
प्रतिकूलताओं की भट्ठी में तप कर निखरता है “व्यक्तित्व”
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प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के लिए मार्ग में आये विघ्न-बाधाओं का साहस एवं पुरुषार्थ द्वारा मुकाबला करना पड़ता हैं। मुसीबतों- कठिनाइयों से जो घबरा जाते हैं, उनका सफलता की मंजिल तक पहुँच पाना सन्देहास्पद ही बना रहता हैं। पर जो प्रतिकूलताओं से जूझते हुए अपनी योग्यता-प्रखरता बढ़ाते हैं, उन्हें श्रेय, सम्मान एवं सफलता मिलने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। संसार में वैज्ञानिकों-अनुसंधानकर्ताओं से लेकर महापुरुषों तक में अधिकाँश को अपने जीवन काल में विपन्न परिस्थितियों से जूझना पड़ा हैं।
विश्वविख्यात ज्योतिर्विद् और खगोल शास्त्री एरिग्मे बड़े ही दुर्दिन भरी परिस्थितियों में पले और बड़े हुए थे। बचपन में उन्हें दो समय की रोटी कड़ी मेहनत मजदूरी करने के उपरान्त ही मिल पाती थी। पूरे परिवार का भार उन्हीं पर था। ऐसी स्थिति में स्कूल जाने का अवस भी बहुत कम मिल पाता था। आगे बढ़ने-महानता अर्जित करने की इच्छा सदैव झकझोरती रहती थी, पर विपन्नता ऐसी थी जो उन्हें रोजी रोटी कमाने में ही व्यस्त रखती थी। किशोरावस्था इसी उधेड़ बुन में व्यतीत हो रही थी कि अपनी योग्यता किस प्रकार बढ़ाई जाय ? किसी तरह एक पुस्तक विक्रेता के यहां टूटी-फूटी किताबों पर जिल्दें चढ़ाने का काम मिल गया। एक दिन वे किसी पुरानी किताब पर जिल्द चढ़ा रहे थे कि पास में रखी रद्दी कागज की ढेरी पर हाथ से लिखा हुआ एक कागज का टुकड़ा दिखाई दिया। उसे उठाकर वे पढ़ने लगे। वह कागज एक पत्र की नकल था जो डी0 एलर्म्बट नामक व्यक्ति ने अपने किसी मित्र को लिखा था। उस पर लिखा हुआ था-”आगे बढ़ो श्रीमान् ! आगे बढ़ो ! जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ोगे, तुम्हारी कठिनाइयाँ अपने आप दूर होती चली जायेंगी और देखोगे कि उन कष्ट कठिनाइयों के बीच में से ही प्रकाश उदित हुआ हैं और जिसने उत्तरोत्तर तुम्हारा मार्ग आलोकित किया हैं।”
एरिग्मे के लिए यह पंक्तियां मार्गदर्शक बन गई। उन्हें जीव में नया प्रकाश मिला। अब तो दुकान पर मरम्मत के लिए जितनी भी पुस्तक आती, वह उन्हें पढ़ डालते। इसका परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर विश्वविख्यात स्तर के ज्योतिर्विद् खगोलवेत्ता एवं विविध विषयों के विद्वान बन गये।
वस्तुतः प्रतिकूलताएँ एवं विपत्तियाँ जीवन की कसौटी है। जिनमें मनुष्य के व्यक्तित्व का रूप निखरता है। इन से खुलकर निबटने से इच्छा शक्ति प्रबल होती हैं और बड़े काम करने की क्षमता प्राप्त होती है। मुसीबतों में मनुष्य की आंतरिक शक्तियाँ एकत्रित और संगठित होकर काम करती हैं। रावन की कोई भी साधना कठिनाइयों में होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है।
अतः ऐसी परिस्थितियों की परवाह न करके जो व्यक्ति इस निश्चय से कार्य में जुटे रहते हैं कि उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करना ही हैं, इसके लिए कितना ही उद्योग एवं परिश्रम क्यों न करना पड़े व अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री निवास रामानुजम् का उदाहरण सर्वविदित है। मद्रास के एक बहुत ही गरीब घराने में उनका जन्म हुआ था। पढ़ने लिखने में कमजोर थे। अंग्रेजी विषय में अच्छे नम्बर न आने के कारण अगली कक्षा में प्रवेश नहीं मिला। 14 वर्ष की आयु में ही पढ़ाई बन्द हो गई। निराशा और हताशा की इन्हीं घड़ियों में उनके हाथ कहीं से गणित की कोई पुस्तक लग गई। उस पुस्तक के सहारे ही उनने गणित का अभ्यास बढ़ाया और इस विषय में इतनी पारंगतता प्राप्त कर ली कि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें अपने यहाँ अध्ययन के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद प्रयत्न और पुरुषार्थ के बल पर उनकी जीवन पुस्तक में सफलता के अध्याय जुड़ते गये। आज जब भी विश्वभर में किसी स्थान पर गणित के विकास में योगदान की चर्चा चलती हैं तो रामानुजम् का नाम सर्वप्रथम लिया जाता हैं। जिनने अल्पायु में ही अपनी विलक्षण प्रतिभा से सारे विश्व को प्रभावित किया था।
