृति के आगार में अन्वेषण किया जाना चाहिए। इसमें मनीषियों को, ऐसे सूत्र मिल सकेंगे जिसके आधार पर दोनों ही विद्याओं के सम्बन्ध उसी तरह पुनः मधुर हो सकेंगे जैसे कभी बृहत्तर भारतवर्ष आर्यावर्त में थे।