
मनोनिग्रह से सम्भव है अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास
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शास्त्रकारों का मत है कि योगाभ्यास, साधना, इत्यादि में चित्त की वृत्तियों की निरोध प्रक्रिया द्वारा मनुष्य अनेकों अलौकिक क्षमताएँ और दिव्य शक्तियाँ हस्तगत कर सकता है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, भूत-भविष्य का ज्ञान जैसी विलक्षण उपलब्धियों का उद्भव भी सम्भव है। मनीषियों के अनुसार-कितनों को अणिमा, लघिमा, गरिमा जैसी ऋद्धियाँ सिद्धियाँ भी हस्तगत होती है। कुछ लोग इन्हें कल्पना लोक की उड़ान कहते है। किन्तु अनेकों ऐसे उदाहरण यह सिद्ध करते है कि अतीन्द्रिय सामर्थ्य एक तथ्य पूर्ण सत्य है। योग साधनाओं के द्वारा आत्मशोधन तथा आत्मपरिष्कार के माध्यम से उन्हें विकसित किया जाना सम्भव है। व्यष्टि मन द्वारा विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम चेतना से तादात्म्य स्थापित करना और अनेकों लौकिक समस्याओं का समाधान खोज लेना, कष्ट कठिनाइयों की पूर्व सूचना प्राप्त कर लेना भी सम्भव है।
एक समय था जब अतीन्द्रिय चमत्कारों को देवी, देवताओं भूत पलीतों की करतूत समझा जाता था। उनके अनुग्रह और दुराग्रह तथा कोप का अनुमान लगाकर पूजा उपचार का ताना बाना बुन लिया जाता था। किंवदंतियों, दन्तकथाओं, मूढ़ मान्यताओं के वे दिन अब नहीं रहे। अतींद्रिय ज्ञान अब एक वैज्ञानिक तथ्य माना जाने लगा है। यों सामान्य जानकारियाँ प्राप्त करता है जो इन्द्रियों के ज्ञान से सर्वथा बाहर की बात होती है। अमेरिकी मनोचिकित्सक डॉ. बर्नार्ड जॉनसन ने अपनी पुस्तक “वियोन्ड टेलीपैथी” में ऐसी अनेकों घटनाओं का उल्लेख किया है। विद्वान लेखक ने प्रमाणित किया है कि कितने ही मनुष्यों में ऐसी क्षमता होती है जिससे वे दूरस्थ स्थानों की घटनाओं की जानकारी बिना किसी संचार साधन के अनायास प्राप्त कर लेते है।
प्राचीन काल की ऐसी अनेकों घटनाओं का वर्णन मिलता है जिनमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार पर दूर-श्रवण, दूरदर्शन, श्राप, वरदान आदि के विवरण दिये गये है। महाभारत युद्ध का पूरा विवरण संजय द्वारा हस्तिनापुर में बैठकर धृतराष्ट्र को बिना किसी दूरसंचार साधन के दिव्य दृष्टि के आधार पर ही सुनाया था। जब कि युद्ध कुरुक्षेत्र के मैदान में 50 योजन दूर चल रहा रहा था। ऐसे अनेकों अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न ऋषियों का उल्लेख भारतीय धर्म ग्रन्थों में मिलता है जिन्होंने श्राप अथवा वरदान के बल का प्रयोग कर दुष्टता का दमन और श्रेष्ठता को संरक्षण प्रदान किया था। येग तत्वोप-निषद में कहा गया है कि जैसे-तैसे चित्त की सामर्थ्य बढ़ती है वैसे ही दूर श्रवण, दूरदर्शन, वाक्सिद्धि, कामनापूर्ति आदि की अनेकों विलक्षण सिद्धियाँ मिलती चली जाती है। चित्त की सामर्थ्य मनोनिग्रह जैसे आध्यात्मिक व्यायामों से ही बढ़ना सम्भव है।
अमेरिका के मनः शक्ति संस्थान के निदेशक डॉ. ब्रूकेल्स के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में अतीन्द्रिय क्षमताएँ प्रस्तुत पड़ी है जिन्हें वह प्रयत्न पूर्वक जाग्रत कर सकता है। कभी-कभी यह शक्तियाँ अनायास ही जाग्रत हो जाती है और व्यक्ति में ऐसी विलक्षणताएं¡ उत्पन्न हो जाती है जो दूसरों के लिए कौतूहल का विषय बन जाती है। परामनोविज्ञान की शोधों के अनुसार यह सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य की मानसिक शक्तियां इतनी सीमित नहीं है जितनी कि प्रतिदिन के क्रिया कलाप में दिखाई देती है। उसका बहुत बड़ा अंश तो प्रसुप्त ही पड़ रहता है। जिसका लोग उपयोग ही नहीं कर पाते। जिस प्रकार मनुष्य की सारी आर्थिक पूंजी काम नहीं आती उसी प्रकार उसकी मानसिक क्षमताओं का भी उपयोग नहीं हो पाता, ऐसी मान्यता मनीषियों की है।
