
जड़ों तक पहुँचने पर ही सही-उपचार सम्भव
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जैसे-जैसे विज्ञान का विकास हुआ है, रोगों के निदान एवं उपचार की नित नूतन पद्धतियाँ प्रकाश में आती गयी हैं। वस्तुतः गत आठ वर्षों में इलेक्ट्रोनिक्स एवं चिकित्सा विज्ञान में जिस तेजी से क्राँति आयी है, वह आश्चर्यजनक है। मानव शरीर की गहराई तक माप करने वाले कम्प्यूटराइज्ड उपकरण अब सर्व साधारण के लिए उपलब्ध हैं। फिर भी क्या कारण है कि नये-नये रोग बढ़ते जा रहे हैं, लाइलाज होते जा रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक एवं व्यवहार विज्ञानी बताते हैं कि “इसका मूल कारण यह है कि रोगों की जड़ कही और है। रोग मन की गहरी परत में जन्म लेते एवं काफी बाद में लक्षणों के रूप में बहिरंग में प्रकट होते हैं। आधुनिक प्रगति की दौड़ में भाग रहा मनुष्य दुहरे व्यक्तित्व वाला जीवन जीता है। अचिंत्य−चिंतन ही रोगों की मूल जड़ बनकर व्यवहार में प्रकट होता है। “वे कहते हैं कि इसके लिए व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण विश्लेषण एवं उपचार किया जाना जरूरी है।
प्रायः इन दिनों मानवी व्यक्तित्व की दो स्थूल परतों-प्रत्यक्ष शरीर एवं स्थूल बुद्धि को ही सर्वत्र महत्व दिया जाता है और उन्हीं को सजाने, सँभालने-निखारने की बात सोची जाती है। पोषण भी उन्हीं का होता है। रुग्णता के घर-दबोचने पर काया को ध्यान में रखकर ही औषधि उपचार के सरंजाम जुटाये जाते हैं। मन इन दोनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्षतः उसकी भूमिका नहीं दीख पड़ने से अधिकाँश व्यक्ति उसे महत्व भी नहीं देते। वह उपेक्षित बना रहता है। इतना ही नहीं प्रताड़ना की उपेक्षा भी सबसे अधिक उसे मिलती है। फलतः उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ता है। निरुद्देश्य-भटकती हुई इच्छाओं, आकाँक्षाओं का एक नगण्य स्वरूप ही मन की क्षमता के रूप में सामने आ रहा है। मनोबल-संकल्प बल की प्रचंड सामर्थ्य तो यत्किंचित् व्यक्तियों में ही दिखाई पड़ती है। अधिकाँश व्यक्तियों से मन की प्रचंड सामर्थ्य को न तो उभारते ही बनता है और न ही लाभ उठाते। मन की सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं संतुलित बनाये रखना भी कठिन पड़ रहा है। फलतः रुग्णता की स्थिति में यह विकृति दमित, निकृष्ट इच्छाओं को ही जन्म देती है। इच्छाएँ मानवी व्यक्तित्व की, स्वास्थ्य संतुलन एवं विकास की प्रेरणा स्रोत होती हैं। उनका स्तर निकृष्ट होने पर मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार में श्रेष्ठता की आशा भला कैसे की जा सकती हैं? रुग्ण मानस रुग्ण समाज को ही तो जन्म देगा। मन रोगी हो तो काया का अपना स्वास्थ्य भी अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रह सकता। जड़ें सूखते ही काया रूपी वृक्ष तुरंत ढह जाता है।
वैज्ञानिक क्षेत्र के नये अनुसंधानों ने प्रचलित कितने ही सिद्धान्तों का खण्डन किया है। कितनी ही नयी प्रतिस्थापनाएँ हुई हैं तथा कितने ही सिद्धान्तों में उलट फेर करने के लिए विवश होना पड़ा है। अब धीरे-धीरे स्थूल के ऊपर से चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों का विश्वास टूटता जा रहा है। पदार्थ ही नहीं कायिक स्वास्थ्य के संबंध में भी प्रचलित धारणाओं में क्राँतिकारी परिवर्तन होने की संभावना नजर आने लगी हैं। मनोविज्ञान ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए रहस्योद्घाटन किया है कि शरीर एवं बुद्धि-न केवल मन के इशारे पर चलते हैं, वरन् उसकी भली-बुरी स्थिति से असामान्य रूप से प्रभावित भी होते हैं। तथ्यतः कितने ही शारीरिक रोगों की जड़े मनःसंस्थान में विद्यमान हैं। मन का उपचार यदि ठीक ढँग से किया जा सके तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है, जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का एवं कभी ठीक न होने वाला माना जाता रहा है।
