
भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा
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विश्व की प्राचीन संस्कृतियों का स्मरण करने पर ...श्र, यूनान, बेबीलोन एवं भारत का नाम सहज ही .... पटल पर उभर आता है। इनमें से भी यदि नवीनतम होने का गौरव किसी को प्राप्त है तो वह भारतवर्ष है। प्राचीन काल से ही यहाँ बाह्य प्रकृति के साथ मानव की अंतः प्रकृति के संबंधों पर शोध होती रही है। ऋषि-मुनि कहे जाने वाले शोधकर्ताओं ने मानव के .... -सामाजिक विकास के लक्ष्य ध्यान में रखकर ये .... कार्य किए थे। विकास के विविध आयामीय .... के अनुसार शोध के भी विविध आयाम है।
हमारी साँस्कृतिक धरोहर वेद, उपनिषद्, षडं्-... आदि अनेकानेक मंजूषाओं में निहित है। इस .... तो किसी प्रकार का ताला है, न ही किसी अन्य प्रकार का निषेध। इस खुली छूट का लाभ उठाकर .... एवं पाश्चात्य द्विविधि गोलार्धों के चिन्तकों ने उसका गहन अध्ययन अपने-अपने ढंग से किया है। .... डायसन, किस्टोफर इशरउड, रोम्या रोलाँ आदि पूर्वाग्रहों से रहित मनीषियों का ढँग तो समीक्षात्मक एवं समालोचनात्मक रहा है। किन्तु कुछ ऐसे भी ... है जो पूरी तरह से हठवादिता, पूर्वाग्रह पर उत्तर .... । ऐसे चिन्तकों में फ्रेंक ब्रिस्टल थामस, एबेनेजर ...... विलियम आर्चर प्रमुख है। स्लाटर .... आर्चय ने भारतीय संस्कृति पर गालियों की बौछार करने की कसम खाकर पुस्तकें भी लिखी है।
श्री स्लाटर की पुस्तक का नाम है “स्टडीज इन उपनिषद्” अर्थात् उपनिषदों का अध्ययन। किन्तु बहुत से पृष्ठों को उलटने पर लेख की मनोवृत्ति ... हो जाती है। पुस्तक का नाम यदि उसने ...... से ईर्ष्या रखा होता तो नाम और गुण में .... तो साबित हो ही जाती। इसमें श्रीमान .... ने अपने नाम के अनुरूप न केवल तथ्यों को समझने में कसाई की भूमिका निभाई वरन् समूचे ..... चिन्तन को जी भर गालियाँ भी दी है।
इस तरह की निन्दा करने, गाली-गलौज देने में एक कदम और आगे बढ़कर शीर्ष स्थानीय होने का गौरव पाया है, मि0 विलियम आर्चर ने। मि0 आर्चर ने साँस्कृतिक गौरव की पिटाई समझे जाने वाले दर्शन, धर्म, काव्य, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि सभी को एक साथ एक ही कोटि में रखकर सबके बारे में कह डाला है कि यह अवर्णनीय बर्बरता का एक घृणास्पद स्तूप हे। इसमें उसने यह भी उपदेश दिया है कि भारतीय संस्कृति से बचे रहने में ही कल्याण है।
मि0 आर्चर द्वारा की गई आलोचनाएं इतनी भद्दी एवं असहनीय है कि किसी भी स्वाभिमानी का उत्तेजित हो जाना स्वाभाविक ही है। एकांगी पक्षपातपूर्ण चिन्तन के अभ्यासी इन आलोचक महोदय की पुस्तक के प्रत्युत्तर में प्रख्यात विद्वान तथा यंत्र संगत तर्क देते हुए “क्या भारत सभ्य है” नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी। इसमें उन्होंने कहा है कि रोमन सम्राट नीरों जिसने अपनी सगी माँ अग्रिप्पिना को भी अपनी कुदृष्टि से नहीं बख्शा, को वीर पुरुष का ताज पहनाने वाले विचारकों को मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा मातृवत् परदारेषु की संस्कृति अच्छी न लगे यह स्वाभाविक ही है। अपनी सम्यता पर घमण्ड रखने वाले आर्चर की पोल आइवन ब्लाक की पुस्तक इन बानब्रूट-बेस्टफार वर्जिन्स, के पृष्ठ उलटने से खुल जाती है। यह स्पष्ट हो जाता है कि एक औसत यूरोपियन कितना सभ्य है।