मैस्मरेजम के आविष्कर्ता डॉ. मेस्मर के अनुसार मन को यदि अनावश्यक संग्रह और तुच्छ इन्द्रिय भोगों से विरत किया जा सके, ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके तो वह ऐसी विलक्षण शुि से सम्पन्न हो सकता है जो साधारण लोगों को चमत्कृत कर सके। किन्तु उन्हें उच्चस्तरीय प्रयोजनों में लगाकर आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त किया जा सकता है। मन आकाश में भ्रमण कर सकता है और उन घटनाओं का ग्रहण कर सकता है जिन्हें हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर पातीं तथा हमारा तर्क व्यु करने में असमर्थ है। अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. जे.बी. राइन ने भी अपनी पुस्तक “न्यू ळन्टियर्स ऑफ माइन्ड” में अनेकों ऐसी घटनाओं का वर्णन किया है। वे भी मानते है कि चिन्तन और अभ्यास द्वारा मन और विचारणाओं को सामान्य से असामान्य बनाया जा सकता है और भूत अथवा भविष्य की घटनाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
शोध निष्कर्ष के उपरान्त वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि शरीर की प्रत्येक कोशिका में एक प्रथक मन होता है। कोशिकाओं के मनों का समुदाय है समग्र मन का निर्माण करता है। इसलिए मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म च्स्त्र में उसे मनोमय कोष कहा गया है। शरीर के समस्त अंग अवयव इसी के अनुशासन में कार्य करते है। मन की क्षमता इतनी प्रचण्ड होती है कि शरीर और समीपवर्ती परिकर ही नहीं देश देशांतरों की जानकारी पल भर में प्राप्त करने में समर्थ है। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस प्रकार ध्वनि तरंगों को पकड़ने के लिए रेडियो में एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल फिट किया जाता है वैसे ही काया का क्रिस्टल मन है। विज्ञानवेत्ता कहते है कि बोले गये शब्द ब्रह्माण्ड में व्याप्त ईथर में समा जाते हैं किन्तु उनकी प्रवाही गति बहुत धीमी होती है। इन्हीं शब्दों को यदि विद्युत तरंगों में परिवर्तित कर दिया जाये तब इनकी शक्ति और गति प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है और वे चारों ओर बड़े वेग से फैलने लगती है। इन्हीं शब्द तरंगों को रेडियो पकड़ लेता है जिसे हम दूर बैठकर सुन सकने में समर्थ होते है उसी प्रकार मन भी सृष्टि में घटित घटनाओं की जानकारी प्राप्त कर लेता है। डॉ. हार्ट लाइन ने नेत्र कोशिकाओं में उत्पन्न विद्युत आवेगों को इलेक्ट्रोरेटीनोग्राम द्वारा बताया है कि प्रत्येक नेत्र कोष में उस बिंब की समस्त बारीकियाँ, रंग, रूप निहित होती है, जो एक सेकेंड के करोड़वें हिस्से में उस प्रतिबिंब को अगले कोष को प्रेषित कर देता है। इस प्रकार बिंब की सूचना प्रकाश की गति से मस्तिष्क के दृश्यमान स्थान में पहुँच जाती है। इसी प्रकार काया के कोषों में सन्निहित जानकारी मन तक सतत् सम्प्रेषित होती रहती है।
ऊर्जा का प्रकाश में बदलना एक जटिल प्रणाली है किन्तु वैज्ञानिक का यह मत है कि जब ऊर्जा किसी वस्तु में प्रवेश करती है तो उसके परमाणु उत्तेजित हो उठते है जब शान्त होकर मूल स्थान को लौटते हैं तो सोखी गई ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते है इस क्रिया को “संदीप्ति” कहते है। यह गुण संसार के सभी पदार्थ और प्राणियों में पाया जाता है। हम उसे जानते नहीं, पर वैज्ञानिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिकों का यह कथन सही है कि मनुष्य जो कुछ सोचता और करता है, वह छिपाए नहीं छिपता, क्योंकि सूक्ष्म प्रकाश की तरंगें उसे बाहर निकालती रहती है। यदि हम उन तरंगों से भी सूक्ष्म तरंगों के प्रेषण में सफलता प्राप्त कर लेते है तो आसानी से दूसरों के मन की बात, भविष्य की सम्भाव्य घटनाओं, योजनाओं की जानकारी प्राप्त करने में सफल हो सकते है। इस तथ्य की पुष्टि श्रीमती जे.सी. टऊस्ट ने “अणु और आत्मा” नामक ग्रन्थ में भी दी है। दूसरों के मन की बात जान लेना, अथवा भविष्य के संकेतों की समझपाने के लिए अतीन्द्रिय क्षमताओं की विकसित करना पड़ता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि मन पर नियंत्रण, अनुशासन रखकर उसकी टह्लर्द्मं स्रद्मह्य द्धष्[द्मद्भह्वह्य द्यह्य द्भद्मह्यस्रद्म ह्लद्म,्न द्धशद्ध॥द्मह्व क्/;द्मक्रद्ग द्वद्बश्चद्मद्भ;स्नद्मद्म ह्वद्मठ्ठ;द्मह्यफ्] =द्मंकस्र;द्मह्यफ्] ब्;;द्मह्यफ् ड्ढक्र;द्मद्धठ्ठ ड्ढद्यद्ध द्धह्वद्धद्गक्रद्म द्धस्र; ह्लद्मह्ह्य द्दस्] क्द्यद्म/द्मद्मद्भ.द्म म्द्मद्गह्द्म द्यश्वद्बह्व ष्ह्वस्रद्भ ट्टट्टद्यद्म/द्मह्वद्म द्यह्य द्धद्य)द्धट्टट्ट स्रद्ध द्यड्ड॥द्मद्मशह्वद्म स्रद्मह्य॥द्मद्ध द्यद्मस्रद्मद्भ ष्ह्वद्मह्ह्य द्दस््न