चिकित्सा जगत में “बिहैवियोरलमेडिसन” केविकास से उपचार की सर्वथा एक नयी मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ है। इसमें एन्थ्रोपोलॉजी, सोशियोलॉजी, एपीडेमियोलॉजी, साइकोलॉजी, साइकिएट्री, मेडिसन तथा प्रारंभिक जीव विज्ञान जैसे अनेकों विषयों का समन्वित अध्ययन किया जाता है। इस उपचार प्रक्रिया में विशेषज्ञों ने शरीर और मन को एक कड़ी के दो छोर माना है। इसके आधारभूत प्रयोगों में रोगी का व्यवहार बदलकर उसका स्वभाव मधुर बनाया जाता है, मनोबल की प्रचंडता और व्यक्तित्व विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता है। सोचने-विचारने की-चिंतन की प्रक्रिया बदल जाने का स्वभाव का अंग बनी बुरी आदतों से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। अधिकाँश मनोकायिक बीमारियाँ विकृति चिन्तन के कारण ही पैदा होती हैं। ऐसी स्थिति में तंत्रिका तंत्र एवं ग्रन्थि तंत्र संजीवनी रसायन उत्पन्न करने के स्थान पर ऐसे रसायनों का उत्पादन आरंभ कर देते हैं जो विष तुल्य प्रभाव डालते और अनेकानेक शारीरिक-मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। व्यवहार चिकित्सा विशेषज्ञों का मत है कि मन के भावनात्मक दबाव एवं तद्जन्य तनाव ही रोगोत्पादन के कारण बनते हैं।
“अण्डरस्टैण्डिंग झूमन बिहेवियर” नामक विश्वकोश में विशेषज्ञों ने रोगों के कारण एवं उपचार पर एक शोध अध्ययन प्रस्तुत करते हुए कहा है कि रोगों की जड़ शरीर में नहीं वरन् मन में होती है। अतः रोगियों को महँगी दवाओं की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि उनकी राम कहानी सुनने और अपनेपन का-भाव संवेदना का अहसास कराने की है। प्यार, आत्मीयता, सद्भावना, सहकारिता भरे व्यवहार की वहाँ अनुभूति होगी, मानसिक संतुलन का ठीक तरह बना रहना वही संभव है। अपनेपन का अभाव अनुभव करने वाला व्यक्ति कुपोषणग्रस्त लोगों से भी अधिक दुर्बल रहता और बीमार पड़ता है। उपेक्षा के वातावरण में रहने वाले अपनी मानसिक स्वस्थता खो बैठते हैं और सही सोचने की क्षमता गँवा बैठते हैं।
“व्यवहार चिकित्सा पद्धति” साइकोसोमेटिक मेडिसन पर अपलम्बित परंतु उससे परिष्कृत विद्या है। इस क्षेत्र के अनुसंधानकर्ता विशेषज्ञों का मत है कि मन और शरीर के क्रिया कलाप पूर्णतः एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। इनके बीच थोड़ा भी असन्तुलन मानसिक बीमारियों, हृदय रोगों, डायविटीज,अर्थ्राठटिस, कैंसर जैसे रोगों का कारण बन सकता है। ‘न्यूरो एन्डोक्राइनोलॉजों की नवीनतम खोजों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि तंत्रिका तंत्र एवं ग्रंथि तंत्र एक दूसरे से संबंधित है। वे परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर के हार्मोन्स न्यूरोट्रांसमीटर के रूप में क्रियाशील होते हैं। इन्हें सक्रिय बनाने के लिए विहेवियोरल मेडिसन के अंतर्गत रोगोपचार हेतु शिथिलीकरण, बायो फीडबैक जैसे उपचार उपक्रमों का आश्रय लिया जाता है। मनोशारीरिक रोगों के निदान में इसके आशाजनक सत्परिणाम भी सामने आये हैं।
जर्मनी के चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. हैमर के मतानुसार कैंसर जैसे घातक रोग की जड़े शरीर में न होकर मनः क्षेत्र में है। इस रोग की उत्पत्ति का कारण भी मानव मन है। यह बीमारी विषैले वातावरण, जीवाणु, अनुवाँशिक खामियों के कारण नहीं वरन् व्यक्ति के स्वयं के मानसिक संघर्षों के कारण पैदा होती है। तीव्र मानसिक विक्षोभों से होकर गुजरने के कारण डॉ. हैमर स्वयं कैंसर ग्रस्त हो गये थे। अपने मत के समर्थन के लिए उन्होंने देश के विभिन्न अस्पतालों से 500 रोगियों को चुना जिन्हें कैंसर था। जाँच परख करने एवं गहन पूछताछ करने के पश्चात् ही उनने उक्त निष्कर्ष निकाले हैं। डॉ. हैमर का कहना है कि मन का संतुलन साधने, प्रसन्नचित रहने, रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने, सुदृढ़ मनोबल आदि से जिस प्रकार उनने छुटकारा पाया, उस प्रकार हर रोगी इस बीमारी से छुटकारा पा सकता है।
