
प्रभु-दर्शन (Kavita)
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कौन पराया यहाँ? जगत में किससे झूठा बंधन?
घट-घट में, अणु-अणु में होता, उस प्रभु का ही दर्शन॥
रंग बिरंगे फूल खिले जिनमें उसकी ही छवि है।
उसके ही स्वरूप का उद्गाता, यह भास्कर रवि है॥
जिसकी ऊष्मा ही पैदा करती हर अणु में धड़कन॥
कितना प्यारा लगता है यह कामधेनु का छौना।
कितना सुँदर यह खरगोश, प्रकृति का भव्य खिलौना॥
इन्हें देखकर ही अंतर में जगता है अपनापन॥
एक पिता वह हम तुम सारे उसके ही अंशी है।
जिससे सोये प्राण जगें वह कान्हा की वंशी है।
आज चाहिए भेद रहित वह महारास का चिंतन॥
भेद-भाव तज सभी गोपिका, ग्वाह हुए एकत्रित।
अपनेपन की और प्यार की यमुना हुई प्रवाहत॥
झूठा है बस स्वार्थ, अहं ही - जग है पावन नंदन॥
आमंत्रण यह मनुज मात्र को, एक बार तो आओ।
स्नेह सलिल की गंगा है, यह इसमें डूब नहाओ॥
यह समदृष्टि जगी तो यह जग तुम्हें लगेगा तपवन॥
-माया वर्मा
*समाप्त*