
विचार संप्रेषण बिना माध्यम के भी सम्भव
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अब सह निर्विवाद रूप से प्रमाणित होता जा रहा है कि मानव-मानव के बीच कोई ऐसी प्रक्रिया अवश्य काम करती है, जिसके द्वारा सूचनाओं का सूक्ष्म स्तर पर आदान-प्रदान संभव हो पाता हैं। आध्यात्म के क्षेत्र में दूरवर्ती लोगों को प्रभावित करने, विचारों को सम्प्रेषित करने का यह माध्यम काफी फलितार्थों की साथ ग्रन्थों में वर्णित है, इस पर अब विज्ञान जगत से भी मान्यता मिल गयी है। इस दिशा में अनेकानेक प्रयोग परीक्षण हुए हैं, जिनसे टेलीपैथी, थॉट ट्रांसफर एवं थॉट रीडिंग जैसी मान्यताओं की यथार्थता पर वैज्ञानिकों ने भी आनी मोहर लगा दी है।
इन सामर्थ्यों के अस्तित्व में होने का प्रथम वैज्ञानिक परीक्षण वे उसकी पुष्टि सर्वप्रथम कम्युनिस्ट देश रूस में हुई। वहाँ पर “पोपोव-ग्रुप “ नारमक मुर्धन ने वैज्ञानिकों के एक दल ने इस दल के लिए पहला प्रयास आरंभ किया। इसके लिए कैमेन्स्की एवं निकोलाई नामक दो सबजेक्ट चुने गए। कैमेन्सकी को मास्को में रखा गाया एवं निकोलाई को चार सौ मील दूर लैनिन ग्राद कि एक साण्ड पू्रफ प्रयोगशाला में। कुछ समय पश्चात निकोलाई ने संदेश ग्रहण करने के लिए जब स्वयं को मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार कर लिया तो उससे संबद्ध ई.ई.जी. मशीन में अल्का मस्तिष्कीय तरंगें प्रदर्शित करनी शुरू कीं। निकोलाई को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि दूसरी ओर से विचार संप्रेषण प्रक्रिया कब प्रारम्भ होगी। थोड़ी देर उपरान्त जब मास्को से संदेश संप्रेषण की क्रिया आरम्भ हुई तो निकोलाई की ब्रेन वैव्स में महत्वपूर्ण परिवर्तन परिलक्षित हुआ, जो इस ओर संदेश सफलतापूर्वक ग्रहण करने योग्य बनता देखा गया। रिसेप्टर के मस्तिष्क से निकलने वाली अल्फा तरंगें इसी बात की द्योतक थीं। इसके प्रमाण स्वरूप जब ग्रहीता के स्थान पर निकोलाई की जा जगह एक ऐसे व्यक्ति को रखा गया जो आक्रामक प्रवृत्ति का व निषेधात्मक चिन्तन काथा, तो तो वह उन विचारों को पकड़ने में सर्वथा विफल रहा, जो दूसरी ओर से उसके लिए भेजे जा रहे थे।
वस्तुतः विचार के रूप में संप्रेषित यह और कुछ नहीं वरन् विशेष स्तर की विशिष्ट वेंवलेंग्थ वाली मस्तिष्कीय विद्युतीय तरंगें ही होती है। ग्रहण करने वाली व्यक्ति से भी जब इस स्तर की तरंगें निकलती है तभी वह उन्हें आकर्षित कर पाता है, अन्यथा नहीं। रेडियो कार्यक्रम में प्रसारण केन्द्र से संगीत को एक विशेष आवृत्ति पर भेजा जाता है और उस उसे सुन पाते हैं। मनुष्य में उसकी भिन्न-भिन्न मानसिक तरंगों के लिए उसका चिन्तन तंत्र जिम्मेदार है व्यक्ति यदि सात्विक प्रकृति का रहा है तो उसकी विचारणा भावना भी सौम्य-सात्विक होती है, जो आपनी ही प्रकृति की सतोगुणी व उच्चस्तरीय मस्तिष्कीय रिद्म उत्सर्जित करती हैं। ऐसे ही व्यक्ति सूक्ष्म संदेशों को पकड़ने में सफल होते पाये गये हैं।