सच तो यह हैं कि विघ्न-बाधाएँ मानवी पुरुषार्थ की परीक्षा लेने आती हैं। व्यक्तित्व भी अधिक प्रखर, परिपक्व विपरीत परिस्थितियों में ही बनता हैं। लायोन्स नगर में एक भोज आयोजित था। नगर के सभी प्रमुख विद्वान साहित्यकार एवं कलाकार आमंत्रित थे। प्राचीन ग्रीस की पौराणिक कथाओं के चित्रों से सम्बन्धित एक विवाद की गुत्थी किसी से भी नहीं सुलझ रहीं थी। तभी गृह स्वामी ने अपने एक नौकर को बुलाया और सम्बन्धित विवाद को निपटाने के लिए कहा। सभी को आश्चर्य हुआ कि भला नौक क्या समाधान देगा ? किन्तु नागौर ने सम्बन्धित विषय पर जो तर्क, तथ्य प्रस्तुत किये, उससे न केवल विवाद समाप्त हुआ वरन् सभी विद्वान उसकी तार्किक विवेचना को सुनकर हतप्रभ रह गये। उनमें से एक विद्वान ने नौकर से पूछा- ‘‘महाशय आपने किस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की हैं ? नौकर ने बड़ी ही विनम्रता से उत्तर दिया-”श्रीमान् कई स्कूलों से शिक्षा प्राप्त की हैं, किन्तु मेरा सबसे अधिक प्रभावशाली शिक्षण ‘विपत्ति’ रूपी पाठशाला में हुआ हैं। विपत्तियों से जूझने वाला यही बालक आगे चलकर जीन जैक रूसो के नाम से प्रख्यात हुआ, जिसकी क्रान्तिकारी विचार-धारा ने प्रजातंत्र को जन्म दिया।
सुप्रसिद्ध विद्वान विलियम काबेट ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “प्रतिकूलताएँ” मनुष्य के विकास में सबसे कड़ी सहचरी हैं। आज मैं जो कुछ भी बन पाया हूँ विपन्न परिस्थितियों के कारण ही सम्भव हो सका हैं। जीवन की अनुकूलताएँ सहज ही उपलब्ध होती तो मेरा विकास न हो पाता। काबेट के आरंभिक दिन कितनी विपत्ति एवं गरीबी में बीते, यह उनके जीवन चरित्र को पढ़कर जाना जा सकता है।
अभाव, अवरोध मुसीबतें वस्तुतः अभिशाप उनके लिए हैं जो परिस्थितियों को ही सफलता असफलता का कारण मानते है। अन्यथा आत्मविश्वास एवं लगन के धनीध्येय के प्रति दृढ़ व्यक्तियों के लिए तो वे वरदान सिद्ध होता हैं भट्टी में तपने के बाद सोने में निखार आता है। प्रतिकूलताओं से जूझने से व्यक्तित्व निखरता और परिपक्व बनता है। गिने चुने अपवादों को छोड़कर विश्व के अधिकाँश महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने पर यह पता चलता हैं कि वे अभावग्रस्त परिस्थितियों में पैदा हुए पले। पर उन्होंने जीवन की विषमताओं को वरदान मना। संघर्षों को जीवन बनाने तथा पुरुषार्थ को जगाने का एक सशक्त माध्यम समझा। फलतः वे बाधाओं को चीरते हुए सफलता के शिखर पर चढ़े। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि परिस्थितियाँ मानवी विकास में बाधक नहीं बन सकतीं, अवरोध प्रचण्ड पुरुषार्थ के समक्ष टिक नहीं सकते।
संसार में ईसा, सुकरात, कार्लमार्क्स आदि ऐसे ही महापुरुष हुए हैं जिनको जीवन भर असफलताओं संकटों तथा विरोधों का सामना करना पड़ा। किन्तु वे एक क्षण को न तो ध्येय से विचलित हुए और न निराश वे निरन्तर पुरुषार्थरत एवं प्रयत्नशील रहें। फलतः उन्हें लोगों ने अपने जीवन का आदर्श बनाया।
दार्शनिक सुकरात का जन्म एक निर्धन मूर्तिकार के घर हुआ था। पिता की छत्रछाया उठ जाने के बाद माँ के साथ गरीबों में दिन व्यतीत करते हुए भी वह अध्ययन में लगे रहें। मेहनत मजदूरी करते हुए वह अपने अध्यवसाय में निरत रहें। घर का खर्च चलाने का भी अतिरिक्त दायित्व बाल्यावस्था में ही उनके ऊपर आ गया, पर गरीबी उनके विकास में बाधक नहीं बन सकी। अपने पुरुषार्थ एवं मनोयोग से एक दिन वे दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान बने।