फोर्टवर्थ टेक्सास के प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी डॉ. कार्ल साइमन्ट का भी कहना है कि जीवन के प्रति अतिशय निराशाजनक चिन्तन कैंसर रोग को जन्म देता है। ऐसे रोगियों का उपचार वे रेडियेशन, शल्य क्रिया आदि की परम्परागत पद्धतियों से अलग हटकर शिथिलीकरण एवं आत्मनिरीक्षण पद्धति से कर रहे हैं। इसमें रोगियों को नियमित रूप से दिन में तीन बार-प्रातः दोपहर एवं सायंकाल में पंद्रह-पंद्रह मिनट का ध्यान करने को कहा जाता है। इस साधना में रोगी “आत्म सम्मोहन” का अभ्यास करता है तथा यह भावना करता है कि उसका मन शान्त, संतुलित और स्वस्थ हो रहा है। दूसरे चरण में उसे रोग ग्रस्त स्थान पर ध्यान धरने को कहा जाता है। जिसे वह प्रबल भावना का आरोपण करता है कि शरीर के श्वेत रक्त कण रोग ग्रस्त क्षेत्र में एकत्र हो रहे हैं तथा रुग्ण कोशिकाओं को शरीर से बाहर निकाल रहे हैं। प्राण ऊर्जा का भण्डार जमा हो रहा है और उस स्थान की कोशिकाओं को प्राणवान बना रहा है। रोगियों को सदैव प्रसन्नचित रहने तथा जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण अपनाए रखने का ही निर्देश दिया जाता है। डॉ. कार्ल साइमण्टन ने इस उपचार प्रक्रिया से अब तक सैंकड़ों रोगियों को कष्टों एवं रोगों से जिनमें कैंसर जैसी घातक व्याधि भी शामिल है, सफलतापूर्वक मुक्त किया है। स्वास्थ्य लाभ उनमें बड़ी तेजी से होता देखा गया, जिन्होंने अपने आचरण एवं व्यवहार में आमूल चूल परिवर्तन कर लिया था अथवा करने के लिए तैयार थे। यही नहिं उनके साथ काम कर रही पैथालॉजी विशेषज्ञों की टीम ने यही भी प्रमाणित कर दिखाया कि रोग की प्रतिरोधी सामर्थ्य की वक्वद्धि के परिचायक इम्युनोग्लोबुलीन्स ए.जी. एवं ई व्यवहार चिकित्सा, जेस्टाल्ट थेरेपी के माध्यम से रक्त में बड़ी तेजी से बढ़ते हैं। यह स्वयं में एक प्रमाण हैं कि शारीरिक वायटेलिटी मनत्न संकेतों पर निर्भर हैं एवं मन की शक्ति को नियोजित कर उसे बदला बढ़ाया जा सकता है। सिल्वा माइण्ड कंटऊोल पद्धति के अन्वेषक जोस सिल्वा जो लारेडो टेक्सास के निवासी हैं, ने ध्यान व आत्म निर्देश प्रक्रिया द्वारा न केवल बुद्धि&लब्धि दक्द्मद्भ-ष्ठ;ह्न-ड्ट स्तर बढ़ाने अपितु मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य संवर्धन में, प्रसुप्त क्षमताओं को जगाने, विभिन्न मनोविकारों से मुक्ति दिलाने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। उनके सहयोगी डॉ. क्लैंसी दृ डी. मैकेन्जी जो कि फिलाडेल्फिया के एक मनःचिकित्सक हैं, ने पाया है कि उनके रोगी ध्यान प्रक्रिया द्वारा जल्दी स्वस्थ होते चले गए। इनमें चिकित्सक की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिनके माध्यम से उन्होंने च्च् सेल्फ हिप्नोसिसज्ज् के अभ्यास में तेजी से प्रगति की। यहाँ तक कि आत्महत्या की घातक मनोविकृति वाले स्कीजोफ्रनीक्स में उन्हें शत प्रतिशत सफलता मिली।
ये सभी साक्षी हैं उस तथ्य के जो स्पष्ट करता है कि रोग चिन्तन की विकृति एवं आचार व्यवहार की निकृष्टता अस्तव्यस्तता की परिणति होते हैं। यदि आत्म निर्देश की पद्धति का ध्यान योग का आश्रय लिया जाय तो न केवल मनोविकारों से मुक्ति पाई जा सकती है, वरन् अंतराल में निहित शक्तियों को जगाया बढ़ाया भी जा सकता है।