प्रयोगों के दौरान यह भी देखा गया है कि ग्रहीता और प्रेषक जब उच्चस्तरीय भाव धारा से जुड़े होते हैं, तो उनमें से एक की दिमागी तरंग में परिवर्तन वही बदलाव दूसरे में भी संचालित होता है। रूसी शोधकर्ताओं द्वारा सम्पन्न किये गए एक ऐसे ही प्रयोग का उल्लेख एमू तिजल ने “इण्टरनेशनल जनरल ऑफ पैरासाइकोलॉजी” नामक पत्रिका के एक लेख में किया है। इस प्रयोग में कैमेन्स्की के सक्षम जलने-बुझने वाली एक प्रेज्ञश ट्यूब (स्ट्रोबोस्कोप) रखी गई, जिसकी ओर जब निकोलाई ने स्वयं को संदेश प्राप्त करने के अनुकूल बनाया, तो थोड़ी देप पश्चात् देखा गया कि उसकी तरंगों की आवृत्ति भी बिल्कुल वही हो गई जो सम्प्रेषक की थी। ऐसा ही निष्कर्ष जैफरसन मेडिकल कालेज फिलाडेल्फिया के दो नेत्र विशेषज्ञों दो जुड़वा भाइयों पर किए गए प्रयोगों से मिला जिसका वर्णन न्यूयार्क के “हैराल्ड ट्रिब्यून” पत्र के “ट्वीन पू्रूव एलेन्ट्रोनिक ईएसूपी नामक निबन्ध में से जे हिक्सन द्वारा किया गया है।
वैज्ञानिक कहना है कि शब्द शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। हम जो कुछ सोचते विचारते हैं वह विचार तरंगों के रूप में अन्तरिक्ष में घूमता रहता है। वैज्ञानिकों ने इस परिधि को “आइडियोस्फियर” नाम दिया है। उनका कहना है कि भाव तरंगें इसी क्षेत्र में मंडराती रहती है। यदि हम अपनी चेतना विचार को उस स्तर तक परिष्कृत कर सके तो ऊपर चक्कर काटती उदात्त विचारणाएँ सहज ही मि तक आकर्षित होकर हमारे कार्य में सहयोग दे सकती हैं। अमरीकी शरीर शास्त्री डब्ल्यू पेनफील्ड एवं एचूएचू जास्फर अपनी पुस्तक “एकपीलेप्सी एण्ड दि फन्क्शनल एनाटाँमी ऑफ दि ह्यूमन ब्रेन “ में लिखते है कि सापेक्षवाद के जनक एवं विज्ञान जगत के मूर्धन्य भौतिकीविद् अल्बर्ट आइन्स्टीन की मस्तिष्कीय तरंगों की जाँच से पता चला था कि उनके मस्तिष्कों अनवरत अल्फा वैव्स अल्फा तरंगें निकलती थी, चाहे वह जटिल से जटिल गणितीय गणना में ही निकलती थी, चाहे वह जटिल से जटिल गणितीय गणना में ही क्यों न उलझे हो। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि अल्फा तरंगें मस्तिष्क की समग्र सक्रियता की स्थिति में निकलती हैं। उनके अनुसार आइन्स्टीन की अधिकाँश समस्याओं के इल दिमाग में अकस्मात आते थे और इस प्रकार वे अपनी गणितीय जटिलताओं को बड़ी आसानी से सुलझा लेते थे। उनका कहना है कि सापेक्षवाद का प्रसिद्ध सिद्धान्त भी ऐसी ही एक चिन्तन प्रक्रिया के दौरान उनके मस्तिष्क में अनायास कौंधा था, जो बाद में भौतिकी का आधार स्तम्भ बना।