इसी तरह कार्लमार्क्स का जन्म भी गरीबों में हुआ। मरते दम तक विपन्नताओं ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इस निपट निर्धनता में भी वैचारिक साधना करते रहे और एक दिन समाज की नई व्यवस्था “साम्यवाद” के प्रणेता बने। जीवन भर संघर्षरत रहते हुए भी उन्होंने “कैपिटल” जैसे विश्वविद्यालय ग्रन्थ की रचना की इस कार्य में उनकी पत्नी मेरी ने उनकी पूरी मदद की।
अनुकूलताएँ एवं साधन सुविधा ने होते हुए भी कितने ही निर्धन बच्चे विद्वान, ज्ञानी एवं महामानव बने, इससे भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े है। ज्ञानेश्वर, तुकाराम, कालिदास, सूरदास, तुलसीदास से लेकर विद्यासागर, प्रेमचंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला आदि का जीवन उठाकर देखा जाय तो वह कठिनाइयों और विपन्नताओं का एक जीत जागता इतिहास मिलेगा। ये संकटों की तनिक भी परवाह किये बिना अपने पक्ष पर अविचल और अबाध गति से बढ़ते रहे। फलतः सफल हुए और अभिनन्दनीय बने।
आपदाएँ मुसीबतें मानव जीवन के लिए खराद का काम करती हैं। उनसे लड़ने और विजय प्राप्त करने से मनुष्य के जीवन में जिस आत्मबल का विकास होता है। वह एक अमूल्य सम्पत्ति होती हैं। जिसको पाकर आर सन्तोष होता हैं। अवरोधों से संघर्ष पाकर जीवन में एक ऐसी तेजी उत्पन्न होती हैं जो मार्ग में आये समस्त झाड़ .... को काटक दूर कर देती है।
स्वामी विवेकानंद की जीवन-गाथा इसका प्रमाण हैं। अपने पिता की मृत्यु के बाद नरेन्द्र को भारी विपत्तियों का सामना करना पड़ा। कई-कई दिनों तक भूखा सोना पड़ा। रोजगार की तलाश में दर-दर भटकने पर भी कहीं सफलता नहीं मिली। संन्यास लेने के बाद कठिनाइयों का अवरोध और बढ़ता गया। अमेरिका के शिकागो शहर में होने वाले सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने गये तो पहला दिन बहुत ही कष्टमय बीता। बोस्टन शहर के जिस होटल में रात्रि काटने के लिए गये, वहाँ सीढ़ी पर पैर रखते ही दरबान ने काले भारतीय कह कर भगा दिया। सड़क की ओर बढ़े तो बरफ गिरने लगी। जायें तो जायें कहाँ ? भूखे प्यासे तो थे ही। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। पैर भी जवाब दे रहें थे। पर करते क्या ? आगे बढ़ना ही जिनके जीवन का लक्ष्य ठहरा। वे आगे बढ़ते गये और एक रेलवे गोदाम के पास जा पहुँचे। गोदाम बन्द था। अतः बाहर पड़े लकड़ी के एक बड़े पैकिंग बॉक्स में घुसकर जैसे-तैसे रात काटी। सुबह बाहर निकले तो ठंडक के मारे शरीर सुन्न पड़ गया था। एक महिला ने उन्हें अपने घर ले जाकर भोजन एवं गर्म कपड़े की पूरी व्यवस्था की। दूसरे दिन उन्हें गन्तव्य स्थल पर पहुँचाया जहाँ 11 सितम्बर ... को हजारों श्रोता उनके भाषण से मन्त्र मुग्ध हो उठे थे। नगर में स्थान-स्थान पर उनके चित्र लगाये गये, जिसके नीच मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-स्वामी विवेकानन्द। ऐसा नहीं कि संसार में सारे महापुरुष असुविधापूर्ण परिस्थितियों में ही जन्मे और पले हों। ऐसे अनेक महामानव हुए हैं जिनका जन्म बहुत ही सम्पन्न परिस्थिति में हुआ। वे चाहते तो जीवन भर सम्पन्नतापूर्ण परिस्थिति में रहते और कठिनाइयों से बचते हुए बहुत से काम कर सकते थे । किन्तु उन्होंने वैसा नहीं किया, वरन् असुविधापूर्ण परिस्थितियों को स्वेच्छापूर्वक वरण किया। बुद्ध, महावीर, अरविंद गाँधी आदि महापुरुष ऐसे ही थे जिन्होंने जान-बूझकर कंटकाकीर्ण मार्ग चुना। संकट पर संकट आते गये, पर वे अविचल भाव से उनका सामना करते हुए अपने गन्तव्य पथ की ओर बढ़ते ही गये और अंततः अपने उद्देश्य में सफल हुए।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं जा यह बताते हैं कि प्रगति प्रतिकूलताओं के बीच जीते हुए प्राप्त की जाती हैं। ऐसे अपवाद ही होते हैं, जिन्हें सब कुछ बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाता हैं, सुख, समृद्धि, प्रतिभा, कीर्ति, यक्ष प्रखर पुरुषार्थ के ही चमत्कार हैं, इसे हमेशा याद रखा जाना चाहिए।