सभ्य होने का दावा करने वाले ये आलोचक कैसे है ? कोई भी ओटो किफर, हान्स लिच आदि की रचनाऐं पढ़कर जाना जा सकता है। श्री अरविन्द ने अपनी पुस्तक फाउण्डेशन्स आफ इण्डियन कल्चर में भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का दार्शनिक विवेचन करते हुए कहा है बर्बरता मूर्ख जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग करने वाले यूरोपीय विचारकों को भद्र तथा सुसंस्कृत बनाने के लिए भारत पुनः कटिबद्ध हो चुका है। भारतीय आत्मा जहाँ-जहाँ भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने उत्साह के साथ सृजन करने में समर्थ हुई है, वहाँ यूरोपीय चमक-दमक की सम्मोहिनी शक्ति लुप्त होने लगी है। महर्षि ने आगे स्पष्ट करते हुए बताया है-हमारे धर्म पर यूरोप का आक्रमण प्रारम्भ में अत्यन्त प्रबल था, पर अब किसी को उसका बल महसूस नहीं होता, क्योंकि हिंदू नवजागरण की सर्जनात्मक हलचलों ने भारतीय धर्म को एक प्राणांत विकासशील सुरक्षित और आत्माख्याधिनी शक्ति बना दिया है। इस कार्य पर मुहर जिन दो घटनाओं ने लगाई है। वे है-शिकागो में स्वामी विवेकानन्द का प्रकट होना। स्वामी जी के विश्व धर्म महासभा में दिया गए अभिभाषण को यूरोपीय सभ्यता के शीश पर भारतीय धर्म की पताका लईराने जैसा ही कहा जा सकता है। दूसरी घटना है कि थियोसाफी का वैचारिक आन्दोलन। कारण कि भारत जिन साँस्कृतिक सूत्रों का प्रतिपादन करता है, उन्हें इन दो घटनाओं ने इस रूप में दिखला दिया कि वे अब पहले की तरह केवल अपनी रक्षा ही नहीं कर रहे वरन् आक्रमण में भी तत्पर है एवं पश्चिम की भौतिकता ग्रस्त मनोवृत्ति पर प्रहार कर रहे है तथा सही जीवन जीने की रीति-नीति का शिक्षण दे रहे है।
योगिराज श्री अरविन्द का उपरोक्त कथन शत-प्रतिशत यथार्थ है। “डाइंग कल्चर” की संज्ञा देने वाले विचारकों को अपने कथन पर पुनः एक बार विचार करना होगा। भारतीय संस्कृति आज भी जाग्रत और जीवन्त हे। इसकी दीप-शिखा अखण्ड रूप से प्रज्ज्वलित रहकर मानवता का पथ प्रदर्शन करती आयी है, आज भी कर रही है एवं भविष्य में भी करती रहेगी। संस्कृति की इस अखंड ज्योति में जब भी धृत की आवश्यकता पड़ी है, परम सत्ता की शक्ति आचार्य शंकर .... रामदास, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, अरविन्द बनकर अवतरित हुई है। इन शक्ति स्वरूप संस्कृति के सपूतों ने आत्माहुति देकर भी संस्कृति ज्वाला को बुझने नहीं दिया।
अँग्रेजी शिक्षा-दीक्षा अंगे्रजित्य प्रभाव नया दीर्घकालीन गुलामी के प्रभाव से इसका बाह्य स्वरूप भले ही कुछ गुमिल सा दौख पड़ने लगा हो। पर वस्तुस्थिति राख से लिपटे धधकते अंगारे की तरह इसका प्राण मन्द नहीं पड़ा वरन् कोई शक्ति का संचार कर रहा है।
उत्तिष्ठन-जाग्रत का गुरु गंभीर मेघ गर्जन वाली संस्कृति को निराशावादी हेय बताना अल्पज्ञता एवं मूढ़ता ही है। स्वामी विवेकानन्द अपने एक वक्तव्य में इसकी गरिमा का उल्लेख देते हुए कहा था कि संसार हमारी भारतमाता है। इसकी सांस्कृतिक सम्पदा का बहुत ही ऋणी हैं। भिन्न-भिन्न जातियों की पारस्परिक तुलना कौन तो मालूम होगा कि सारा संसार सहिष्णु एवं हिंदू का जितना ऋणी है उतना और किसी का नहीं। जब ग्रीस का अस्तित्व नहीं था, रोम भविष्य के कार गर्भ में छिपा था, जब आधुनिक यूरोपियन पुरखे जर्मनी के घने जंगलों के अन्दर छिपे हुए और जंगली लोगों की तरह अपने शरीर को नीले रंगा करते थे, तब भी भारतवासी क्रियाशील थे, इसकी गवाही हमें इतिहास दे रहा है। उससे भी पहले, समय की कोई स्थिति इतिहास नहीं बना सकता, सुदूर अतीत की ओर नजर दौड़ाने का साहस किसी को भी नहीं होता, उस अत्यंत प्राचीन काल से अब तक न जाने कितनी ही भाव तरंगें भारत से प्रकट हुई है, पर वे सब तरंगें अपने आगे शान्ति तथा दिव्य अनुदान बरसाती हुई अग्रसर हुई है।
स्वामी जी का उपरोक्त कथन ऐतिहासिक है। वर्तमान समय कुछ करने का है “ .... महान थे, उन्होंने बहुत बड़े कार्य किए थे पर कहने भर से कोई भला होने वाला कर्त्तव्य .... नहीं है। संस्कृतियों की विविध .... से देवमानव .... तथा विश्व को सभ्यताओं धाराओं को जन्म .... आज अपने सपूतों ..... का पाठ पढ़ाने वाला .... ।
अपने को भारतीय संस्कृति का सपूत कहने का पवित्र कर्त्तव्य है कि इस पुकार को तदनुसार आचरण करने के लिए अग्रिम पंक्ति .... ।