स्पष्ट है - आइन्स्टीन का मस्तिष्क सदा संवेदनशील अनुल पिसेप्टर की दशा में बना रहता था। संभव है उनकी यह स्थिति आइडियोस्फियर की उच्चस्तरीय विचारणाओं की फ्रीक्वेंसी से ट्यूण्ड हो जिसके कारण हर वक्त उन्हें वहाँ से मार्ग दर्शन मिलता रहता था। यदि उनके व अन्यान्य आविष्कारकों, अचन्तको के साथ सचमुच ही ऐसा होता था तो इसमें आश्चर्य जैसी कोई गात नहीं होनी चाहिए।
सामान्य व्यक्ति के जीवन में भी यदाकदा ऐसा घटित हो जाता है। मि किसी विषय पर सोचते होते है गंभीर चिन्तन की स्थिति में होते हैं पर तभी कोई ऐसा चार यकायक क्रोध उठता है जिससे हल आसान हो जाता है?। यह शक्य है कि ऐसे समय हमारा संपर्क सूत्र कुछ क्षण के लिए आइडियोस्फियर से जुड़ जाता हो पर अधिक देर तक यह अवस्था न बनाये रख पाने के करण संपर्क टूट जाता हो और कोई अनय जानकारी न मिल पाती है।
अब प्रश्न यह है कि ऐसा ही होता है तो वह कौन सा माध्यम है जिसके कारण अन्तरिक्ष में विद्यमान स्वतंत्र विचार तरंगें किसी व्यक्ति में संचालित होती है अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान तक एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक द्रुतगति से पहुँचती है?
ज्ञातव्य है कि हम ऊर्जा के अनन्तः सोगर में रह हैं। समस्त जीव जगत में उसी का कगीड़ी कल्लोल संव्याप्त है अपनी व्यष्टि सत्ता भी उसी की अभिव्यक्ति है। जो प्राण हम में है वहीं अन्सो में और इस शून्याकाश में भी है। इस प्रकार देखा जाय तो ज्ञात होगा कि सब में एक ही प्राण प्रवाह संचारित हो रहा है और परोक्ष रूप से मि सब एक दूसरे से जुड़े हुए है।
स्वामी अभिदान्नद ने अपने ग्रंथों में लिखा है कि आध्यात्मिक पुरुष अथवा योगीजन दूसरों के मनोभावों को इसलिए जान लेते हे क्योंकि हमारे प्राण-परमाणु निकल कर वातावरण में आते जाते रहते है। इसी माध्यम से वे सामने वाले के विचारों को समझ पाते हैं।
सर्वविदित है समानधर्मी विचार आपस में मिलते और घनीभूत होने रहते हैं। बुरे व्यक्ति सदा अपनी ही प्रकृति के लोगों की ओर आकर्षित होते है और सर्वदा औंधे सीधे कृत्य में संलग्न रहते हैं, जबकि सदाचारियों का संपर्क भले व्यक्तियों से होता है। इस संदर्भ में जीव विज्ञानी डॉ. जैम्बीसमोनाड का कथन अधिक युक्ति अपसंगत जान पड़ता है। कि दुराचारी व्यक्ति अपनी ही प्रकृति के विचारों को अनजाने में अंतरिक्ष से खींचते रह कर कुमार्ग के दलदल में इस प्रकार फँस जाते हैं कि उससे बाहर आ पाना स्वयं के बलबूते असंभव सा हो जाता हैं इस आधार पर यदि व्यक्ति अपनी धारणा को सुव्यवस्थित ओर भावनाओं को परिष्कृत सुविकसित कर सके तो न सिर्फ विचार संप्रेषण ग्रहण और वातावरण से बहुमूल्य अनुदान ग्रहण करने में ही वह सफल होगा, वरन् ब्राह्मी चेतना से भी तब संपर्क साधना संभव बन पड़ेगा।